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वैश्विक मंदी की आशंका के बावजूद ब्रिक्स की ईंट की दीवारें नहीं दरकीं, बल्कि इसने अपनी सहनशक्ति का परिचय दिया है।
चीनी सरकार के विदेश मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर लगी तस्वीरों में नौवें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन (2017) में सभी नेता हाथ पकड़कर मुस्कराते हुए, तो दसवें सम्मेलन (2018) में एक कतार में खड़े कैमरे की तरफ हाथ हिलाते हुए और 11वें एवं 12वें शिखर सम्मेलन में बस खड़े हुए दिख रहे हैं। 13वें शिखर सम्मेलन में शामिल पांचों नेताओं की आप बस तस्वीरें देख सकते हैं। 14वां शिखर सम्मेलन, जो इसी हफ्ते आभासी तरीके से संपन्न हुआ, में केवल चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग बैठे और बोलते हुए दिख रहे हैं।
शायद, यह सदस्य-राष्ट्रों की बीच की दूरियों को दर्शाता है। लेकिन ज्यादा संभावना है, कि यह मौजूदा और आने वाले चुनौतीपूर्ण समय को लेकर हरेक सदस्य का सतर्क दृष्टिकोण हो। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई वैश्विक मामलों को किस तरह से देखता है। इस संगठन का मजाक उड़ाते हुए अक्सर कहा जाता है कि इसका कोई उद्देश्य नहीं, कोई एकता नहीं, कोई उपलब्धि नहीं है। लेकिन वर्ष 2009 में अपनी स्थापना के बाद से यह न केवल बचा हुआ है, बल्कि इसने उन लोगों के लिए एक मंच का काम किया है, जो अर्थशास्त्र और व्यापार, जलवायु परिवर्तन, खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा और अन्य सहयोग के मामले में 'गैर-पश्चिमी' तरीके खोज रहे हैं।
बीजिंग में ब्रिक्स के चौदहवें सम्मेलन में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद पहली बार रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को मंच प्रदान किया गया। अपनी बात रखने के लिए उन्हें पहली बार मौका मिला, जो अब तक पश्चिम नियंत्रित कूटनीतिक एवं सामरिक बहस में दबा हुआ है। वास्तव में ब्रिक्स उन पांच देशों का मंच है, जिन्होंने यूक्रेन में रूस की कार्रवाई की निंदा करने से परहेज किया है और एकध्रुवीय दुनिया का विकल्प खोज और प्रदान कर रहे हैं। इनका मानना है कि दुनिया को इस संतुलन की जरूरत है।
ब्रिक्स भारत के लिए गैर-पश्चिमी देशों से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा है। यह भारत की बहुपक्षीय नीति को बल देता है, जहां भारत अपने राष्ट्रीय हित के लिए प्रासंगिक सभी ताकतों से जुड़ता है। इस बार ब्रिक्स शिखर सम्मेलन बेहतर परिस्थितियों में हुआ। बेशक भारत पश्चिम के साथ है, क्योंकि यह अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड का सक्रिय सदस्य है। लेकिन इसने संयुक्त राष्ट्र समेत अन्य मंचों से दूरी नहीं बनाई है, जहां इसे दबावों का सामना करना पड़ा है, और गंभीर आर्थिक प्रतिबंधों की धमकियां भी मिली हैं।
यही नहीं, इसने रूसी रक्षा उपकरणों को खरीदना जारी रखा है और रियायती दर पर रूसी तेल खरीदने का बीड़ा उठाया है। भारत के खिलाफ धमकियां अब तक कामयाब नहीं हो पाई हैं। विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने पश्चिम से कहा, खासकर यूरोप से, कि इस तरह सोचना बंद कीजिए कि यूरोप की समस्या वैश्विक समस्या है और सबको इसका पालन करना चाहिए, विशेष रूप से उन देशों को, जिन्हें उसने अतीत में उपनिवेश बनाया और उनका शोषण किया।
उन्होंने पश्चिम के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अगर चीन भारत पर हमला करता है, तो केवल पश्चिम ही मदद कर सकता है, खासकर यूक्रेन संकट के बाद पश्चिमी देश जिस तरह से एशिया को देखते हैं, उसमें इस दावे पर भरोसा नहीं किया जा सकता। पहली बात तो यह है कि चीन भारत पर हमला नहीं कर सकता और दूसरी बात यह कि अगर ऐसा होता है, तो भारत कूटनीतिक समर्थन के अलावा और किसी मदद की उम्मीद न तो करता है और न करेगा।
निस्संदेह, जयशंकर को राजनीतिक समर्थन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान से मिलता है, जिसे दुनिया ने पहचाना है। शिखर सम्मेलन में अपना मुख्य भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी हालांकि सतर्क थे, उन्होंने चतुराई से कोविड-19 पर बात की, न कि यूक्रेन पर। उन्होंने जोर देकर कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के गवर्नेंस पर पांचों ब्रिक्स देशों के विचार समान हैं। शिखर सम्मेलन की घोषणा पढ़ते वक्त आईएमएफ और अन्य वैश्विक वित्तीय संस्थानों से आह्वान किया गया कि वे कोटा प्रणाली के रूप में काम करें, जो सभी अर्थव्यवस्थाओं के लिए उचित है।
इसने विश्व समुदाय को एक स्पष्ट संदेश दिया। असल में क्वाड का हिस्सा होने के नाते भारत को मितभाषी रहने की जरूरत है। मोदी जानते हैं कि अगर उन्होंने बीजिंग से कोई सख्त संदेश दिया, तो उसका गलत असर हो सकता है। भारत न तो चीन को उकसाना चाहता था और न ही पश्चिम को, फिर भी उसने ब्रिक्स के मंच का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया कि दुनिया को एक ऐसे विकल्प की जरूरत है, जो अलग-अलग दृष्टिकोण को मान्यता दे और जिस पर प्रभावी ढंग से कार्रवाई की जा सके।
चीन ब्रिक्स का विस्तार करने का इच्छुक है और रूस उसकी इस पहल का समर्थन करता है। इस पर सैद्धांतिक सहमति बन गई है, पर इसमें लंबा वक्त लगेगा, क्योंकि इसके मानदंड तय नहीं किए गए हैं। उभरती अर्थव्यवस्थाओं के मंच के रूप में जब यह अर्जेंटीना, मिस्र, इंडोनेशिया, कजाकिस्तान, नाइजीरिया, सऊदी अरब और मैक्सिको जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था का स्वागत करेगा, तो इससे एक संदेश जाएगा कि बहु-ध्रुवीयता की ओर बढ़ने वाला विश्व मानवजाति के लिए एक बेहतर स्थान होगा।
शिखर सम्मेलन ने वैश्विक व्यवस्था की तीन प्रमुख चिंताओं को छुआ-आसन्न वैश्विक आर्थिक संकट, यूक्रेन में चल रहे युद्ध के नुकसान और ब्रिक्स का विस्तार। इसने बहुपक्षीय व्यवस्था में सुधार, कृषि, तकनीकी, कोविड-19 महामारी का मुकाबला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार, स्वास्थ्य, पारंपरिक चिकित्सा, पर्यावरण, व्यावसायिक शिक्षा व प्रशिक्षण, और एमएसएमई जैसे मुद्दों पर ध्यान दिया।
सम्मेलन की घोषणा ने वैश्विक शासन और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार बहुपक्षवाद को बढ़ावा देने तथा परस्पर सम्मान और मौलिक अधिकारों के लिए शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया। यह 'आर्थिक निर्णय लेने और मानदंड-निर्धारण प्रक्रियाओं में उभरते बाजारों व विकासशील देशों की भागीदारी को व्यापक और मजबूत करने के लिए तत्पर है।' कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यूक्रेन संकट, प्रतिबंधों की धमकी, जलवायु आपदा या वैश्विक मंदी की आशंका के बावजूद ब्रिक्स की ईंट की दीवारें नहीं दरकीं, बल्कि इसने अपनी सहनशक्ति का परिचय दिया है।
सोर्स: अमर उजाला
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