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- कूटनीति की परीक्षा
अफगानिस्तान के बदतर होते हालात भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गए हैं। भारत ने कंधार स्थित अपने वाणिज्य दूतावास से सभी भारतीय राजनयिकों और कर्मचारियों को वापस बुला लिया है। मजबूरी में उठाया गया यह कदम इस बात का प्रमाण है कि अफगानिस्तान में भारत असुरक्षित महसूस कर रहा है। हालांकि पिछले हफ्ते ही भारत ने कहा था कि कंधार और मजार-ए-शरीफ में मिशन बंद नहीं किए जाएंगे। कहने को कंधार में वाणिज्य दूतावास का दफ्तर औपचारिक तौर पर खुला है और स्थानीय अफगानी कर्मचारी काम कर रहे हैं। लेकिन कंधार अब तालिबान के कब्जे में है। ऐसे में दूतावास के कर्मचारी तालिबान की मानेंगे या भारत की, यह सोचने की बात है। पिछले हफ्ते तुर्की ने भी बाल्ख प्रांत में अपना वाणिज्य दूतावास बंद कर दिया था। चीन ने भी अफगनिस्तान में काम करने वाले अपने नागरिकों को निकालना शुरू कर दिया है। दूसरे देश भी इसी तरह का कदम उठाने जा रहे हैं। ये स्थितियां अफगानिस्तान की आने वाले दिनों की तस्वीर बताने के लिए काफी हैं।
अफगानिस्तान में भयानक हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का दौर लौट आया है। सत्ता पर कब्जे के लिए पिछले कई दिनों से तालिबान लड़ाकों और अफगान सेना के बीच लड़ाई चल रही है। तालिबान ने देश के पचासी फीसद हिस्से पर कब्जे का दावा किया है। तालिबान लड़ाके जिस ताकत से हमले कर रहे हैं उससे अफगान सैनिकों के हौसले पस्त पड़ गए हैं। बड़ी संख्या में अफगान सैनिक या तो ताजिकिस्तान भाग गए हैं या फिर तालिबान की फौज में शामिल हो रहे हैं। इससे लग रहा है कि अब वह दिन दूर नहीं जब देश की सत्ता फिर से तालिबान के हाथ में होगी। तालिबान की ताकत इसलिए बढ़ गई है कि परोक्ष रूप से चीन और पाकिस्तान उसके साथ हैं। तालिबान की मदद के लिए पाकिस्तानी सेना लड़ाके भी तैयार कर रही है। तालिबान ने तो चीन को अपना दोस्त भी बता दिया है। अपने नियंत्रण वाले इलाकों में तालिबान ने फिर से शरीयत कानून थोप दिए हैं। तालिबान के खौफ से बड़ी संख्या में लोग पड़ोसी देशों में भाग रहे हैं। पाकिस्तान ने पांच लाख शरणार्थियों के आने की संभावना जताई है। दो लाख अफगानी पहले ही देश छोड़ चुके थे
यह संकट भारत के लिए भी कम गंभीर नहीं है। अगर तालिबान सत्ता हथियाने में कामयाब हो गया तो भारत के लिए मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। भारत के समक्ष धर्मसंकट यह खड़ा हो रहा है कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार का समर्थन करे या तालिबान के साथ हाथ मिलाने की कूटनीति पर कदम बढ़ाए। इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिना तालिबान का समर्थन किए अफगानिस्तान में किसी का भी टिक पाना संभव नहीं है। दो दशक पहले भी जब तालिबान सत्ता में था तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी और कोई संबंध नहीं रखा था। इसकी कीमत कंधार विमान अपहरण कांड में तीन आतंकियों की रिहाई के रूप चुकानी पड़ी थी। पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में बड़ा योगदान दिया है। सड़क परियोजनाओं से लेकर नया संसद भवन बनाने, शिक्षा के क्षेत्र में मदद देने जैसे बड़े कदम उठाए हैं। पर तालिबान के रहते यह सब आसान नहीं होगा। दूसरा खतरा यह भी है पाकिस्तान भारत के खिलाफ तालिबान का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आएगा। सच्चाई तो यह है कि बदलते हालात में तालिबान और भारत एक दूसरे की मजबूरी भी हैं। यह वक्त भारत की कूटनीति की परीक्षा का है। अब देखना यह होगा कि भारत तालिबान को कैसे और कहां तक साध पाता है।