सम्पादकीय

जो बुनियादी सवाल है

Gulabi Jagat
10 May 2022 4:10 AM GMT
जो बुनियादी सवाल है
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इस रूप में यह स्थिति देश को कानून और संवैधानिक प्रावधानों की मनमानी व्याख्या की तरफ ले जा रही
By NI Editorial
इस रूप में यह स्थिति देश को कानून और संवैधानिक प्रावधानों की मनमानी व्याख्या की तरफ ले जा रही है। कानून की सर्वोच्चता और संवैधानिक मर्यादाएं किसी सभ्य समाज में स्थापित ही इसलिए की जाती हैं कि वहां स्थिरता, शांति और विकास का माहौल बना रहे।
उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का आदेश दिया, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वैसा ही आदेश कोई अन्य कोर्ट ताजमहल के बारे में नहीं दे सकता। गौरतलब है कि ताजमहल में कथित तौर पर हिंदू देवी-देवताओं की स्थली होने की जांच कराने के लिए एक याचिका अदालत में दी गई है। ऐसे दावों और प्रति-दावों का सवाल अपने-आप में विवादास्पद है। लेकिन अगर ऐसे दावों का कोई ठोस आधार हो भी, तो सवाल उठेगा कि आखिर जताने का तरीका क्या होगा? क्या यह तरीका संविधान और वैधानिक दायरे से इतर हो सकता है? यूपी की अदालत अगर वैधानिक स्थिति पर विचार करती, तो वह ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे की इजाजत कतई नहीं देती। आखिर 1993 में देश की संसद ने उपासना स्थल कानून पारित किया था। उसमें प्रावधान किया गया कि देश के तमाम पूजा-स्थलों की 15 अगस्त 1947 को जो स्थिति थी, वही उनकी कानूनी स्थिति है। उस हाल में संविधान की शपथ लेकर चुनी गई तमाम सरकारों का दायित्व उन पूजास्थलों की उन स्थितियो को बरकरार रखना है। न्यायपालिका का दायित्व यह सुनिश्चित करना है कि सरकारें ऐसा ही करें।
इसलिए अदालत को याचिकाकर्ता से कहना चाहिए था कि वह या तो उच्चतर न्यायपालिका में उपासना स्थल अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती दे या देश की सरकार से कहे कि वह इस कानून को रद्द करने का विधेयक संसद से पारित कराए। उसके बाद ही किसी पूजा स्थल से संबंधित विवाद पर कोर्ट सुनवाई कर सकेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका सीधा अर्थ यह निकाला जाएगा कि देश में किसी कानून का कोई मूल्य नहीं है। महत्त्व सिर्फ आज की वर्चस्वशील- सत्ताधारी विचारधारा का है। इसके अनुरूप जो भी किया जाए, वह कानुनी है और अदालतें भी उसका मार्ग प्रशस्त करेंगी। इस रूप में यह स्थिति देश को कानून और संवैधानिक प्रावधानों की मनमानी व्याख्या की तरफ ले जा रही है। यह दिशा अराजक हालात की तरफ जा सकती है। कानून की सर्वोच्चता और संवैधानिक मर्यादाएं किसी सभ्य समाज में स्थापित ही इसलिए की जाती हैं कि वहां स्थिरता, शांति और विकास का माहौल बना रहे। क्या हम इसके उलट दिशा में नहीं जा रहे हैं?
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