सम्पादकीय

वह दुनिया अभी बनी ही नहीं

Subhi
9 March 2022 5:00 AM GMT
वह दुनिया अभी बनी ही नहीं
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प्राय: पुरुषों को कहते सुना है कि स्त्रियों के पेट में कोई बात नहीं पचती। किसी बात का प्रचार करना हो, तो स्त्रियों को बता दो, बिना पैसा खर्च किए प्रचार मिल जाएगा।

नीलम सिंह: प्राय: पुरुषों को कहते सुना है कि स्त्रियों के पेट में कोई बात नहीं पचती। किसी बात का प्रचार करना हो, तो स्त्रियों को बता दो, बिना पैसा खर्च किए प्रचार मिल जाएगा। अक्सर इन बातों पर हम स्त्रियां भी मजे लेकर हंसती हैं। मगर हाल में ट्रेन से सफर करते हुए देखा कि यह विशेषाधिकार केवल स्त्रियों का नहींं है। हमारे सामने दो सज्जन जबसे ट्रेन में बैठे तब से अपने स्टेशन पहुंचने तक उनकी बातचीत का केंद्र उनके कार्यस्थल की महिलाएं ही थीं। कई बार उनकी भाषा सभ्यता की मर्यादा भी लांघ रही थी। उनकी टीका-टिप्पणियों में ऐसा भाव था कि मानो सारे फसाद की जड़ स्त्रियां ही हैं।

औपचारिकतावश मैंने पूछ लिया- आप लोग क्या करते हैं? लगा था कि उनकी भाषा और दृष्टि के पीछे उनकी अशिक्षा का होगी। मगर यह भ्रम तब पूरी तरह टूट गया, जब पता चला कि वे दोनों प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय में अध्यापन करते हैं। तब लगा कि ये जिनके किस्से इतने प्रेम से सुना रहे हैं, वे सब या तो इनकी विद्यार्थी हैं या सहकर्मी। सच मानिए, उस समय मेरा सिर शर्म से झुक गया। शिक्षण से जुड़े लोगों की यह मानसिकता है स्त्रियों के बारे में? ये गुरु हैं और इनके इन्हीं गुणों के साथ हम विश्व गुरु बनने के सपने देख रहे हैं। मैंने शांत मन से दोनों गुरुओं की गुरुता को प्रणाम किया और उन महिलाओं के प्रति मन में श्रद्धा भाव आया, जो इन कुंठित महापुरुषों की कुंठा झेल रही होगीं।

अपने शहर लौटने के बाद मेरी नजर एक पोस्ट पर पड़ी, जिसमें नारीवादियों के लिए 'नालीवादी' शब्द का प्रयोग किया गया था। इस दोनों घटनाओं को साथ देखने के बाद मेरा यह भ्रम टूट गया कि जो शहरों में पले-बढ़े और शिक्षित हैं, उनकी मानसिकता स्त्री-विरोधी नहीं है। ऐसा लगा कि आज के जमाने में पढ़े-लिखे समाज में भी अगर स्त्री किसी विषय में अपनी बात रखेगी, तो उसे नारीवादी कहा जाएगा। अगर उस 'नारीवादी' की बातें तर्क से न काटी जा सकें तो उसे ध्वस्त करने के लिए गाली-गलौच का भी सहारा लिया जा सकता है। और यह बीमारी किसी क्षेत्र विशेष, जाति विशेष या धर्म विशेष की नहीं है। यह एक ऐसा कैंसर है, जो हर अंग को बराबर प्रभावित कर रहा है।

दूसरी ओर यह भी सच है कि पितृसत्तात्मक समाज की आलोचना करने वाली स्त्रियों में एक अलग किस्म का अतिवाद दिखता है। अतिवाद कहीं भी हो, घातक है, चाहे स्त्रियों की तरफ से हो या पुरुषों की तरफ से। हमेशा एक ऐसे समाज का सपना देखती हूं, जहां स्त्रियां केवल अपने पिता, भाई को ही भरोसे की नजर से न देखें, बल्कि अन्य पुरुषों के प्रति भी उनके मन में भय या दुर्भावना न हो। खासकर शिक्षित स्त्रियां कम से कम इस तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त रहें।

मगर जब समाज को राह दिखाने का ठेका उठाने वाले, बड़ी-बड़ी डिग्रियों का बोझ लादे, बात-बात में शास्त्रों का उपदेश सुनाने वाले महापुरुषों के मुख से स्त्रियों के संदर्भ में ऐसी बाते सुनती हूं तो लगता है कि क्या वास्तव में स्त्रियों को कभी भयमुक्त समाज मिल पाएगा। जब शिक्षक भरी कक्षा में अपने प्रेम प्रसंग सुना कर लड़कियों को ताड़ने की बातें करेगा, तो क्या वे इनसे खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएंगी।

जब कोई पुरुष किसी महिला को ताड़ता, उसका पीछा करता या उस पर कटाक्ष करता है तो उस महिला की मन:स्थिति क्या होती है, यह पुरुष नहींं समझ सकते। क्या ऐसी स्थिति में कोई लड़की अपने इस डर या दर्द को किसी शिक्षक से निडर होकर सहायता की आशा से कह पाएगी। एक शिक्षण-संस्थान, जहां एक परिवार अपनी बेटी को समाज में सिर उठा कर चलने योग्य बनाने की ख्वाहिश से भेजता है, क्या वह अपना सपना पूरा कर पाएगा।

मैं एक कस्बे के छोटे शहर से पढ़-लिख कर आई, जहां नारीवाद का स्वर नहींं था या यों कहें कि उसकी जानकारी नहीं थी। इसलिए लोगों की टिप्पणियों को छोटे शहरों की मानसिकता मानती थी। वहां का पिछड़ापन मुझे खलता था। लगता था कि बड़े शहरों के लोग बड़े विचारों वाले होंगे। यह छोटे शहरों की समस्या है। यहां के लोगों को स्त्रियों की आजादी पसंद नहींं है, क्योंकि यह तो अशिक्षित, अनपढ़ों की दुनिया है। और फिर सौभाग्य से बड़े-बड़े शहरों से साक्षात्कार हुआ, तब यह समझ आया कि दुनिया का हर कोना औरतों के लिए एक जैसा है।

चाहे वह छोटा कस्बा हो या शहर, लोग स्त्रियों को दोयम दर्जे का ही बनाए रखना चाहते हैं। बाजार में जो सबसे असानी से उपलब्ध है, वह है किसी भी स्त्री का चरित्र प्रमाणपत्र। बस केवल दो-चार लोगों की मुंहजबानी चाहिए और यह प्रमाणपत्र तैयार हो जाता है। दुनिया औरतों के लिए कभी पढ़ी-लिखी बनी ही नहीं। वह शिक्षा-प्रणाली शायद एक सपना है, जो पुरुषों की मानसिकता को बदल दे।


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