सम्पादकीय

शुक्रिया मी लॉर्ड

Subhi
20 March 2021 2:08 AM GMT
शुक्रिया मी लॉर्ड
x
सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं से जुडे़ मामलों की सुनवाई के दौरान जजों को अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतने की जो सलाह दी है, वह इंसाफ के तकाजे से ही नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं से जुडे़ मामलों की सुनवाई के दौरान जजों को अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतने की जो सलाह दी है, वह इंसाफ के तकाजे से ही नहीं, इंसानियत के लिहाज से भी एक सराहनीय पहल है। भारत की न्याय-व्यवस्था अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता और वैज्ञानिक सोच के लिए दुनिया भर में सराही जाती है और मूल्यों के क्षरण के इस दौर में इन्हीं वजहों से अपने नागरिकों की निगाह में भी उसकी गरिमा बरकरार है। पर विगत कुछ समय में अदालती कार्यवाही के दौरान कुछ ऐसी टिप्पणियां सामने आईं और मीडिया में सुर्खियां बनीं, जो न केवल लैंगिक समानता की सांविधानिक अपेक्षा के विपरीत थीं, बल्कि किसी भी सभ्य समाज को कुबूल नहीं हो सकतीं। सुकून की बात है कि देश की आला अदालत ने इसे गंभीरता से लिया है। उसने बार कौंसिल से भी कहा है कि कानून के पाठ्यक्रमों में यौन अपराधों और लैंगिक संवेदनशीलता के पाठ शामिल किए जाएं।

शीर्ष अदालत ने यह हस्तक्षेप मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फैसले के संदर्भ में किया है, जिसमें यौन उत्पीड़न के आरोपी को जमानत की शर्त के रूप में पीड़िता से राखी बंधवाने को कहा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही इसे पूरी न्याय प्रणाली के खिलाफ मानते हुए अमान्य करार दिया। भारत में महिलाएं किन-किन रूपों में यौन उत्पीड़न और असमानताएं झेल रही हैं, इससे जज की कुरसी पर बैठने वाले सम्मानित लोग ही नहीं, आम नागरिक भी बखूबी वाकिफ हैं, और इसके लिए 'राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो' के आंकड़ों में भी झांकने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन जब कुछ महिलाएं साहस बटोरकर इंसाफ मांगने पहुंचती हैं, तब अदालतों से उनकी यह स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि वहां उनकी गरिमा का पूरा ख्याल रखा जाएगा। मगर दुर्योग से कतिपय मामलों में उन्हें अपमानित होना पड़ा। अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला न्यायाधीश ने यौन उत्पीड़न के लिए 'स्कीन टु स्कीन' संपर्क संबंधी टिप्पणी की थी और अभियुक्त को बरी कर दिया था। तब उस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाई थी। कोई भी तरक्कीपसंद देश अपनी महिलाओं को बराबरी का सम्मान दिए बिना सभ्य होने का गुमान नहीं पाल सकता। आजाद भारत ने अपने संविधान की प्रस्तावना में मोटे हर्फों में 'व्यक्ति की गरिमा' का महत्व बताया है। उसने देश के हरेक पुरुष और महिला की प्रतिष्ठा की रक्षा की गारंटी दी है। निस्संदेह, बीते सात दशकों में सामाजिक स्तर पर कई लैंगिक बेड़ियां टूटी हैं और हमें यकीन है कि यह सिलसिला अब थमने वाला भी नहीं। इसीलिए जब कोई राजनेता महिलाओं के पहनावे, खाने-पीने या उनकी निजी स्वतंत्रता पर हमला बोलता है, तब खुद अपनी ही पार्टी में उसे भारी विरोध झेलना पड़ता है। लेकिन जब बात इंसाफ के आसन की हो, तो उसे न सिर्फ निर्विवाद, निष्पक्ष होना चाहिए, बल्कि अवाम में दिखना भी चाहिए। न्यायाधीश इसी समाज से आते हैं, पर वे कानून के अध्ययन व अनुभव से मानवीय कमजोरियों पर जीत हासिल करके न्याय के आसन तक पहुंचते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक भेदभाव से जुड़ी सामाजिक रूढ़ियों से दूरी बरतने को लेकर जो कुछ भी कहा है, वह भारत की न्यायपालिका को सुर्खरू करेगा।


Next Story