- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- सुधारों को स्वीकार्य...
सम्पादकीय
सुधारों को स्वीकार्य बनाने की कला, ताकि न आए विरोध की नौबत
Gulabi Jagat
22 Jun 2022 7:39 AM GMT

x
सुधारों को स्वीकार्य बनाने की कला
राजीव सचान : सेना में भर्ती के लिए घोषित की गई अग्निपथ योजना के विरोध में 20 जून को जो भारत बंद बुलाया गया, वह चूंकि निष्प्रभावी रहा, इसलिए उसे कोई याद नहीं रखने वाला, लेकिन 31 साल पहले इस तिथि का एक अन्य संदर्भ में विशेष महत्व है। इसी दिन नरसिंह राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया था। तब देश विषम स्थितियों से दो-चार था। जैसे आज यूक्रेन युद्ध के कारण कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे, वैसे ही उन दिनों खाड़ी युद्ध के कारण ऐसा हो रहा था।
पीएम पद की शपथ लेने के एक दिन पहले यानी 20 जून को नरसिंह राव को जब कैबिनेट सचिव ने इससे अवगत कराया कि देश के पास महज दो सप्ताह के आयात के लिए ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा है तो उन्होंने पूछा कि क्या आर्थिक हालत इतनी खराब है? इस पर उन्हें बताया गया कि वास्तव में हालत तो इससे भी अधिक खराब है। इस जानकारी ने उन्हें अपनी प्राथमिकताएं बदलने को बाध्य किया और इसी के चलते उन्होंने पेशेवर अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया। इसके बाद के इस इतिहास से हम सब अवगत हैं कि नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने किस तरह देश का कायाकल्प करने वाले आर्थिक सुधार किए, लेकिन यह आसान काम नहीं था। इसलिए और भी नहीं था, क्योंकि राव अल्पमत सरकार चला रहे थे।
नरसिंह राव को इसका आभास था कि विपक्षी नेताओं के साथ नेहरूवादी सोच वाले कांग्रेस नेता भी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का विरोध करेंगे, लेकिन वह एक चतुर राजनेता थे। उन्होंने नई औद्योगिक नीति का जो मसौदा तैयार कराया, उसमें नेहरूजी के ऐसे वक्तव्यों को खूब उल्लेख कराया, जिसमें उद्योग-व्यापार की महत्ता पर बल दिया गया था। बजट से पहले नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। हालांकि राव ने उद्योग मंत्रालय अपने पास रखा हुआ था, लेकिन एक रणनीति के तहत संसद में इस क्रांतिकारी नीति की घोषणा उद्योग राज्य मंत्री पीजे कुरियन ने की।
इस नीति ने लाइसेंस-कोटा-परमिट राज को खत्म किया। स्वाभाविक रूप से इस नीति की आलोचना विपक्षी नेताओं ने तो की ही, कई कांग्रेसी नेताओं ने भी की, लेकिन राव अपने करीबी नेताओं की ओर से ऐसे बयान दिलवाते रहे कि इंदिरा और राजीव गांधी भी ऐसे ही परिवर्तन के आकांक्षी थे। हालांकि वह नेहरू, इंदिरा और राजीव की नीतियों को पलट रहे थे, लेकिन प्रकट यह कर रहे थे कि वह उन्हीं की राह पर चल रहे हैं। वह यह सब इसलिए कर रहे थे ताकि पार्टी के अंदर विरोध के स्वर थमें।
उन्होंने ऐसी ही चतुराई इजरायल से कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में भी दिखाई। वह इजरायल से कूटनीतिक रिश्ते कायम करने के पक्ष में थे, लेकिन इस्लामी देशों को नाराज भी नहीं करना चाहते थे। उन्होंने फलस्तीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन के नेता यासिर अराफात को भारत निमंत्रित किया और उनसे कहा कि यदि आप यह चाहते हैं कि हम आपकी मदद कर सकें तो इसके लिए हमें इजरायल से बात करनी होगी। अराफात को यह तर्क समझ आया। उन्होंने सहमति दे दी और इस तरह 1992 में इजरायल से कूटनीतिक संबंध कायम हुए। इसके बाद के इतिहास से हम सब अवगत ही हैं।
उपरोक्त दोनों प्रसंग क्या कहते हैं? यही कि जितना आवश्यक सुधार और बदलाव के बड़े कदम उठाना होता है, उतना ही उन्हें लेकर अनुकूल वातावरण बनाना भी। इस कला में अटल बिहारी वाजपेयी भी पारंगत थे। 2003 में जब अमेरिका इराक में हमले की तैयारी कर रहा था, तब भारत पर इसके लिए दबाव डाल रहा था कि वह अपनी सेनाएं इराक भेजे। वाजपेयी इसके पक्ष में नहीं थे, लेकिन वह अमेरिका को सीधे इन्कार भी नहीं कर सकते थे। उन दिनों इसे लेकर खूब चर्चा हो रही थी कि क्या भारत को इराक में अमेरिका का साथ देना चाहिए? ऐसे माहौल में वाजपेयी ने माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और भाकपा नेता एबी वर्धन को बुलाया। बातचीत के क्रम में जब इन नेताओं ने यह कहा कि हमें इराक में अपनी सेनाएं नहीं भेजनी चाहिए तो वाजपेयी ने कहा कि आप ऐसा कह तो रहे हैं, लेकिन कोई शोर नहीं सुनाई दे रहा है। समझदार को इशारा काफी था। इसके कुछ दिन बाद वामपंथी दलों ने देश भर में इराक युद्ध में भारत की किसी भी तरह की भागीदारी के विरोध में प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों के आधार पर वाजपेयी को अमेरिका से यह कहने में आसानी हुई कि हमारा जनमत इसकी अनुमति नहीं देता कि भारत की सेनाएं इराक जाएं।
इसमें संदेह नहीं कि मोदी सरकार ने बीते आठ साल में कई क्रांतिकारी और साहसी फैसले लिए हैं, लेकिन उसे अपने दो बड़े फैसले वापस भी लेने पड़े हैं। पहले कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण कानून को और दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों को। ये कानून इसीलिए वापस लेने पड़े, क्योंकि सरकार उनके पक्ष में अनुकूल वातावरण तैयार नहीं कर सकी और इन कानूनों से प्रभावित होने वालों तक अपनी बात सही तरह नहीं पहुंचा सकी। इससे विरोधियों को लोगों को बरगलाने का मौका मिला। यह अच्छा है कि सरकार अग्निपथ योजना को लेकर अडिग है, लेकिन और भी अच्छा होता कि इस योजना की घोषणा के पहले व्यापक चर्चा होती। इस योजना की घोषणा के बाद जिस तरह अगले कई दिनों तक भावी सैनिकों यानी अग्निवीरों को आयु सीमा में छूट देने, केंद्रीय बलों एवं सार्वजनिक उपक्रमों में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने, पुलिस भर्ती में प्राथमिकता देने, कौशल प्रमाण पत्र देने संबंधी जो तमाम घोषणाएं की गईं, वे यदि पहले दिन ही कर दी जातीं तो शायद इतना विरोध, हंगामा और बवाल नहीं होता।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
Next Story