सम्पादकीय

किन्नौरी लोकगायन परंपरा में वस्त्राभूषण प्रसंग और दृश्य सौंदर्य

Rani Sahu
30 Aug 2021 9:17 AM GMT
किन्नौरी लोकगायन परंपरा में वस्त्राभूषण प्रसंग और दृश्य सौंदर्य
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वेशभूषा के विविध रंगों से सजा हिमाचल प्रदेश अनंतकाल से ही लोगों के आकर्षण का केंद्र रहा है

वेशभूषा के विविध रंगों से सजा हिमाचल प्रदेश अनंतकाल से ही लोगों के आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों के परिधान उनकी संस्कृति, परंपरा उनके क्षेत्र विशेष की पहचान कराती है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश का जनजातीय क्षेत्र जिला किन्नौर अपने प्राकृतिक सौंदर्य, अनूठी परंपरा एवं वेशभूषा के लिए देश-दुनिया में प्रसिद्ध है। यहां की महिलाओं का परंपरागत परिधान और आभूषणों से किया श्रृंगार आपको चौंकाएगा भी और साथ ही लुभाएगा भी। सिर से पांव तक आभूषणों से सजी महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है। बाहरी समाज का व्यक्ति उन्हें इस परिधान में देखकर उनसे नजऱ नहीं हटा पाता, उसके लिए यह ऐसा अनूठा एहसास होता है जिसकी उसने कभी कल्पना तक न की हो।

बदलते समय के साथ किन्नौरी समाज में ठेठ पारंपरिक परिधान अधिकतर शुकुद, दलोच, शादी, उत्सव-त्योहारों एवं मंदिर के प्रांगण में ही देखने को मिलता है। रोजमर्रा के जीवन में इनकी यह वेशभूषा यहां अब पहले की अपेक्षा कम देखने को मिलती है। यह भी सच है कि यहां के अधिकतर मंदिरों में ग्राम देवता के बाहर निकलने पर या उत्सव-त्योहारों में बिना पारंपरिक वेशभूषा के बड़े तो बड़े, लडक़े-लड़कियां भी मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर सकते। पारंपरिक वेशभूषा का यहां के जनमानस में अत्यंत महत्त्व है। यहां का हर वासी अपने पारंपरिक परिधान को सम्मान की नजऱ से देखता है और सिर ऊंचा करके फक्र से कहता भी है, हमारी वेशभूषा ही हमारी पहचान है। जिस तरह से किन्नौरी समाज ने आज भी अपनी संस्कृति, परंपरा व परिधान की धरोहर को संजो कर रखा है, यह अपने आप में गर्व की बात है।
किन्नौरी समाज के लोगों के पहनावे और आभूषणों के बारे में गहराई से जानने के लिए इसे मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है, ऊपरी किन्नौर और निचला किन्नौर। संपूर्ण किन्नौर में पुरुषों के पहनावे में कोई विशेष अंतर देखने को नहीं मिलता। इनके परंपरागत पहनावे में ये ऊपर ऊनी कोट, ऊनी अचकन, ऊनी छुबा (चोगा), ऊनी सुतोन (पजामा), छुबा के ऊपर ऊनी सुलुका (सदरी), कमर में बुरा गाछङ (गाची), गले में गोलबोंद, सिर पर ऊनी टोपी और पैर में बलजऩ पहनते हैं। पुरुषों के इस पहनावे का यहां के लोकगीतों में भी सुंदर वर्णन मिलता है। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं : 'लोशिमा नङ् बरजीयु पइरोन/नङ् बरजीयु पइरोनए बलदेन शोङ् ख्यामा।। बलदेन शोङ् ख्यामाए मुखमेलु ठेपङ्ृ/मुखमेलु ठेपङ्ए च़मखाचु टेकेमा।। लारङ् शोङ् ख्यामाए खत च़ामु छुबा/केरपाओं शोङ् ख्यामा बुरा-भुराइ गाछङ् युठुङ् शोङ् ख्यामाए टोपरू से सुतोन।।' प्रस्तुत लोक गीत में बरजीयु वंश के मुखिया के माध्यम से बताया गया है कि उन्होंने सिर पर मखमल की टोपी डाली है, जिस पर चा़मखा नामक पुष्प अटकाया गया है, कमर पर उनके गाची बंधी है और नीचे तंग मूहरी वाला ऊनी पजामा पहना है।
इस प्रकार इस लोक गीत में पुरुष वर्ग के पहनावे का अद्भुत चित्रण यहां के लोक गायकों द्वारा किया गया है। आमतौर पर पुरुषों द्वारा ऊनी कोट, टोपी पहनावे में प्रयोग लाते हैं, जबकि ओरे (साधारण) छुबा, अचकन, कमर पर बुरा गाची, शाबरे छाली (चेकदार ऊनी पट्टू), किन्नौर के कई मंदिरों में ग्रामदेवता के कारदार और जाल पाला (उस वर्ष मंदिर में कार्यभार संभालने की बारी) वालों को रोज़ तो कई हिस्सों में उत्सव, त्योहारों में पहनना होता है, साथ ही इन्हें आम दिनों में डालने वाले ऊनी टोपी के स्थान पर काली टोपी या कई स्थानों पर देवकार के समय में प्रेत ठेपिङ् डालते हैं। यहां आपको बता दूं कि देवकार में पहने जाने वाले प्रेत ठेपिङ् दुल्हन को पहनाए जाने वाले प्रेत ठेपिङ् से अलग होता है। यह पूरी काली होती है जबकि दुल्हन की प्रेत ठेपिङ् में बीच में लाल और उसकी किनारी काली होती है। टोपरू (बेलबूटेदार) छुबा, टोपरू सुतोन और टोपरू छाली शादी एवं विशेष उत्सवों पर पहना जाता है। इसके विपरीत ऊपरी किन्नौर और निचले किन्नौर की महिलाओं के पहनावे में काफी अंतर पाया जाता है।
पूह गांव से नीचे की महिलाएं प्राय: ऊनी दोहडू, कमर में ऊनी गाछङ (गाची)स दोहडू के ऊपर से चोली, ऊनी चोली के बाहर से ऊनी छाली (पट्टू), सिर पर टोपी पहनती हैं। पुराने समय में अमीर घराने की महिलाएं दोहडू की जगह पर छोमला/पाटले/मौसलू/चादरू पहनती थी, परंतु बदलते समय के साथ अब यह वस्त्र देखने को नहीं मिलता है। अब शादी और विशेष उत्सवों में महिलाएं टोपरू दोहडू (बेलबूटेदार), बुरा गाछङ, मखमली चोली (हरा/लाल), टोपरू से छाली, सिर पर चा़मखा नामक पुष्प अटकाते हैं। इसमें विवाह के समय दुल्हन को ऊनी टोपी के स्थान पर प्रेत ठेपिङ् नामक एक विशेष आकार की गोल ऊनी टोपी पहनाई जाती है, जिसके ऊपर चारों ओर चा़मखा अटकाया होता है। जबकि किन्नौर के पूह गांव से ऊपर की महिलाओं के पहनावे में गोइ/गोलक खरिलमा, नीचे तंग मोहरी वाली सुतोन, गोइ खरिलमा के ऊपर सुलुका (सदरी), कमर में ऊनी गाछङ (गाची), सदरी के बाहर से ऊनी लिङ्.चे (छोटा पट्टू), पैरों में सुकेत (सुंदरनगर) क्षेत्र की फूलदार जूतियां और सिर पर टोपी पहनती हंै। इस क्षेत्र की महिलाएं विशेष अवसरों पर सिर पर टोपी के स्थान पर 'बेरग' पहनती हंै।
यह एक अत्यंत विशिष्ट प्रकार का शीश आभूषण होता है, इसके पूरे पृष्ठ में नीले फीरोज़ और बीच-बीच में मूंगे पिरोये होते हैं। ऊपरी किन्नौर और निचले किन्नौर की महिलाओं की वेशभूषा में जिस तरह कलात्मक अंतर देखने को मिलता है, उसी प्रकार इनके आभूषणों में भी अंतर आता है। ऊपरी किन्नौर की महिलाओं के आभूषणों में फीरोज़, मूंग अधिक होते हैं। किन्नौरी समाज की संपूर्ण क्षेत्र में महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों में मुख्य है : त्रमोले/भित्रि, शोकपोटक, कान्टे, मुरकी, गोगलु (गोखरू), बालु, बलाक, चाक, गउ, लौंग/फुचनाच, खुन्ड़ोच, घुर शङलिङ्/शङलिङ्, खयाजो/त्रनोले (माथापट्टी), डामिगों/तकपा/टाब, पिपला/मुलुंच, कोन्ताए, मुलुजुटी, चंद्रहार, पटे, रीच, सौंडना, गउ-टुड़ा, छोस-टुड़ा, अलि, पोशेल, कोन्ठी, दगलो, टोकोचसे दगलो, टोरो, सुनङ्.णो, बङ.पोले, लसथप इत्यादि हैं। यहां के लोक गायकों ने महिलाओं के इन आभूषणों का यथार्थ वर्णन कर इसके महत्त्व से बाहरी समाज को भी रूबरू कराने की भरपूर कोशिश की है।
किन्नौरी समाज के लोग जब अपने पूरे परिधान में देव मंदिर के प्रागंण में नृत्य करते हैं तो उनका यह दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। ऐसा लगता है मानो स्वर्ग लोक की अप्सराएं धरती पर उतर गई हों। अपने परंपरागत आभूषणों एवं वेशभूषा को धारण कर यहां का हर निवासी गर्व महसूस करता है और इसे वह अपनी शान समझता है।
अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित
हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -44
मो.- 9418130860
विमर्श के बिंदु
-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा
-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक
-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप
-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे
-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता
-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व
-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार
-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक
-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य
-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन
-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य
-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना
-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग
-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन
चंद्रभागा नदी संबंधी लोक कथाएं एवं लोक गायन परंपरा
पदमा ठाकुर
मो.-9418155324
ऋग्वेद के नदी सूक्त में ऋषि सप्त-सिंधु की प्रमुख नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के साथ असिक्नी नदी की महिमा का गुणगान करते हैं : 'इदं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोभं सचता परुष्ण्या, असिक्न्या मरुद्धधे वितस्तयाड जीर्कीये शृणुह्या सुषोभया।।' हिमाचल प्रदेश का जनजातीय जिला लाहुल-स्पीति हिमालय का वह भूभाग है जिसके मध्य वैदिक नदी असिक्नी बहती है। इस नदी का नाम पौराणिक काल में चंद्रभागा हुआ जो आज भी भारत में इसी नाम से विख्यात है। हिमालय से यह दो धाराओं में निकलती है, एक को चंद्रा (जो 16000 फुट ऊंचाई पर बार लाद्द (बारालाचा) के दक्षिण-पूर्व हिम-स्थल से निकलती है) और दूसरी को भागा (जो दर्रे के उत्तर-पश्चिम भाग से निकलती है) कहते हैं। यह मिलित धारा चंद्रभागा या चिनाब कहलाती है। ये दोनों तांदी नामक स्थान पर मिलकर संगम बनाती हैं। चंद्रा और भागा के मिलन स्थल तांदी को इस क्षेत्र में वही पावनता प्राप्त है, जो शेष भारत के लोगों के लिए गंगा और यमुना की मिलन भूमि प्रयाग को प्राप्त है। नदियों के संगम स्थल को ऋग्वैदिक काल से पवित्र माना जाता है। वर्णन मिलता है कि इस पवित्र संगम स्थल में ध्यान, धारणा करके विद्याध्ययन द्वारा बुद्धि-वद्र्धन से मनुष्य ज्ञानी बनता है : 'उपहरे गिरीणां संगथे च नदीनाम धिया विप्रो अजायत।' बौद्ध ग्रंथों के पिटकों में सुत्तापिटक में 'चंद्रभागा नदी तीरे अहोसिं किन्नरो लदा' का वर्णन मिलता है। पुराणों में गरुड़ पुराण में चंद्रभागा का महान तीर्थ के रूप में वर्णन मिलता है। कूर्म पुराण में चंद्रभागा नामक तीर्थ का वर्णन इस प्रकार है कि यहां जन्म से आरंभ करके जीवनभर में जितने भी पाप कर्म हुए हों, उन सभी पातकों का व्यपोहन इस तीर्थ में स्नान कर लेने से हो जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार चंद्रभागा के संगम में स्नान का पुण्य फल गंगा-स्नान के समान पवित्र है। इन सभी संदर्भों के कारण आज भी आध्यात्मिक बल तथा आत्मिक शांति के लिए श्रद्धापूर्वक स्नानार्थ लाहुलवासी 'उतन' 'अ' (मकर संक्रांति) इत्यादि अवसरों पर चंद्रभागा संगम में जाकर इसकी पवित्रता को आत्मसात करते हैं। चंद्रभागा की धार्मिक उपादेयता यहां के हिंदू और बौद्ध दोनों ही धर्मानुयायियों के लिए समान रूप से है। इस संगम स्थल लाहुल के प्रयाग तांदी में अपने मृतकों की अस्थियों का प्रवाह भी करते हैं।
लाहुल जनसमुदायों में चंद्रा, भागा तथा चंद्रभागा संगम स्थल तांदी पर आधारित अनेक जनश्रुतियां मिलती हैं। जनश्रुतियां किसी तथ्य को आधार मानकर आगे चलती हैं और लोक कथा या लोक गीत के माध्यम से आगे पीढ़ी तक पहुंचाई जाती हैं। चंद्रा और सूर्य के संबंध में प्राप्त कथानुसार चांद की बेटी चंद्रा और सूर्य का बेटा भागा दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे, परंतु स्वर्ग में इस प्रेम की स्वीकार्यता न मिलने पर वे दोनों स्वर्ग छोडक़र बारालाचा जोत पर उतरे, परंतु रास्ता भटककर एक-दूसरे से अलग हो गए। चंद्रा बारालाचा जोत के दक्षिण-पूर्व दिशा से होकर चल पड़ी। चलते-चलते वह तांदी पहुंच गई, परंतु भागा तंग चट्टानों के बीच संघर्ष करता हुआ चंद्रा के बाद तांदी पहुंचा। दोनों ने दिव्य ब्याह रचाया, एक होकर चंद्रभागा के संयुक्त नाम से चलीं। चंद्रा और भागा की संगम स्थली तांदी को स्थानीय लोग 'तड.ती' कहते हैं। इस संगम स्थल के साथ भी एक पौराणिक कथा जुड़ी है, जिसके अनुसार पांच पांडव अपने जीवन के अंतिम काल में सदेह स्वर्गारोहण के लिए इंद्रप्रस्थ से हिमालय की ओर चले थे। स्वर्गारोहण के समय एक ढांक में द्रौपदी की साड़ी फंस गई और वह उनसे बिछुड़ गई। पतियों में से किसी एक के भी सहायता के लिए न आने के कारण वह दुखी हुई और वहीं उन्होंने दम तोड़ दिया। लाहुलवासियों ने लावारिस पड़े शव को देखा तो उन्होंने चंद्रा और भागा के संगम पर उनका विधि-विधान से अंतिम संस्कार कर दिया। तांदी इस क्षेत्र के लोगों के लिए आज भी महाश्मशान है। द्रौपदी ने इस स्थान पर तनदेही अर्थात तन दिया, इसीलिए इसका नाम तांदी पड़ा। लोकमानस में यह धारणा लोक गीतों (घुरे) के माध्यम से सुदृढ़ है कि वास्तव में पांडव, द्रौपदी इत्यादि इन स्थलों से होकर गुजरे हों।
लाहुल के लोक गीतों में एक प्रचलित गीत यह है : 'ए माता न क्वैता ए तऊं पांजा पूतुरू जामी ए तऊं पांजा पूतुरू जामा ए, ए पांजा ना पुतुरा ए तऊं पांजा ना पंडुपा ए तऊं पांजा न पंडुपा ए।' (मां कुंती, तुम्हारे पुत्र पांच, तुम्हारे पुत्र पांच)। (पांच पुत्र, पांडव ये कहलावें, पांडव ये कहलावें)। 'एक जेठूड़ा पुतुरा ए तऊं क्याडे नांव राखी ए तऊं क्याडे नांव राखी ए' अर्थात ज्येष्ठ पुत्र, तुम्हारा क्या नाम, तुम्हारा क्या नाम। 'एक जेठूड़ा पुतुरा एक तऊं राजा ना जेठुडा ए तऊं राजा ना जेठुडा ए' अर्थात ज्येष्ठ पुत्र, धर्मराज तुम्हारा नाम, धर्मराज तुम्हारा नाम और क्रमश: धर्मराज, कनिष्ठ सहदेव, अर्जुन, नकुल, भीमसेन का वर्णन मिलता है। इसके साथ ही आधुनिक गीतकार भी चंद्रभागा संगम को सबसे बड़ा संगम और तीर्थ मानते हुए अपने गीतों के बोल 'भते बे मोडे संगम हेन्दू चंद्रभागा, चंद्रभागा भते बे मोडे तीर्थ ओ सादी रे…' इत्यादि लिखते और गुनगुनाते हुए मिलते हैं।
डायरी के अंश : हरनोट, देवकन्या और प्रभु जोशी
अनूप सेठी
मो.-9820696684
कल फेसबुक पर एसआर हरनोट ने अपनी एक कहानी 'लाल होता दरख्त' का जिक्र करते हुए देवकन्या ठाकुर द्वारा उस पर बनाई फिल्म का लिंक दिया था। आधे घंटे की यह फिल्म यूट्यूब पर मैंने देखी। फिर हरनोट की कहानी भी पढ़ी। दोनों माध्यमों में कहानी को देखना-पढऩा अलग-अलग अनुभव रहे। यह मैंने ऐसे समय में किया जब साथ ही प्रभु जोशी के निधन की खबर फेसबुक पर आग की तरह फैल चुकी थी। महामारी के दुष्काल में रोज ऐसी ही खबरें आ रही हैं। संवेदना सुन्न सी हो गई है। जिन साहित्यकारों से परिचय रहा है या जिनसे मिलना-जुलना रहा है, उनके जाने की खबरें ज्यादा आघात पहुंचाती हैं। लेकिन विवशता है कि कर कुछ नहीं सकते। उल्टे खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद सी चली रहती है। रोजमर्रा के काम भी चलते रहते हैं। भीतर कुछ टीसता भी रहता है। तरह-तरह से खुद को अवसाद, दुख, जड़ता से बचाने के खेल भी करते रहने पड़ते हैं। इसलिए कल जब हरनोट जी की कहानी देखी और फिर पढ़ी तो प्रभु जोशी साथ-साथ थे। उनसे हुई मुलाकातें, उनका बोलना, उनकी अदाएं, उनकी हंसी बार-बार दिख रही थी। हम लोग तो आकाशवाणी के कुनबे के भी रहे हैं। वह भी एक तार था जो जोड़े रहता था। हरनोट की कहानी 'लाल होता दरख्त' पर पहले फिल्म देखी। अपनी बोली के लहजे के बलाघात के साथ बोली जाने वाली हिंदी ने ध्यान खींचा। पहाड़ी दृश्यावलियों की ताजगी भरी हरियाली भी आकर्षक है। ग्रामीण इलाका, घरों और मंदिर का वास्तु शिल्प, पहरावा, जीवन शैली फिल्म को प्रामाणिक बनाती है।
हरनोट अपनी कहानियों के माध्यम से स्थानीय लोक जीवन की विषमताओं को उभारने वाले कथाकार हैं। विशेष मकसद लेकर भी चलते हैं कि समस्या का समाधान करना है। और उसी योजना के तहत अंत तक पहुंचते हैं। इस कहानी में तुलसी और पीपल के विवाह की परंपरा को निभाने का दबाव मुख्य किरदार मथरू पर है। तुलसी के विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और पीपल के विवाह के लिए बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा। पंडित होने के कारण अपनी जमीन में उग आए पीपल का विवाह करने की परंपरा को निभाने या ढोने का दबाव उसके ऊपर है। तुलसी के विवाह के लिए वह अपने खेत को गिरवी रख चुका है। अब बेटी और पीपल के विवाह (जिसे वह करना ही चाहता है) के लिए बाकी जमीन को भी गिरवी रख देगा। यह समझ नहीं आया कि वह पुश्तैनी ही सही, पर पुरोहिती कैसे करता है? क्योंकि वह निरक्षर है, जमीन के कागजों पर वह अंगूठा ही लगाएगा। वह जंत्री कैसे पढ़ता होगा? तो क्या वह वाचिक परंपरा का पुरोहित है? लेकिन क्या यह परंपरा अब जीवित है? कहानी में बताया गया है कि वह मजदूरी भी कर लेता है, पर फिल्म के किरदार को देखकर नहीं लगता कि कलाकार की देह को मजदूरी का अभ्यास है। बरहाल! बेटी जमीन को गिरवी नहीं रखने देना चाहती है, इसलिए थोड़ी कशमकश के बाद सुबह-सुबह शादी का जोड़ा पहन कर पीपल से खुद ही शादी कर लेती है। यानी पीपल के पत्ते पर से सिंदूर डालकर अपनी मांग भर लेती है। यह समाधान हमें वास्तविक जीवन में कहीं नहीं ले जाता। शादी के प्रपंच और रूढिय़ों के सांकेतिक विरोध के संकेत जरूर देता है। साथ ही जिस तरह से इस प्रसंग का फिल्मांकन किया गया है, वह लोक कथा की तरह लगता है और काव्यात्मक हो उठता है। शायद यह फिल्म माध्यम की ताकत है।
फिल्म में लोकगीतों का भी सरस और सार्थक प्रयोग है। यह कहानी मैंने पहले भी पढ़ी थी, कल फिर पढ़ी तो नए सिरे से पढऩे जैसा ही हुआ। पढ़ते समय देखी हुई फिल्म के दृश्य भी भीतर घुमड़ रहे थे और प्रभु जोशी तो विद्यमान थे ही। वे तो आज यह डायरी लिखते समय भी उपस्थित हैं। कहानी पढक़र लगा कि कहानी में बारीकी ज्यादा है। वर्णन में चरित्र ज्यादा खुलते हैं। मुख्य पात्र मथरू का द्वंद्व और बेटी की उहापोह विस्तार से प्रकट होती है। फिल्म में यह एक घटना सी बन कर रह जाती है। फिल्म की प्रमाणिकता की अलग खूबियां हैं, लेकिन जो बारीकी हरनोट जी ने कहानी लिखने में बरती है, वह व्यक्ति के भीतर के रेशों को ज्यादा खोलती है। 'दारोश और अन्य कहानियां' संग्रह में यह कहानी का संशोधित रूप है। हरनोट जी ने 1986 में लिखी इस कहानी को यहां दोबारा लिखा है। हो सकता है देवकन्या जी ने पुरानी कहानी के आधार पर फिल्म बनाई हो, इसलिए उसमें सपाटता ज्यादा दिखती है। यह मेरा निजी मत है। हर दर्शक फिल्म को अपनी तरह से देखेगा। देख रहे हैं प्रभु जोशी! आप भाषा के महीन कारीगर थे। बोलियों के माहिर और रंगों-रेखाओं के मास्टर। आपने जिस दिन शरीर छोड़ा या इस महामारी के वक्त में चरमराई हुई व्यवस्था ने आपको शरीर छोडऩे पर मजबूर कर दिया, उस दिन आपको याद करते हुए मैंने कहानी के एक और शिल्पी की कहानी दो माध्यमों में देखी। जैसे आपके कई माध्यम थे- शब्द, रंग, रेखाएं, रेडियो, टेलीविजन और सबसे बड़ा अपनेपन से लबालब भरा आपका प्यारा व्यक्तित्व। मैं आपके जाने के शोक में डूबूं या आपके होने को महसूस करूं!
-(05.05.2021 की डायरी)
पुस्तक समीक्षा
जीवन के रंगों का इंद्रधनुष है 'कहां हो तुम'
कमलेश सूद का लघुकथा संग्रह 'कहां हो तुम' प्रकाशित हुआ है। 187 पृष्ठों के इस संग्रह का मूल्य 400 रुपए है। प्रकाशक एजुकेशनल बुक सर्विस, दिल्ली हैं। कमलेश सूद की लघुकथाएं नारी पीड़ा, त्रासदी, शोषण आदि से चित्रित हैं। इनमें षुरुषवादी मानसिकता, कठोरता का भी वर्णन है। यथार्थवादी जिंदगी के कई अक्स इन लघुकथाओं में भरे पड़े हैं जिन्हें पढ़ कर पाठक द्रवित हो उठेगा। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि कमलेश सूद का लिखा यह लघुकथा संग्रह कांगड़ा जिले में किसी महिला साहित्यकार का लिखा तथा प्रकाशित प्रथम लघुकथा संग्रह है अर्थात कमलेश सूद कांगड़ा जिला की प्रथम लघुकथाकार मानी जाएंगी। यह एक ऐतिहासिक एवं अति उल्लेखनीय उपलब्धि है जो कि एक रिकॉर्ड बन चुकी है। यह मात्र कांगड़़ा ही नहीं, अपितु हिमाचल के लिए भी गौरव का विषय है। जीवन के विविध रंगों से अटी पड़ी यह पुस्तक जीवन के विविध आयामों को दर्शाती हुई अवश्य ही सबके मन को भाएगी। दुख-पीड़ा से मंडराते मेघ जो आते हैं और छंट भी जाते हैं। जीवन की धूप-छांव से भरे क्षणों का दस्तावेज बन गया है यह लघुकथा संग्रह।
मैं कमलेश सूद को इस उपलब्धि के लिए बहुत बधाई देता हूं तथा कामना करता हूं कि वे निर्बाध लिखती रहें। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास भी है कि पाठक वृंद इस पुस्तक का खुले हृदय से स्वागत करेंगे। लघुकथा एक सशक्त तथा मारकधार साहित्यिक विधा है जिसमें लेखक को बड़ी मितव्ययता से शब्दों का चयन करना पड़ता है। कम से कम शब्दों मे अपनी बात रखनी होती है, गागर में सागर भरना पड़ता है और जिसमें कमलेश सूद खरी उतरी हैं। लगता ही नहीं कि इस विधा में वे नवोदित रचनाकार हैं क्योंकि उनकी रचनाएं परिपक्व व परिपूर्ण हैं। इन लघुकथाओं का धरातल यथार्थमयी चित्रण से भरपूर है तथा हमारे संस्कारों की गूंज भी इनमें सुनाई देती है। संस्कारहीनता तथा नकारात्मकता इन लघुकथाओं में दृष्टिगोचर नहीं होती। लेखिका ने प्रत्येक लघुकथा को मानो यथार्थ में जिया और फिर लिखा है। लेखिका ने हर लघुकथा को सीमित शब्दों में ही कहने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं कलेवर बढ़ा भी है, परंतु उन्होंने अपना श्रेष्ठ ही दिया है। इस लघुकथा संग्रह की सभी कहानियों में जीवन का कोई न कोई पक्ष विद्यमान है।
-नरेश कुमार उदास, वनतालाब, जम्मू


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