सम्पादकीय

मेडिकल साइंस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है एंटीबायोटिक दवाओं का बेअसर होना!

Gulabi
26 Nov 2021 5:23 PM GMT
मेडिकल साइंस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है एंटीबायोटिक दवाओं का बेअसर होना!
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मेडिकल साइंस के सामने सबसे बड़ी चुनौती
सन् 1928 में ब्रिटिश वैज्ञानिक सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलिन नामक पहले एंटीबायोटिक की खोज करके संक्रामक रोगों से लड़ने और उन पर काबू पाने का रास्ता दिखाया था. आगे चल कर एंटीबायोटिक दवाएं संक्रामक रोगों के इलाज में रामबाण साबित हुईं. एंटिबायोटिक दवाओं की खोज से पहले बैक्टीरिया मानव जीवन पर इतने भारी पड़ते थे कि पृथ्वी पर इंसान का जीवन काल 25 वर्ष से भी कम था. एंटीबायोटिक दवाओं का आविष्कार बीसवीं सदी में मेडिकल साइंस के क्षेत्र में सबसे बड़ा चमत्कार था.
इन चमत्कारिक दवाइयों की खोज की बदौलत दुनिया के कई देशों में औसत जीवन काल तकरीबन 60-65 वर्ष हो गई, साथ ही बैक्टीरिया की वजह से होने वाली कई बीमारियों का कारगर इलाज भी मुमकिन हुआ. इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद एक वास्तविकता यह सामने आ रही है कि ये जीवनरक्षक दवाएं अब तेजी से बेअसर हो रही हैं, जिसकी वजह से मानव जाति इस चमत्कारिक देन को गंवा देने के कगार पर खड़ी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पिछले एक दशक के दौरान एंटीबायोटिक दवाओं का इतना दुरुपयोग और बेजा इस्तेमाल हुआ है कि अब यह वरदान से श्राप में तब्दील होता जा रहा है. तमाम बैक्टीरिया तेजी से एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी होते जा रहे हैं. डब्ल्यूएचओ ने इसे 'एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस' का नाम दिया है. आम बोलचाल की भाषा में इसे 'सुपरबग' भी कहा जाता है.
हाल ही में डब्ल्यूएचओ की मेजबानी में 'विश्व एंटीबायोटिक जागरूकता सप्ताह-2021' (डबल्यूएएडबल्यू-21) मनाया गया. हर साल 18 से 24 नवम्बर के दरम्यान एंटीबायोटिक के सदुपयोग और इसके प्रतिरोध से निपटने के लिए आम लोगों, नीति निर्माताओं और स्वास्थ्यकर्मियों में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से विश्व एंटीबायोटिक जागरूकता सप्ताह (वर्ल्ड एंटीबायोटिक अवेयरनेस वीक) का आयोजन किया जाता है.
डब्‍ल्‍यूएएडब्‍ल्‍यू की इस साल की थीम थी- 'जागरूकता फैलाएं, प्रतिरोध रोकें' (स्प्रेड अवेयरनेस, स्टॉप रेजिस्टेंस). इस साप्ताहिक मंथन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 'हमें एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल को लेकर जागरूकता के प्रचार-प्रसार को और तेज करने की आवश्यकता है. साथ ही डॉक्टरों, मरीजों, फार्मासिस्टों, आम लोगों, शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, नर्सों, सामाजिक कार्यकर्ताओ, किसानों और नीति निर्माताओं सभी को इस पर एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है.'
बैक्टीरिया के खिलाफ पुरानी लड़ाई और एंटीबायोटिक की खोज
हमारे ब्रह्मांड में जितने तारे हैं उससे कई गुना ज्यादा बैक्टीरिया धरती पर हैं. कई बैक्टीरिया हम इंसानों के शरीर से हाई एनर्जी फूड (ग्लूकोज़, विभिन्न प्रकार की शर्करा, प्रोटीन और वसा) प्राप्त करते हैं. इनमें से ज़्यादातर बैक्टीरिया इंसानों के लिए सुरक्षित ही नहीं बल्कि लाभदायक भी हैं. लेकिन कुछ बैक्टीरिया मानव शरीर के लिए के लिए नुकसानदायक होते हैं और आम तौर पर बीमारियों की वजह बनते हैं. ऐसे हानिकारक बैक्टीरिया को 'पैथोजेनिक बैक्टीरिया' या 'रोगजनक जीवाणु' कहा जाता है.
आज आमतौर पर बैक्टीरिया के खिलाफ जंग में हम एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन प्राचीन काल से ही इंसान जड़ी-बूटियों और दवाइयों की मदद से बैक्टीरिया संक्रमण से होने वाले रोगों से निजात पाने की कोशिश करता रहा है. हालांकि प्राचीन काल के लोगों को यह नहीं पता था कि कोरी आंखों से न दिखाई देने वाले सूक्ष्मजीवों की वजह से ये बीमारियां होती हैं. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इंसान तकरीबन तीन हजार से ज्यादा वर्षों से एंटीबायोटिक्स का उपयोग करता आ रहा है.
प्राचीन चीन और मिश्र के लोग कुछ फफूंदियों का प्रयोग खरोचों और जख्मों को भरने के लिए करते थे. फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी नामक जर्नल में 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ द एंटीबायोटिक एरा: लेशंस लर्नड एंड चैलेंजेस फॉर द फ्यूचर' शीर्षक से प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस का लेपन करते थे. सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के उपचार में किसी जड़ी-बूटी का इस्तेमाल करते थे.
बहुत-सी बीमारियों के इलाज के लिए यूनानी और भारतीय वैद्य या चिकित्सक भी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते थे. दरअसल, इन सभी प्राकृतिक उपचारों में एक तरह का एंटीबायोटिक ही होता था.
आधुनिक मेडिकल साइंस पर आधारित बैक्टीरिया संक्रमण का इलाज बहुत ज्यादा पुराना नहीं है. आज से तकरीबन 93 साल पहले स्कॉटलैंड के जीवाणु विज्ञानी सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने बैक्टीरिया संक्रमण के इलाज में सबसे महत्वपूर्ण खोज की. हुआ यूं कि फ्लेमिंग स्टैफिलोकोफाई नामक बैक्टीरिया से भरे एक पेट्री डिश को खुला छोड़कर छुट्टियां मनाने चले गए. जब वह लौटे तो उन्होंने एक आश्चर्यजनक बात देखी. उन्होंने देखा कि कि पेट्री डिश में पड़ी जैली में पेनिसिलियम नोटाटम नामक एक दुर्लभ फफूंद उग आई थी. जहां पर भी यह फफूंद उगी थी, वहां सभी बैक्टीरिया मर गए थे क्योंकि फफूंद एक किस्म के रसायन का निर्माण कर रही थी.
इस अचानक हुई घटना को फ्लेमिंग ने बार-बार दोहराया. इसके लिए उन्होंने पेनिसिलियम नोटाटम उगाए. फिर पेनिसिलियम नोटाटम से निकाले गए रसायन द्वारा बैक्टीरिया पर अध्ययन किया. प्रयोग को कई किस्म के जीवाणुओं के साथ दोहराकर उन्होंने पता लगाया कि पेनिसिलियम नोटाटम से निकले रसायन का बैक्टीरिया पर घातक प्रभाव पड़ता है. वे इस रसायन से मर जाते हैं. यह अपने आप में एक बहुत बड़ी खोज थी क्योंकि उन्होंने एक ऐसा रसायन प्राप्त कर लिया था, जो बैक्टीरिया को पैदा होने से रोकता था. चूंकि यह रसायन पेनिसिलियम नोटाटम फफूंद से प्राप्त किया गया था इसलिए इसको पेनिसिलिन नाम दिया गया.
देखते ही देखते पेनिसिलिन संक्रामक रोगों को ठीक करने की एक जीवनदायी दावा बन गई. दूसरे विश्वयुद्ध में घायलों को ठीक करने में पेनिसिलिन चमत्कारी साबित हुआ. बाद में पेनिसिलिन के इंजेक्शन और गोलियों को अनेक संक्रामक बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल किया गया. पेनिसिलिन की खोज के बाद स्ट्रेप्टोमाइसिन, क्लोरैम्फेनिकॉल, टेट्रासाइक्लीन, सल्फोनामाइडों आदि अनेक एंटीबायोटिक दवाओं का आविष्कार हुआ. एंटीबायोटिक दवाओं की बदौलत करोड़ों लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सका. यह एक स्थापित तथ्य है कि प्लेग और मलेरिया जैसी विश्वव्यापी महामारियों पर लगाम इन्हीं एंटीबायोटिक दवाओं से ही लगा है.
'पोस्ट एंटीबायोटिक युग' की दहलीज़ पर खड़ी दुनिया
अलेक्जेंडर फ्लेमिंग को पेनिसिलिन की खोज के लिए सन् 1945 में चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस समय फ्लेमिंग ने अपने नोबेल भाषण में चेतावनी देते हुए कहा था कि 'ऐसा वक्त भी आ सकता है, जब कोई भी व्यक्ति दुकान से पेनिसिलिन खरीद सकेगा. इसमें खतरा यह होगा कि इंसान खुद को इसका अंडरडोज या ओवरडोज देगा. ऐसे में इसका सेवन कर बैक्टीरिया को इस दवा को लेकर प्रतिरोधी बना देगा, जिससे दवा का असर खत्म हो जाएगा.'
फ्लेमिंग की चिंता सही निकली. आप भारत में किसी भी मेडिकल स्टोर पर जाएं, इसकी पूरी संभावना है कि बगैर डॉक्टर की पर्ची (प्रिस्क्रिप्शन) के आपको एंटीबायोटिक दवाइयाँ आसानी से मिल जाए. मेडिकल स्टोर को तो छोड़िए ये दवाइयाँ आपको गांव की परचून दुकानों पर भी मिल सकती हैं. आम सर्दी-ज़ुकाम, खांसी या गले के दर्द से पीड़ित मरीज़ भी बगैर डॉक्टर की सलाह के और बिना यह जाने कि उसकी यह तकलीफ किसी बैक्टीरिया संक्रमण की वजह से है या वायरस संक्रमण की वजह से धड़ल्ले से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करता है. वायरस संक्रमण में एंटीबायोटिक दवाओं की कोई भूमिका नहीं होती और ऐसे बेजा इस्तेमाल के चलते प्रतिरोध की समस्या सिर उठाने लगती है.
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं का इतना दुरुपयोग और बेजा इस्तेमाल हुआ है और अभी भी हो रहा है कि उनका प्रभाव खत्म हो रहा है. आज आलम यह है कि बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं खोजते हैं, म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की आनुवांशिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस एंटीबायोटिक के विरुद्ध प्रतिरोध कायम कर लेते हैं.
नए बैक्टीरिया जिन्हें आम बोलचाल की भाषा 'सुपर बग्स' कहा जाता है, उन पर एंटिबायोटिक दवाएं असर खो रहे हैं. ये सुपर बग मनुष्यों के लिए घातक बनते जा रहे हैं, एक से दूसरे में फैल रहे हैं और हमें पोस्ट एंटीबायोटिक युग में ले जाने के लिए बेक़रार है. यह वह दौर होगा जब छोटी-छोटी बीमारियों से पहले की तरह लोग मरने लगेंगे और किसी धातु के खरोचें या मामूली समझे जाने वाले इन्फ़ेक्शन भी मौत की वजह बन जाएंगे.
एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस को हल्के में लेना पड़ेगा भारी!
अगर आप सोचते हैं कि एंटिबायोटिक रेजिस्टेंस कोई समस्या नहीं है और न ही इसका आप पर असर पड़ने वाला है तो इस बात पर दुबारा विचार करें. आज, प्रतिरोधी बैक्टीरिया का संक्रमण बेतहाशा बढ़ता जा रहा है. इन पर कोई भी एंटीबायोटिक प्रभावी नहीं होता और संक्रमण लंबी बीमारी में तब्दील कर मौत का जोखिम पैदा कर देता है.
सेंटर फॉर डीजीज डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी के मुताबिक एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की वजह से हर साल दुनियाभर में 7 लाख बच्चों की मौत हो रही है, जिसमें से सिर्फ भारत से 60 हजार के करीब मौतें हो रही हैं. डेयरी और मांस उद्योग में भी एंटीबायोटिक का बड़े स्तर पर इस्तेमाल किया जाता है, इससे एंटीबायोटिक के अवशेष दूध और मांस के जरिए भी हमारे शरीर में दाखिल हो रहे हैं. एंटीबायोटिक के अंधाधुंध इस्तेमाल से टीबी के मामलों में भी इजाफा हुआ है. टीबी पर एंटीबायोटिक के काम न करने की वजह से हर साल लाखों मौते हो रही हैं.
डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि 2050 तक एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस की वजह से दुनियाभर में एक करोड़ मौतें होंगी. एक अंदाजा है कि इससे होने वाली कुल मौतों में से 90 प्रतिशत एशिया और अफ्रीका में होंगी. भारत के लिए तो समस्या और भी बड़ी है क्योंकि भारत एंटीबायोटिक के उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही मामलों में दुनियाभर में सबसे आगे है. वर्ल्ड बैंक के एक आकलन के अनुसार एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का उपचार कराने के एवज में 2030 तक दुनियाभर में अतिरिक्त 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गिरफ्त में आ सकते हैं.
हम क्या कर सकते हैं?
इस पर नियंत्रण पाने के लिए हमें और भी कड़ी राष्ट्रीय नियंत्रण नीतियां बनानी होंगी, दवाओं के इस्तेमाल पर कठोर नियंत्रण, अस्पतालों को बैक्टीरिया मुक्त और पर्यावरण को साफ-सुथरा बनाए रखना होगा. लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी काम लोगों को जागरूक बनाना होगा ताकि एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल पर लगाम लगाया जा सके और जरूरत पड़ने पर लोग डॉक्टर की सलाह से ही एंटीबायोटिक दवाएं लें.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी में वैज्ञानिक सत्यजित रथ के मुताबिक 'इसे एक व्यापक नज़रिए से देखने की ज़रूरत है. और तकनीकी व प्रौद्योगिकी के मुद्दों के बारे में, मूलभूत वैज्ञानिक शोध के मुद्दों के बारे में और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के बारे में बहुत बड़े और विस्तृत पैमाने पर हमें इस समस्या के बारे में सोचना चाहिए. हमें इस समस्या के बारे में सरकार से माँगें करनी चाहिए. तब कहीं जाकर हम इस समस्या के साथ लम्बे अर्से तक जूझ पाएँगे.' विश्व एंटीबायोटिक जागरूकता सप्ताह मनाने का भी यही उद्देश्य है. प्रतिरोधी बैक्टीरिया के विरुद्ध लड़ाई को हमें हर हाल में जीतना ही होगा. अस्तु!



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
प्रदीप
प्रदीपतकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.
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