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- ठाकरे का इस्तीफा
आदित्य चोपड़ा: महाराष्ट्र में पिछले दो दिन से जो राजनीतिक नाटक चल रहा है उसका अब पटाक्षेप होना चाहिए क्योंकि शिवसेना के मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे का न तो अपनी पार्टी में बहुमत रहा है और न सरकार में। संसदीय लोकतान्त्रिक मर्यादा कहती है कि उन्हें अपने पद से तुरन्त इस्तीफा दे देना चाहिए। यह राजनीतिक 'राजदारी' का विषय हो सकता है कि शिवसेना की इस भीतरी धमाचौकड़ी की वजह क्या है वरना तस्वीर तो खुद बोल रही है कि इसकी मूरत 'बदरंग' हो चुकी है। सवाल यह है कि जब शिवसेना के विद्रोही नेता एकनाथ शिंदे के साथ पार्टी के कुल 56 विधायकों में से दो-तिहाई 37 विधायक से ज्यादा हैं तो श्री ठाकरे कौन सी शिवसेना की बात कर रहे हैं ? बेशक श्री ठाकरे ने एक दिन पहले ही मुख्यमन्त्री का आधिकारिक आवास 'वर्षा' छोड़ कर अपने निजी आवास में प्रयास किया है परन्तु वह शासन में अभी भी हैं। उन्होंने जनता में यह कार्य स्वयं को सत्ता के मोह से निःसक्त दिखाने के लिए जरूर किया है मगर जनता इतनी मूर्ख भी नहीं है कि वह इस लोक दिखावे को न समझ सके। राजनीतिकता कहती है कि अपनी पार्टी के भीतर जब श्री ठाकरे से उनके चुने हुए विधायकों का विश्वास उठ चुका है तो वह किस बुनियाद पर सत्ता से चिपके रह सकते हैं? संसदीय नियम के अनुसार कोई भी मुख्यमन्त्री विधानसभा में बहुमत खोने पर अपने पद पर बने नहीं रह सकता। बेशक राष्ट्रवादी कांग्रेस व कांग्रेस के विधायकों का समर्थन उन्हें प्राप्त है मगर अपनी ही पार्टी के विधायकों का समर्थन जब श्री ठाकरे खो चुके हैं तो उन्हें मुख्यमन्त्री बने रहने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ श्री शिन्दे भी असम की गुवाहाटी में अपने समर्थक शिवसेना के विधायकों को जोड़ कर मांग कर डाली है कि श्री ठाकरे को इस्तीफा दे देना चाहिए तो इसमें अब शक की गुंजाइश ही कहां रह गई है। लेकिन लगता है कि श्री ठाकरे स्व. बाला साहेब ठाकरे के पुत्र होने की वजह से शिवसेना पर अपना पुश्तैनी अधिकार समझ बैठे हैं और मुख्यमन्त्री की कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते। श्री शिन्दे ने उनकी इसी सामन्ती मानसिकता को चुनौती दी है। इसकी वजह है कि श्री शिन्दे शिवसेना के जमीन से उठे नेता है जिन्होंने अपना राजनीतिक जीवन मुम्बई में एक आटो टैक्सी चालक के तौर पर शुरू किया और पार्षद होने से विधायक बनने का सफर पूरा किया। उनका ठाकरे से मूल विवाद यह है कि उन्होंने 2019 के चुनावों के बाद केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी धुरविरोधी राजनीतिक विचारधाराओं वाली पार्टियों के साथ हाथ मिलाया और 'महाराष्ट्र विकास अघाड़ी' गठबन्धन बना कर मुख्यमन्त्री पद प्राप्त किया। यह तो हकीकत ही रहेगी कि 2019 का विधानसभा चुनाव शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर संयुक्त रूप से लड़ा था जिसमें भाजपा को 106 व शिवसेना को 56 सीटें मिली थीं। जनता ने इस गठबन्धन को पूर्ण बहुमत देकर शासन करने का आदेश दिया था मगर तब श्री ठाकरे ने शिवसेना अध्यक्ष के रूप में गठबन्धन से बाहर होने का फैसला किया और कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस से हाथ मिलाया। अब ढाई साल बाद अगर श्री शिंदे को याद आ रहा है कि यह महाराष्ट्र की जनता के साथ छल हुआ है तो इसमें उनकी भी मौका परस्ती हो सकती है मगर सैद्धान्तिक रूप से इसका विरोध नहीं किया जा सकता। शिंदे का कहना है कि सत्तारूढ गठबंधन की ठाकरे सरकार ने शिवसेना के मूल सिद्धान्त 'हिन्दुत्व'से समझौता किया है तो यह स्वाभाविक है क्योंकि कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के हिन्दुत्व के मुद्दे पर शिवसेना के साथ विचार मेल नहीं खाते। वास्तविकता तो यह है कि इसी मुद्दे पर ये दोनों पार्टियां चुनावों में शिवसेना का मुकाबला करती हैं। दूसरी तरफ यह भी नहीं कहा जा सकता कि शिवसेना व भाजपा का हिन्दुत्व भी एक है, फिर भी दोनों पार्टियों में इस मुद्दे पर मोटी-मोटी समानता तो है। अतः स्वाभाविक तौर पर शिवसेना भाजपा की ही सहयोगी दल हो सकती है मगर पहली बार महाराष्ट्र में इस पार्टी ने अपनी धुर विरोधी पार्टियों से हाथ मिला कर सत्ता पाई। इसका खामियाजा जाहिर तौर पर इसे आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है और यही वजह है कि शिवसेना में उद्धव ठाकरे के खिलाफ जबर्दस्त विद्रोह हुआ है। उद्धव इस हकीकत को नकारने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं मगर वह यह नहीं समझा पा रहे हैं कि कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेसी का समर्थन बदस्तूर जारी रहने के बावजूद वह शिवसेना के भीतर ही समर्थन क्यों खोते जा रहे हैं और हालत यह हो गई है कि अब उनके पास सिर्फ 56 में से 13 विधायक ही रह गये हैं। श्री शिंदे एक मायने में शिवसेना का बचा-खुचा जनाधार बनाये रखने की कोशिश में है और इस प्रयास में वह राज्य में शिवसेना-भाजपा की सरकार ही चाहते हैं जबकि श्री ठाकरे हर हालत में सत्ता चाहते हैं।