सम्पादकीय

इतिहास के चश्मे से रानी लक्ष्मीबाई और सिंधिया की गद्दारी, क्या ज्योतिरादित्य ने वंशजों का कलंक धोया!

Rani Sahu
28 Dec 2021 11:50 AM GMT
इतिहास के चश्मे से रानी लक्ष्मीबाई और सिंधिया की गद्दारी, क्या ज्योतिरादित्य ने वंशजों का कलंक धोया!
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झांसी (Jhansi) की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) की समाधि पर जाकर केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) ने उस कलंक को धोने का प्रयास किया है

शंभूनाथ शुक्ल झांसी (Jhansi) की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) की समाधि पर जाकर केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) ने उस कलंक को धोने का प्रयास किया है, जो पिछले क़रीब पौने दो सौ वर्षों से उनके परिवार का पीछा कर रहा है. लोक में यह माना जाता है, कि 1857 की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई का यदि ग्वालियर के सिंधिया ने साथ दिया होता और रानी के साथ ग़द्दारी न की होती, तो अंग्रेज कब के भाग चुके होते. इस लोक मान्यता को मशहूर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan) ने इतिहास बना दिया, जब उन्होंने लिखा, "अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी!"

तब से ये कलंक सिंधियाओं पर ऐसा चस्पां हुआ कि केंद्रीय सत्ता के प्रति उनकी वफ़ादारी भी काम न आई. लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया 27 दिसंबर को ग्वालियर में रानी की समाधि पर पहुंचे और नमन किया. और इस तरह वह सिंधिया कुल के पहले वंशज हुए, जिन्होंने इस दिशा में कदम उठाया.
ग़द्दारी का क़िस्सा मनगढ़ंत नहीं
ग्वालियर में सिंधिया परिवार के प्रति वफ़ादार कुछ पत्रकार और बौद्धिक लोग नहीं मानते कि सिंधिया नरेशों ने कोई ग़द्दारी की थी. वे इसे सुभद्रा कुमारी चौहान की मनगढ़ंत बात बता रहे हैं. लेकिन जिस किसी ने भी रानी को केंद्रित कर कुछ भी लिखा, उसने यह भी ज़िक्र किया है कि सिंधिया राजाओं ने ग़द्दारी तो की थी. 1857 की क्रांति पर पुस्तक लिख रहे डॉ. राकेश पाठक बताते हैं कि इस प्रमाण को कैसे ख़ारिज किया जाए कि उस समय के ग्वालियर के जयाजी राव सिंधिया मुरार के युद्ध में स्वयं अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ने गया था. इसके बाद 1857 की क्रांति के बाद जब लॉर्ड कैनिंग ने आगरा दरबार किया तब उस दरबार में जयाजी राव सिंधिया भी आए थे और जयपुर के महाराजा भी. लॉर्ड कैनिंग ने क्रांति को दबाने में सहायक सभी राजाओं को "थैंक्यू" बोला था. और इसी समय उन्हें ग्वालियर का महाराजा घोषित किया गया. इससे ज़ाहिर होता है कि सिंधिया के बारे में लोक मान्यता सत्य है.
लॉर्ड कैनिंग द्वारा सिंधिया को थैंक्यू बोलना
मालूम हो कि लॉर्ड कैनिंग ने तीन दरबार किए थे. पहला उस समय जब क्रांति की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी और अंग्रेज देसी नरेशों को अपने साथ रखना चाहते थे. उस समय ग्वालियर से जयाजी राव सिंधिया उस दरबार में गए थे. डॉ. राकेश पाठक के अनुसार "जयाजी विजय" के लेखक सरदार फालके के दादा उस दरबार में जयाजी राव के साथ गए थे और उन्होंने सिंधिया को अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाते देखा था. हालांकि इसकी एक वजह यह भी थी, कि तब तक जयाजी राव को शासक घोषित नहीं किया गया था इसलिए भी वे लॉर्ड कैनिंग के प्रति वफ़ादारी की क़समें खा रहे थे. इसके अतिरिक्त कैप्टन मैक्फ़र्सन क्रांति के समय ग्वालियर में रेज़ीडेंट था, उसने अपनी डायरी में जयाजी राव द्वारा झांसी की रानी के विरुद्ध मोर्चा बनाने की बात लिखी है. जयाजी राव ने अपने ख़ज़ांची अमरचंद बांठिया को इसलिए फांसी दी थी क्योंकि उसने गंगाजली कोष से कुछ धन क्रांतिकारियों को दिया था. ये सब बातें जयाजी राव को अंग्रेजों का मित्र कहे जाने की पुष्टि करती हैं.
सब चुप्पी साध गए
लेकिन ग्वालियर उस समय का बहुत दबदबा था, इसलिए उनके इस कृत्य के विरुद्ध किसी ने कुछ नहीं लिखा. कार्ल मार्क्स ने अपने लेखों में ज़रूर झांसी की रानी के विरुद्ध सिंधिया की मोर्चाबंदी के लिए सिंधिया की कड़ी निंदा की है. लेकिन कार्ल मार्क्स चूंकि भारत आया नहीं था, इसलिए उसकी बात पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता. विनायक दामोदर सावरकर ने "1857: भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम" में भी यह बात स्वीकारी है. किंतु पहली बार सिंधिया के इस कृत्य के विरुद्ध स्पष्ट तौर पर सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा कि सिंधिया अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए झांसी की रानी को मरवाने में उनकी भूमिका थी. इस एक लाइन ने सिंधिया को इतिहास में ग़द्दार बना दिया. किंतु लोक मानस (जिसे सुभद्रा कुमारी चौहान ने बुंदेले हरबोलों कहा है) में सिंधिया की ग़द्दार वाली छवि 1858 से ही थी, जब रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं. इसलिए सिर्फ़ सुभद्रा कुमारी चौहान को दोष देना उचित नहीं.
वर्ना बिस्तर बंध जाता
बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने "झांसी की रानी" नाम से एक ऐतिहसिक उपन्यास लिखा है. इसमें उन्होंने बाबू वृंदावन लाल वर्मा की तरह भक्ति कम बल्कि ऐतिहसिक स्रोतों का पूरा सहारा लिया है. वे लिखती हैं कि जून 1858 में अंग्रेज और विद्रोही दोनों लोग यह मान कर चल रहे थे, कि झांसी की रानी और तात्या टोपे ने यदि ह्युरोज़ को ग्वालियर में पराजित कर दिया तो युद्ध की दशा-दिशा बदल जाएगी. इसके बाद हो सकता है कि अंग्रेजों को अपना बोरिया-बिस्तर बांधना पड़े. लॉर्ड कैनिंग ने लिखा है- If Scindia Joins the rebels, I will pack for England" यह ऐसा मौक़ा था, जब सिंधिया वह इतिहास रच सकते थे, जो युगों-युगों तक के लिए उन्हें इतिहास का नायक बना देता. उस समय धन और ख्याति के मामले में ग्वालियर हैदराबाद के निज़ाम के बाद का सबसे बड़ा रजवाड़ा था.
बालिग़ न हो पाया राजा
ग्वालियर में सिंधियाओं की उस समय की स्थिति के बारे में महाश्वेता देवी ने लिखा है, कि जयाजी राव को 1857 तक गद्दी नहीं मिली थी. उनके पिता सयाजी राव सिंधिया की मृत्यु 1843 में जब हुई तब जयाजी राव 8 वर्ष के थे. लेकिन 1852 में जब जयाजी राव बालिग़ होने के क़रीब थे, अंग्रेजों ने दीवान दिनकर रघुनाथ राव राजवाड़े को ग्वालियर की सत्ता का कार्यभार सौंप दिया. 1854 में कैप्टन मैक्फ़र्सन ग्वालियर में रेज़ीडेंट बन कर आए, तब जयाजी राव वयस्क हो चुके थे. दिनकर राव तीक्ष्ण बुद्धि के और कुशल प्रशासक थे, किंतु राज्य का लोभ तो आ ही गया. उन्होंने जयाजी राव को शासन के अनुरूप नहीं बनने दिया. 1856 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा था, कि सैनिकों को वेतन न मिलने के कारण ग्वालियर रियासत के सैनिकों ने विरोध प्रदर्शन किया. यह बात पोलेटिकल एजेंट को पता न चले इसलिए जयाजी राव प्रदर्शन स्थल पर गए और 16 सैनिकों को गोली मार दी. टाइम्स ने तब लिखा- 'Unprovoked And Unnecessary Cruelty' और सिंधिया का बारे में कहा, "That Important And Worthless King"
इसीलिए मैक्फ़र्सन जयाजी राव और दिनकर राव को लेकर लॉर्ड कैनिंग के कलकत्ता दरबार में गया. वहां पर जयाजी राव को ट्रेनिंग दी गई. ज़ाहिर है, ऐसे में वे वही करते जो अंग्रेज चाहते. उन्होंने वही किया भी. मगर इस तथ्य से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं कि उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के साथ ग़द्दारी की थी. उनकी जो सेना लक्ष्मीबाई के साथ चली गई थी, वह अपने महाराजा को प्रत्यक्ष देख कर उनके साथ चली गई. पहले तो तात्या टोपे, राव साहब और रानी लक्ष्मीबाई को देख कर जयाजी राव और दिनकर राव अंग्रेजों की शरण में चले गए. किंतु ह्युरोज़ के आ जाने पर वे लौटे और मुरार के युद्ध में ग्वालियर के सैनिक महाराजा के साथ चले गए. रानी की सेना अंग्रेजों के विरुद्ध खेत रही. रानी ने अद्भुत वीरता दिखाई किंतु अकेले वे कब तक लड़तीं और युद्धभूमि में शहीद हुईं. इस तरह एक अल्पबुद्धि राजा की मूर्खता से भारत और 90 वर्ष ग़ुलाम रहा. ग्वालियर के सिंधियाओं के वारिस ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 26 दिसंबर को रानी लक्ष्मीबाई की समाधि पर जाकर इस कलंक को निश्चय ही धो डाला है.
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