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कर्म का मौलिक स्वरूप गति तत्त्व है
कर्म का मौलिक स्वरूप गति तत्त्व है। यह गति तत्त्व ज्ञान के आधार पर ही प्रतिष्ठित है। गति विसर्गभाव है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि अक्षर परम ब्रह्म है। स्वभाव अध्यात्म कहा जाता है। भूत और भविष्य को उत्पन्न करने वाला विसर्ग कर्म कहा जाता है-
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:।।
गीता 8.3
गति, परा और अर्वाक् भेद से दो प्रकार की है। छोडऩा परागति है, विसर्ग है। ग्रहण करना अवार्क् गति है, आदान है। आप किसी भी कर्म पर दृष्टि डालिए, सभी जगह आदान और विसर्ग ये दो भाव ही दिखेंगे। साधारण रूप से भी कहा जाता है कि जीवन और कुछ नहीं केवल लेना और देना (give and take) ही है।
जो देना जानता है, दे सकता है और देता है। वही लेने की प्रक्रिया से परिचित है, वही ले सकता है तथा वही लेता है। जो विसर्ग में कंजूस है, वह आदान धर्मों से वंचित ही रहता है। आई हुई वस्तु की प्रतिष्ठा के लिए पहले अपने आयतन (शरीर) में स्थान खाली करना पड़ेगा। जगह बनानी पड़ेगी। इसके लिए संचित प्राणादि वस्तुओं को पहले निकालना पड़ेगा। इस विसर्ग से जब आयतन में स्थान हो जाएगा, तभी आगत वस्तु स्थिर रूप से प्रतिष्ठित हो सकेगी। त्याग ही वैभव प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ द्वार है। आप जितना अधिक त्याग करेंगे, बदले में प्रकृति त्याग की मात्रा से कई गुणा वैभव आपको प्रदान करेगी। यदि बिना त्याग के सम्पत्ति आ भी जाए, तब भी उसका आप उपभोग नहीं कर सकेंगे। नाममात्र के लिए उपभोग कर भी लिया, तो शान्ति प्रदान करने वाला आनन्द कभी प्राप्त न हो सकेगा। त्याग भावना से युक्त वैभव ही समृद्धि और सुखशान्ति का सबसे श्रेष्ठ द्वार है। इसलिए आदान-विसर्ग लक्षण कर्म ही वास्तविक कर्म है।
यह आदान-विसर्ग कर्म सृष्टि में हर जगह विद्यमान है। अध्यात्म, अधिभूत तथा अधिदेव तीनों संस्थाओं में से हमारी अध्यात्म संस्था के तीन घटक हैं-आत्मा, सत्त्व तथा शरीर। आत्मा मनोमय ज्ञानप्रधान है। सत्त्व प्राणमय क्रियाप्रधान है। शरीर वाङ्मय बनता हुआ अर्थप्रधान है। ये ही तीनों विवर्त क्रमश: कारण-सूक्ष्म-स्थूल शरीर कहलाते हैं। अध्यात्म संस्था की प्रतिष्ठा सूर्य है-सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।
इस अध्यात्म संस्था को तीनों शरीरों की स्वरूप रक्षा के लिए सात प्रकार के अन्नों का आदान करना पड़ता है। वस्तुत: ज्ञानान्न-कर्मान्न-अर्थान्न ये अन्न के तीन ही मुख्य भेद हैं। ज्ञानान्न मन:प्रधान होने से कारण शरीर की तृप्ति का कारण बनता है। कर्मरूपी अन्न सूक्ष्म शरीर का उपकारक बनता है। अर्थान्न वाक्प्रधान होने से स्थूलशरीर की रक्षा, तुष्टि और पुष्टि का कारण बनता है। वाक्प्रधान अर्थान्न के पांच विभाग हो जाते हैं। अत: तीन अन्न के सात अन्न हो जाते हैं, जो क्रमश: ज्ञान-क्रिया-आकाश-वायु-तेज-जल-पृथ्वी कहलाते हैं।
आकाश वाक्तत्व है। यही वाक्तत्व बलों की चिति से पांच महाभूत स्वरूपों में परिणत हो रहा है। पांचों महाभूत वाक्प्रधान हैं। पंचभूतात्मक यही स्थूल शरीर का अन्न है। आकाश का अन्न शब्द है। वायु का अन्न श्वास-प्रश्वास है। सूर्य-चन्द्र-अग्नि:-वाक् और आत्मज्योति भेद से पांच प्रकार का तेजरूपी अन्न प्रकाशात्मक है। पृथ्वी में उत्पन्न गेहूं आदि अन्न कहलाते हैं। इन सातों अन्नों का आदान-विसर्ग ही अध्यात्म संस्था की प्रतिष्ठा का मूल कारण है।
हम सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। वह निरन्तर हमें खाता भी रहता है। हमारे आध्यात्मिक रसादि का आदान करने वाले अन्नाद सूर्य को हम भी खाया करते हैं। सूर्यरस से उत्पन्न सातों अन्न हमारा अन्न बन रहे हैं। इस पारस्परिक आदान-विसर्ग से ही वह, हम, आप, सबकुछ स्वस्वरूप से प्रतिष्ठित हैं। पारस्परिक अन्न-अन्नाद भाव ही जीवनसत्ता का सर्वोत्तम आलम्बन है।
सात अन्नों में से वागान्न शरीर का रक्षक है। क्रियान्न सत्व का रक्षक है। ज्ञानान्न आत्मा की प्रतिष्ठा है। इस दृष्टि से आध्यात्मिक कर्म त्रिसंस्थ बन जाता है। तीनों शरीरों से सम्बन्धित अन्न-आदान विसर्ग रूपी कर्मों का स्वरूप भिन्न है। वात-पित्त-कफ ये तीन स्थूल शरीर के धातु माने गए हैं। इनकी साम्य अवस्था से ही स्थूल शरीर अपने स्वरूप से प्रतिष्ठित रहता है। वातधातु वायव्य है। कफधातु आप्य (जलीय) है। पित्तधातु आग्नेय है। शरीर धातु प्राणात्मक है। अत: इन प्राणरूप धातुओं का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। सत्ता-भाति-उभय सिद्ध पदार्थों में से हमारा यह त्रिधातु वर्ग सत्ता सिद्ध पदार्थ है किन्तु उसको स्थूल के समान प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। शरीर में शिरा-स्नायु-धमनी नाम की तीन जाति की नाडिय़ां हैं। रसवाहिनी नाडिय़ां शिरा हैं, ज्ञानवाहिनी नाडिय़ां स्नायु हैं एवं वायुवाहिनी नाडिय़ां धमनी हैं। वायुवाहिनी नाडिय़ों में संचार करने वाला स्थूल वायु वात है। इसमें धातु (धारक) रूप प्राणात्मक वात प्रतिष्ठित है। कफ आप्य है, जलीय द्रव्य है। इसमें आप्यप्राण रूप कफ धातु प्रतिष्ठित है। शरीर में व्याप्त उष्मा पित्त है, इसमें प्रतिष्ठित आग्नेय प्राणधातु पित्तधातु है। स्थूल वात-पित्त-कफ भौतिक हैं, इनमें रहने वाले शक्ति-प्राण-प्रतिष्ठारूप में सुसूक्ष्म हैं।
इस जगत को अग्नीषोमात्मक कहते है। इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व में अग्नि-सोम दो धातु माने गए हैं। सूर्य अग्नि धातु है, चन्द्रमा सोमधातु है। इन दोनों के अतिरिक्त पिण्ड (मूर्ति) सम्पादक मातरिश्वा नाम का प्राणवायु और है। ये ही तीनों (सूर्य-वायु-सोम) हमारे शरीर के पित्त-वात-कफ धातुओं के आरम्भक बनते हैं।
शरीर के इन तीनों धातुओं की साम्यावस्था के लिए जो-जो निर्धारित आहार-विहार हैं, वे सब नित्यकर्म है। गलत यानी मिथ्या आहार-विहार से तीनों धातु विषम हो जाते हैं। यही विषमता रोग का मूल कारण बनती है।
नित्यकर्म पालन है, नैमित्तिक कर्म रक्षण है एवं काम्य कर्म पोषण है। आहार-विहार की नियमितता से तीनों धातु सम बने रहते है। आयुर्वेद में बताए गए आहार विहारादि का आदान-विसर्गात्मक कर्म ही स्थूल शरीर का नित्यकर्म है। इनको न करने से रोग उत्पन्न होते हैं। इन रोगों की शान्ति, शरीर की रक्षा के लिए आदान-विसर्गात्मक चिकित्साकर्म ही रक्षक बनते हुए स्थूल शरीर के नैमित्तिक कर्म हैं। औषधियों का सेवन तीसरा काम्यकर्म हैं। शरीरपुष्टि, धातुवृद्धि ही इसका लक्ष्य हैं।
वस्तुत: कर्म का स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना हम जानते और मानते है, उससे कई गुणा अधिक है। साधारण और नित्य प्रतीत होते हुए भी कर्म विशिष्ट होता है। स्थूल शरीर के कर्म, सूक्ष्म शरीर के कर्म और कारण शरीर के कर्म। इन पर विद्या-अविद्या का प्रभाव रहता है। कर्म प्रकृति के सत्त्व, रजस्, तमस् से भी प्रभावित होते हैं। तीनों ही गुण अविनाभूत हैं, सदैव साथ रहते हैं एक के बिना दूसरे की अवस्थिति संभव नहीं हैं। प्रबलता के आधार पर ही सत्त्व, रज या तम युक्तता निर्धारित होती है। कोई सत्वप्रधान है, तो कोई रजोमूर्ति है। कोई तम:प्रधान है। त्रिगुणभावों के इसी तारतम्य से पदार्थों के सात्विक-राजस-तामस भेद से तीन वर्ग हो जाते हैं। इन तीनों गुणों की सत्ता कामादि छह दोषों पर टिकी है। दोषों के निकल जाने पर तो गुण निर्गुण बनता हुआ विश्वसीमा से बाहर निकल जाता है। कृष्ण भी कह रहे हैं कि हे कुन्तीनन्दन दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएं से अग्नि की तरह किसी न किसी दोष से युक्त हैं-
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।।
गीता 18.48 क्रमश:
क्रेडिट बाय पत्रिका।
Rani Sahu
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