- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- हम पर रूढि़वादी कानून...
x
प्राचीन भारत में समलैंगिकता
मनीषा पांडेय। जून का महीना पूरी दुनिया में प्राइड मंथ के रूप में मनाया जाता है, जैसे मार्च का महीना विमेंस हिस्ट्री मंथ के नाम से. एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय को समर्पित प्राइड मंथ एक तरह से अपनी लैंगिक और यौनिक पहचान को गर्व और आत्मसम्मान के साथ स्वीकारने और उसका उत्सव मनाने की बात है. इस महीने की पहली तारीख को ही इंटरनेशनल स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स ने अपनी फिल्मों और टीवी सीरीज की श्रृंखला में एक और नई कैटेगरी जोड़ी. नाम था- प्राइड मंथ, जिसमें एलजीबीटी मुद्दे पर बनी बहुत सारी फिल्में, सीरीज और डॉक्यूमेंट्रीज दिखाई जा रही थीं.
प्राइड मंथ के बहाने आज हम आपको बता रहे हैं भारत में होमोसेक्सुएलिटी के इतिहास के बारे में. ये क्या है और भारतीय लोकमानस व लोकसाहित्य से लेकर कानून तक इतिहास के विभिन्न चरणों में इसे कैसे देखा जाता रहा.
प्राचीन भारत में समलैंगिकता
समलैंगिकता को जो लोग बीमारी कहते हैं, उनका अपने ही इतिहास का अध्ययन शून्य है. वात्स्यायन की किताब कामसूत्र में एक पूरा अध्याय होमोसेक्सुएलिटी यानी समलैंगिकता को समर्पित है. उस अध्याय में वो कहीं उसके अप्राकृतिक या गलत होने की बात नहीं कहते. रिग्वेद में भी कई जगह समलैंगिता का जिक्र मिलता है. रिग्वेद में लिखा है- विकृति एवम प्रकृति, जिसका अर्थ है कि जो अप्राकृतिक लगता है, वह भी प्राकृतिक है.
आजाद भारत में तकरीबन 70 बरस तक यह विवाद चला है कि होमोसेक्सुएलिटी को लेकर हमारा क्या नजरिया होना चाहिए. समाज का एक बड़ा तबका आज भी इसे एक बीमारी की तरह देखता है, जिसका इलाज होना चाहिए. जबकि सच तो ये है कि वेदों और प्राचीन पुस्तकों, कथाओं की मानें तो समलैंगिता हमारे समाज में कभी भी गलत या अस्वीकृत नहीं थी. समलैंगिकों को अछूत नहीं माना जाता था और न ही समाज में उनका दर्जा नीचा था. समलैंगिता को लेकर एक नकारात्मक अवधारणा हमारे देश में अंग्रेजों और उनके विक्टोरियन नैतिकता के साथ आई. आईपीसी की धारा 377, जिसके तहत 2018 तक भारत में समलैंगिता अपराध थी, वो भी अंग्रेजों की ही देन है.
कहानी आईपीसी की धारा 377 की
यह बात है फरवरी, 2011 की. देश भर से 19 अभिभावकों ने मिलकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उनके साथ थे फिल्ममेकर और राइटर चित्रा पालेकर और श्याम बेनेगल. ये लोग सुप्रीम कोर्ट के पास इस उम्मीद से गए थे कि हाईकोर्ट ने 2009 में समलैंगिता को अपराध के दायरे से बाहर करके उन्हें जो उम्मीद दी थी, उस पर सुप्रीम कोर्ट कहीं पानी न फेर दे. ये डर निराधार नहीं था. हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी थी और पूरे देश में जिस तरह का माहौल बन रहा था, उसे देखते हुए लग रहा था कि ये फैसला कभी भी पलट सकता है. चित्रा पालेकर और श्याम बेनेगल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, "हमारे बच्चे अपराधी नहीं है. हम अपने बच्चों को बहुत करीब से जानते हैं. वे दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे हैं."
1861 में अंग्रेजों ने बनाया ये कानून
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अंग्रेजी हुकूमत ने 1861 में लागू की थी, जिसके तहत समलैंगिता को अपराध के दायरे में रखा गया. ये इंग्लैंड में लागू बगरी एक्ट, 1533 का ही विस्तार था, जो वहां के राजा हेनरी अष्टम के शासनकाल में बनाया गया था. 1857 के गदर को कुचलने के बाद जब भारत की सत्ता सीधे रानी के हाथों में चली गई थी और अंग्रेजी शासन यहां इतनी जड़ें जमा चुका था कि भारतीय व्यवस्था को पूरी तरह नियंत्रित करने के लिए उन्हें अपनी पुलिस, अपनी सेना और अपने कानून की जरूरत थी, तभी उन्होंने भारतीय दंड संहिता की स्थापना की. धारा 377 उसमें बनाए गए विभिन्न कानूनों में से एक था.
आजाद भारत में धारा 377
समलैंगिक पहचान और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को भारत में सबसे पहले आवाज दी 1991 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन ने. उन्होंने एक ऐतिहासिक पत्र प्रकाशित किया था, जिसका नाम था- लेस देन गे- ए सिटिजन्स रिपोर्ट. इस रिपोर्ट में पहली बार इस बात को विस्तार से समझाया गया कि कैसे आईपीसी की धारा 377 बेहद क्रूर और एलजीबीटी समुदाय के मानवाधिकारों का उल्लंघन है. लगभग यही समय था, जब दुनिया के अन्य हिस्सों में भी एलजीबीटी समुदाय के मानवाधिकारों को लेकर आवाज मुखर होने लगी थी. सन 2000 तक आते-आते दुनिया के 90 फीसदी हिस्से में समलैंगिता अपराध के दायरे से बाहर हो चुकी थी. बेल्जियम, लक्जमबर्ग और स्विटजरलैंड में तो 18वीं सदी के अंत में ही (1798 तक) समलैंगिता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया था. रूस, चीन, फ्रांस, इंग्लैंड, डेनमार्क, स्वीन, रूस, थाइलैंड, हंगरी, ऑस्ट्रिया, फिनलैंड, नॉर्वे, अमेरिका, क्यूबा, स्पेन, पुर्तगाल जैसे देश उन्नीसवीं सदी के अंत तक इस लक्ष्य को हासिल कर चुके थे. भारत को वहां तक पहुंचने के लिए 21वीं सदी तक आने का इंतजार करना पड़ा.
दिल्ली हाईकोर्ट का 2009 का फैसला
धारा 377 को डिक्रिमिनलाइज करने के आंदोलन की शुरुआत भारत में नाज फाउंडेशन के द्वारा हुई, जिसने वर्ष 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर किया, जिसमें धारा 377 को अमानवीय बताते हुए मांग की गई कि इसमें दिए गए होमोसेक्सुएलिटी के कानून को खत्म किया जाए. 2003 में हाईकोर्ट ने इस मुकदमे को ही ये कहते हुए खारिज कर दिया कि आप कानून पर सवाल नहीं कर सकते. इसके खिलाफ नाज फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट को दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जनहित में कानून को चुनौती देने, उसे रद्द करने की मांग करने और पब्लिक इंटरेस्ट लॉ सूट दायर करने में कुछ गलत नहीं है. मुकदमा वापस हाईकोर्ट में लौटा और छह साल बाद फैसला समलैंगिकों के पक्ष में आया. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है और इस तरह धारा 377 के समलैंगिकता को अपराध बताने वाले कानून को खत्म कर दिया गया.
2013 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला
भारत का एलजीबीटी समुदाय उस फुटबॉल की तरह है, जो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच धकापेल में कभी इधर तो कभी उधर उछाला जाता रहा है.
देश का एक दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर हुआ और 11 दिसंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को उलटते हुए समलैंगिता को वापस अपराध के दायरे में ढकेल दिया. एक दो दशक लंबी चली लड़ाई का यह बहुत ही दुखद अंत था. सरकार और कानून दोनों ही इसे लेकर संशय और उहापोह में थे. गृह मंत्रालय कभी कहता कि वो हाईकोर्ट के फैसले से नाखुश है तो कभी हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन करता.
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक बार भी एलजीबीटी समुदाय को निराश कर दिया था.
2018 का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
जनवरी, 2018 में सुप्रीम कोर्ट उस याचिका पर सुनवाई करने के लिए तैयार हो गई, जो 11 दिसंबर, 2013 के सुप्रीम कोर्ट के ही जजमेंट के खिलाफ दायर की गई थी. पांच जजों की बेंच उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी- जस्टिस दीपक मिश्रा, इंदु मल्होत्रा, आर. एफ. नरीमन, डी. वाई. चंद्रचूड़ और ए.एम. खानविलकर.
8 महीने बाद 9 सितंबर को आखिरकार वह ऐतिहासिक दिन आ ही गया. सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले को पलटते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने आखिरकार धारा 377 में बदलाव करते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया. अपना फैसला सुनाते हुए जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा, "हमें एलजीबीटी समुदाय से ऐतिहासिक रूप से क्षमा मांगनी चाहिए क्योंकि उन्हें एक ऐसी चीज के लिए अब तक अपराधी करार दिया जाता रहा, जो बिलकुल नैसर्गिक है."
सुप्रीम कोर्ट में कहा गया ये वाक्य तब तक तकरीबन पूरी दुनिया में कहा जा चुका था. दुनिया के तमाम विकसित देश तो इतने आगे निकल गए थे कि उन्होंने अपने देश में समलैंगिक विवाह को भी मान्यता दे दी थी. हम बहुत देर से वहां पहुंचे, लेकिन आखिरकार पहुंच गए थे.
आज भारत उस मुकाम पर पहुंचा है, जहां धीरे-धीरे समाज में भी समलैंगिकता को लेकर लोगों में जागरूकता फैल रही है. हालांकि कूढ़मगजों का एक बड़ा तबका आज भी कुएं का मेढक बना हुआ है, लेकिन उनका कुछ किया नहीं जा सकता.
फिलहाल बात सिर्फ उस समझदारी, विवेक और खुलेपन की है, जो किसी भी समाज को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है. विविधता का, अपने से भिन्न पहचानों का, रुचियों का, प्राकृतिक रूझानों का सम्मान. जैसे प्रकृति में सब तरह के रंग और फूल हैं, वैसे ही जीवन में हर तरह के रंग और पहचान के लिए बराबरी की जगह है. सबको अपनी जगह मिलनी चाहिए.
Next Story