सम्पादकीय

फिल्मी सितारे जिन दर्शकों के दम पर जमे हैं, उन्हें कमतर ही नहीं आंका, उनके साथ बेईमानी भी की

Gulabi Jagat
28 April 2022 8:42 AM GMT
The audience on which the film stars are based, they were not only underestimated, they were also dishonest with them.
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नवाजुद्दीन सिद्दीकी से पूछा गया- बॉलीवुड की रिवायतें बदलनी हों तो क्या बदलेंगे? जवाब मिला

मुकेश माथुर का कॉलम:

नवाजुद्दीन सिद्दीकी से पूछा गया- बॉलीवुड की रिवायतें बदलनी हों तो क्या बदलेंगे? जवाब मिला- 'रोमन में मिलने वाली स्क्रिप्ट देवनागरी में मिल जाए।' धूमिल होते स्टारडम, ओटीटी पर नए सितारों का उदय और दक्षिण की धमक के बीच बर्बाद होते बॉलीवुड के लिए नवाजुद्दीन का वाक्य आत्मावलोकन का अच्छा अवसर हो सकता है। अंग्रेजी में साेचने वाली एक इंडस्ट्री जो परदे पर हिंदीभाषी की संवेदनाएं प्रस्तुत करती आई है।
एक किस्म की बेईमानी। हां, भाषा बाधा नहीं हो सकती, लेकिन 80 के दशक के बाद बॉलीवुड दर्शक से दूर होता चला गया है। फिल्मकारों की खुशकिस्मती ये कि दर्शक के पास सिवाय उसके थोपे हुए कंटेंट के, देखने को कुछ और न था। उन्हें यह बात खूब मालूम थी। तभी तो बेशर्मी से एक फ्लॉप फिल्म के बाद अगली भी उसी फॉर्मूले पर बना देते। हम देख भी लेते।
बड़े कैनवास और पीरियड फिल्मों के लिए जाने जाने वाले एक निर्देशक की बड़ी फिल्म नहीं चली तो बाेले- 'दर्शकों को समझ नहीं आई।' अहंकार। सर, आप आत्ममुग्धता में हमसे कोसों दूर हो गए। समझा आप नहीं पाए और दोष हमारी समझ को दे रहे हैं। आज जब दक्षिण का सिनेमा राज कर रहा है तो हर कोई कह रहा है कि वहां के सिनेमा में देश की आत्मा बसती है। पुष्पा।
मां-मंदिर, गांव-गलियां और किरदार देख कर लगता है कि हमारे आसपास की ही कहानी है। एक कनेक्ट जो बॉलीवुड में मिसिंग दिखता है। ओटीटी पर मौजूद वेब सीरीज़ 'पाताल लोक' के इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी को याद कीजिए। व्यवस्था से हताश, परिवार में उपेक्षित हरियाणवी पुलिस इंस्पेक्टर। जयदीप अहलावत ने किरदार को जीवंत कर दिया। बॉलीवुड के दबंग तो ओवर एक्टिंग से आगे नहीं बढ़ पाए।
सुपरस्टार बांहें फैला कर स्टारडम के गुमान में कचरा परोसते गए। आखिरकार इस मनमर्जी के विकल्प मिले। बॉलीवुड जमात नशे में डूबी रहती है इसके प्रमाण भी मिले। कोविड की मार पड़ी। सोशल मीडिया पर दर्शक मुखर हुए। धर्म, देश और आस्थाओं के साथ खेल भी सामने आया। रणवीर सिंह की '83' में भारत का मैच देखने के लिए पाकिस्तान का गोलीबारी रोक देना। जानबूझकर गढ़ा झूठ।
नतीजा, फिल्म कम चली, बायकॉट का हैश टैग ज्यादा। यह सब बेइमानियां नहीं हैं तो और क्या हैं? जिस दर्शक की बदौलत जमे हो उसके साथ जीरो इंटिग्रिटी। न्यू इंडिया के 'वाना बी' भारत कुमार। पान मसाले के विज्ञापन पर माफीनामा। इससे पहले मिलेनियम स्टार भोलेपन से कह ही चुके- ओह, पता नहीं था कि यह सरोगेट एडवरटाइजिंग है। अब नहीं करूंगा। उनका विज्ञापन अब भी टेलीविज़न पर मौजूद है।
बॉलीवुड का ही गाना है- ये जो पब्लिक है, ये सब जानती है। यह भी कि उक्त दोनों स्टार चलती-फिरती कंपनियां हैं। पेशेवरों की लंबी-चौड़ी टीम साथ काम करती है। 'एड' और 'अफसोस' दोनों वेल प्लान्ड हैं। सितारे भी इंसान हैं। गलतियां करने का इन्हें पूरा हक है, लेकिन जनता को बेवकूफ समझने का हर्गिज़ नहीं। दक्षिण के सितारों की पूजा उनके ऑफ स्क्रीन जीवन के कारण भी होती है।
दिवंगत पुनीत राजकुमार चार दर्जन स्कूल, अनाथालय, वृद्धाश्रम और गौशालाएं चलाते थे। अपवाद बॉलीवुड में भी होंगे, लेकिन भलमनसाहत से बड़ी लाइन स्वेच्छाचारिता की खिंच चुकी है। बहरहाल, जिन करण जौहर ने बॉलीवुड को ओवरसीज मार्केट का रास्ता दिखाया था वे अब एस. एस. राजामौली की फिल्मों में पैसा लगा रहे हैं।
दूसरी तरफ कश्मीर फाइल्स की सफलता बता रही है कि हॉलीवुड की तरह हिंदी के दर्शकों को भी ज्वलंत विषय, नई कहानियां चाहिए। बाॅलीवुड सपनों की दुनिया से बाहर तो आए। भारत और भारतीयता की जड़ें छूने की कोशिश तो करे। करेगा क्या?
सितारे भी इंसान हैं। गलतियां करने का इन्हें पूरा हक है, लेकिन जनता को बेवकूफ समझने का तो हर्गिज़ नहीं। बाॅलीवुड सपनों की दुनिया से बाहर तो आए। भारत और भारतीयता की जड़ें छूने की कोशिश तो करे। करेगा क्या?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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