सम्पादकीय

संयुक्त किसान मोर्चे का कृषि कानून विरोधी आंदोलन बना रहा अराजकता और हिंसा के नए कीर्तिमान

Gulabi
14 Oct 2021 5:43 AM GMT
संयुक्त किसान मोर्चे का कृषि कानून विरोधी आंदोलन बना रहा अराजकता और हिंसा के नए कीर्तिमान
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संयुक्त किसान मोर्चे का कृषि कानून विरोधी आंदोलन

प्रदीप सिंह। भारतीय राजनीति में अब सभी वर्जनाएं टूट गई हैं। संविधान की व्याख्या अब कानून के मुताबिक नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों की जरूरत के मुताबिक होती है। संयुक्त किसान मोर्चा ने हाल में भारत बंद का आह्वान किया। इस बंद को सफल बनाने के लिए महाराष्ट्र ने सरकार और गुंडागर्दी दोनों का इस्तेमाल किया। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राज्य सरकार ने एक संगठन द्वारा बुलाए बंद की अपील को कामयाब बनाने के लिए बाकायदा कैबिनेट से प्रस्ताव पास कराया। संविधान निर्माताओं ने कभी इसकी कल्पना नहीं की होगी, मगर इस पर किसी विपक्षी दल को संविधान और जनतंत्र खतरे में नजर नहीं आया।


इस आंदोलन को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के दो दावे या वादे बेमानी साबित हुए हैं। पहला यही कि यह गैर राजनीतिक है और दूसरा यह कि आंदोलन अहिंसक होगा। सोते-जागते गांधी की दुहाई देने वालों को अब गांधी नहीं याद आते। चौरीचौरा में हिंसा के बाद गांधी ने अपना आंदोलन रोक दिया था। इसके विपरीत संयुक्त किसान मोर्चा का आचरण देखिए। गणतंत्र दिवस पर लाल किले और दिल्ली के दूसरे इलाकों में अराजकता का जो नंगा नाच हुआ वही इस कथित अहिंसक आंदोलन को रोकने के लिए पर्याप्त था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह और खतरनाक है।

पंजाब में भाजपा विधायक के कपड़े फाड़ दिए, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधायक की गाड़ी पर हमला, हरियाणा में विधायक को बंदी बना लिया। हरियाणा और पंजाब में जनप्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र में नहीं जाने दिया जा रहा। फिर लखीमपुर खीरी में चार लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों और गरीबों की चिंता से दुखी होने वालों में घटना के इस पक्ष पर गजब का सन्नाटा है।
इन सब बातों से भी ज्यादा चिंता की बात है भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का यह बयान कि लखीमपुर खीरी में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या गलत नहीं है। उनके इस बयान पर किसी विपक्षी दल की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। किसी अदालत ने स्वत: संज्ञान नहीं लिया। हिंसा के लिए खुल्लम-खुल्ला उकसाने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। तो क्या मान लिया जाए कि देश में खून के बदले खून का कानून लागू हो गया है।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी राजनीतिक नेताओं (कांग्रेस) से मिले और फिर किसानों से पार्टी बनाकर चुनाव में उतरने की अपील की। उन्हें कुछ दिन के लिए मोर्चे से निलंबित करने का नाटक किया गया। संगठन ने अब यह नाटक-आडंबर भी त्याग दिया है। टिकैत से किसी ने सवाल भी नहीं पूछा। किसान आंदोलन के नाम पर एक ऐसा युद्ध लड़ा जा रहा है जिसमें केंद्र की भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री से सारी नैतिकता, संविधान के प्रविधानों के अनुसार काम करने, हिंसा के खिलाफ संयम बरतने जैसी तमाम अपेक्षाएं हैं। दूसरे पक्ष के लिए इन सब बातों के विरुद्ध आचरण की छूट है।

किसान नेता किसी संवैधानिक पद पर नहीं हैं। उनका संविधान में भी कोई यकीन नहीं दिखता। वे नहीं बताएंगे कि सरकार ने जो तीन कृषि कानून बनाए हैं उनमें क्या खराबी है? उनकी बस एक ही जिद है कि कानून रद करो। क्यों रद करो? क्योंकि उसके बिना जिन राजनीतिक दलों का खेल वे खेल रहे हैं उन्हें फायदा नहीं होगा। संयुक्त किसान मोर्चा और सरकार का विरोध कर रहे विपक्षी दलों ने सारी ताकत लगा दी, लेकिन इस कथित आंदोलन को ढाई राज्यों से बाहर नहीं पहुंचा सके।

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार ने जो किया उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की साझा सरकार है। इन तीन पार्टियों को इस बात का विश्वास नहीं था कि वे मिलकर भी संयुक्त किसान मोर्चा की भारत बंद की अपील को सफल बना पाएंगी। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था। सरकारी बंद। जिस सरकार पर प्रदेश की व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी है, वही कैबिनेट से उसे बंद करवाने का प्रस्ताव पास करवा रही है। यह इस बात का भी संकेत है कि उद्धव ठाकरे को भरोसा नहीं था कि उनकी अपील पर बाकी दोनों दल साथ देंगे। इतना सब करके भी शिवसेना के गुंडों को सड़क पर उतारना पड़ा।

लखीमपुर खीरी में चार लोगों पर गाड़ी चढ़ाकर मार दिया गया। क्या यह सुनियोजित था या बदहवासी में ऐसा हुआ? इसकी जांच हो रही है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष पर आरोप लगा तो पुलिस ने हत्या और अन्य धाराओं में नामजद मुकदमा दर्ज किया। चार दिन बाद गिरफ्तारी भी हो गई। पंद्रह घंटे में योगी सरकार ने किसानों की सभी मांगें भी मान लीं। राकेश टिकैत ने उत्तर प्रदेश के एडीजी कानून व्यवस्था के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में इसकी घोषणा कर दी। लगा कि मामला ठंडा हो गया और कानून अपना काम करने लगा। इससे दूसरे खेमे में बेचैनी नजर आने लगी। इतना बड़ा मौका कैसे छोड़ सकते हैं। पहले टिकैत को लानत भेजी गई। टिकैत को तो जिधर फायदा दिखता है, उधर झुक जाते हैं। सो पलट गए। अब भारत बंद, अरदास, अस्थि कलश यात्र, रेल रोको और लखनऊ में महापंचायत जैसे कार्यक्रमों की घोषणा की गई.
प्रियंका वाड्रा भी मंगलवार को किसान मोर्चा के कार्यक्रम में लखीमपुर खीरी पहुंच गईं। मंच पर नहीं, लेकिन अगली कतार में उन्हें जगह दी गई। यह कुछ वैसा दृश्य था जैसा पुराने जमाने में जमींदार के किसी गांव वाले के विवाह समारोह में पहुंचने पर दिखता था। यानी अगली कतार में बैठकर आशीर्वाद देने का।

संयुक्त किसान मोर्चा का यह आंदोलन अराजकता और हिंसा के नए कीर्तिमान बना रहा है। महाराष्ट्र हमेशा से किसान आंदोलनों के लिए विख्यात रहा है। उस महाराष्ट्र में मोर्चा नेताओं के आंदोलन को पिछले एक साल में कभी समर्थन नहीं मिला। बंद करवाने के लिए सरकार की मदद लेनी पड़ी। इस आंदोलन की किसानों के बीच अविश्वसनीयता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? ऐसा हश्र किसी भी आंदोलन का हो सकता है, पर इस आंदोलन का हुआ, जो कहीं ज्यादा गंभीर बात है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस आंदोलन को देश के सभी मोदी विरोधी राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। आम किसान के समर्थन से वंचित यह आंदोलन मोदी विरोधी दलों के जनाधारहीन होने की कहानी भी कहता है। तो दो शून्य मिलकर क्या बनते हैं? यह बताने के लिए आपको गणितज्ञ होने की जरूरत नहीं है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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