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
आदित्य नारायण चोपड़ा; विश्व के इतिहास में चार ऐसी बड़ी घटनाएं हुई हैं जिन्हें क्रांति कहा जा सकता है। इनमें सबसे पहली 1789 में फ्रांस की क्रान्ति थी जिससे नागरिकों के मूल मानवीय अधिकारों की उत्पत्ति हुई। इसके बाद 1917 में रूस की क्रान्ति हुई जिसने सोवियत संघ का निर्माण किया और मनुष्यों में गैर बराबरी को खत्म करने का दावा किया। इसे कम्युनिस्ट क्रान्ति कहा गया। इसमें अमीर-गरीब के बीच का भेद समाप्त करने का दावा किया गया और जार शाही (सुल्तानी शासन या राजतन्त्र) को समाप्त करके आम जनता की तानाशाही को स्थापित किया गया। इन दोनों क्रान्तियों में हिंसा का जमकर उपयोग हुआ। तीसरी क्रान्ति भारत में 1947 में हुई जिसमें पूर्ण अहिंसक तरीके से जन आन्दोलनों व सत्याग्रह का उपयोग करके महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी सरकार को हरा कर भारतीयों के लिए ही भारत पर सत्ता करने का अधिकार लिया। मगर 1978 के करीब ईरान में एक ऐसी इस्लामी क्रान्ति हुई जिसने आधुनिक समय की रफ्तार को पीछे मोड़ते हुए अपने देशवासियों को सीधे 20वीं सदी निकालकर सातवीं सदी में पटकने का काम किया और सबसे ज्यादा प्रतिबन्ध औरतों की आधी आबादी पर लगाये तथा मुल्क के निजाम को इस्लाम मजहब की रूह से चलाने का काम किया। यह क्रान्ति एक धार्मिक गुरू आयतुल्लाह खुमैनी द्वारा की गई थी जो शिया मुस्लिमों का सर्वोच्च इमाम था। मगर इन सब क्रान्तियों में से पूरी दुनिया पर सबसे ज्यादा प्रभाव पहली फ्रांस की क्रान्ति का पड़ा जिसके बाद पूरी दुनिया में लोकतन्त्र की ललक जगती चली गई और मानवीय अधिकारों की चाहत बलवती होती गई। सर्वाधिक कमजोर रूस की क्रान्ति साबित हुई क्योंकि कम्युनिस्ट व्यवस्था अधिनायकवाद या तानाशाही का ही पर्याय बन कर विशेष वर्गों का शोषण करने लगी। वर्तमान 21वीं सदी से लेकर पिछली 20 सदी में सर्वाधिक प्रभाव भारत की अहिंसक गांधी क्रान्ति का हुआ और गांधीवाद सामाज्यावाद या राजतन्त्र से मुक्ति पाने का पाठ्य पुस्तक सिद्धान्त बन गया। 1978 में ईरान के शहंशाह रजा पहलवी के शासन से मुक्ति पाने के लिए आयतुल्लाह खुमैनी की इस्लामी क्रान्ति ने भी दुनिया खास तौर पर इस्लामी देशों में असर डाला और इनमें धार्मिक कट्टरता बढ़ने लगी। अफगानिस्तान जैसे मुल्क में तालिबान का उदय इसके बाद ही हुआ। मगर 1978 से पहले शहंशाह रजा पहलवी के शासन के दौरान ईरान एक खुले समाज का दौर था जिसमें महिलाओं को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी और इस देश का निजाम राजशाही के तहत चलने के बावजूद आधुनिक कानूनों से चलता था। परन्तु इस देश पर पश्चिमी देशों व अमेरिका की निगाह बहुत पहले 1920 से ही थी जब इसमें पेट्रोलियम तेल मिला था। 1950 दशक के शुरू के वर्षों तक यह देश एक लोकतान्त्रिक देश था और इसमें चुनाव हुआ करते थे और सरकारें लोकतान्त्रिक तरीके से गठित होती थीं परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसकी किस्मत बदलने लगी और ब्रिटेन व अमेरिका की तेल कम्पनियों ने इसे अपने जेरे साया रखने की गरज से इसकी राजनीति को बदलना शुरू किया। इसकी वजह यह थी कि ब्रिटिश तेल कम्पनियां ईरान का सारा तेल जखीरा हड़प जाती थी और यहां की सरकार को रायल्टी के नाम पर बहुत कम धनराशि देती थीं। 1950 के करीब जब इस देश के चुने हुए प्रधानमन्त्री डा. मुसद्दिक ने जब तेल कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया तब ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था एम आई-16 व अमेरिका की सीआईए ने षड्यन्त्र करके डा. मुसद्दिक की सरकार को गिराने के लिए सेना में अफसर रहे रजा खान का इस्तेमाल किया और तेहरान में तख्ता पलट करा दिया और पहलवी वंश की सत्ता स्थापित करा दी। शहंशाह रजा पहलवी उन्हीं के पुत्र थे। मगर 1978 में पश्चिमी देशों ने अपना ही हित साधने के लिए रजा पहलवी की सत्ता को पलटने के लिए इस बार एक इस्लामी मौलवी का उपयोग किया और उसे फ्रांस से ईरान भेज कर 'उल्टी क्रान्ति' करा दी। इसे प्रति क्रान्ति भी कहा गया क्योंकि इसके प्रतिफल बजाये आगे जाने के पीछे की तरफ जाने के निकले। इसके बाद से ही ईरान ऐसे इस्लामी कानूनों से बन्ध गया जिसे 'शरीया' कहा जाता है। औरतों के लिए ऐसे कानूनों में हिजाब या पर्दा लाजिमी कर दिया गया और नैतिक पुलिस की व्यवस्था कर दी गई जिसे न मानने वाली औरतों को सजा देने के अख्तियार दिये गये। इस प्रणाली के खिलाफ 1978 के बाद से कई बार विद्रोह हुआ मगर उन्हें सत्ता की ताकत के बूते पर दबाया जाता रहा मगर इस बार एक 22 वर्षीय युवती अमीनी की सजा की वजह से मौत हो जाने पर पूरे ईरान में विद्रोह की आग भड़क गई और इसके लगभग हर शहर में महिलाएं हिजाब व पर्दे का विरोध कर रही हैं।संपादकीय :आज कहां जा रही है नैतिकता?कनाडा में खालिस्तानियों को हवापीएफआई पर सर्जिकल स्ट्राइकसंघ का हिन्दू-मुस्लिम विमर्शयुद्ध खतरनाक मोड़ परगरीबी हो आरक्षण का आधार? ईरान एक उच्च संस्कृति वाला देश रहा है। इस्लाम आने से पहले इसकी संस्कृति बौद्ध व अग्निपूजकों की संस्कृति भी रही है। अग्निनपूजकों को ही हम पारसी कहते हैं। ईरानी संस्कृति के प्रति आम ईरानी नागरिक का आज भी विशेष मोह है। यह बेवजह नहीं था कि ईरान के शाह पहलवी की उपाधि 'आर्य मिहिर' भी थी जिसका अर्थ 'आर्यों का सूरज' होता है। अतः इस देश के संस्कारों में ही उदारता व करुणा के भाव हैं और कहीं न कहीं नारी की स्वतन्त्रता के लिए आदर भाव भी हैं जिसकी वजह से हिजाब विरोधी आन्दोलन इस देश में बहुत तेजी के साथ फैल रहा है और नारी जागृति का पर्याय बन रहा है। दुनिया का कोई भी कानून स्त्री को केवल किसी उपभोग की वस्तु के रूप में देखने की हिमाकत नहीं कर सकता मगर ईरान का दुर्भाग्य है कि 44 साल पहले इसने उल्टी रफ्तार के साथ चलना न जाने क्यूं कर गंवारा कर लिया था। ईरान में मौलिक मानवीय अधिकारों की बहाली खास कर महिलाओं के अधिकारों की बहाली के लिए दुनिया के सभ्य देशों को आवाज उठानी चाहिए और हिजाब जैसे 'अजाब' को महिलाओं पर नाजिल करने से रोकना चाहिए। भारत के भी हिजाब के पैरोकार सबक लें बहन-बेटियों के लिए सम्मान से जीने का वातावरण बनायें।