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- कसौटी पर मुफ्त
Written by जनसत्ता: किसी भी देश का लोकतंत्र तभी मजबूत बना रह सकता है जब वहां होने वाले चुनाव निष्पक्ष व स्वतंत्र हो और राजनीतिक दलों की ओर से लोगों का मत हासिल करने के लिए लोभ-लाभ का सहारा न लिया जाता हो। लेकिन हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले लोकसभा चुनाव हों या विधानसभा चुनाव, अमूमन सभी दलों की ओर से अपने उम्मीदवारों की जीत को सुनिश्चित करने के लिए मतदाताओं के सामने कई तरह के ऐसे दावे और वादे किए जाते हैं, जो कभी पूरे नहीं होते।
इस क्रम में पिछले कुछ समय से इस बात पर सवाल उठने लगे हैं कि चुनावों के दौरान अपने पक्ष में प्रचार करते हुए कई नेता जिस तरह आम लोगों को कोई सामान या सेवा मुफ्त मुहैया कराने का बढ़-चढ़ कर वादा करते हैं, क्या वह एक तरह से लोभ और लाभ के बदले वोट पाने की कोशिश नहीं होती है! जबकि मतदाताओं का वोट पूरी तरह से सरकारों के कामकाज और जनता के पक्ष में उसके रवैये के आकलन और विवेक पर आधारित होना चाहिए, ताकि सभी स्तरों पर सत्ता से लेकर जमीनी स्तर तक लोकतांत्रिक अवधारणा को मजबूती मिले।
इस मसले पर लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीति को लेकर फिक्रमंद लोगों और समूहों की ओर से लगातार चिंता जताई जाती रही है और कई सवाल उठाए गए हैं। अच्छा यह है कि वोट के लिए मुफ्त चीजों या सेवाओं का सवाल अब सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दायरे में है। इससे संबंधित याचिका पर पिछली सुनवाई के दौरान मुफ्त के वादे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था। अब बुधवार को अदालत ने इस मामले में विशेषज्ञ समिति के गठन का संकेत दिया, जो चुनावों के मद्देनजर मुफ्त उपहार के संदर्भ में सुझाव पेश करे।
हालांकि इस संबंध में अदालत की यह टिप्पणी अहम है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस बारे में बात नहीं करती है, क्योंकि सभी जनता को मुफ्त उपहार का प्रस्ताव देना चाहते हैं। क्या यह एक तरह से मतदाताओं की राय या मत को कीमत देकर खरीदने लायक समझा जाना नहीं है? अगर चुनाव बाद कोई चीज या सेवा मुफ्त में लोगों को मुहैया कराई जाती है, उस मद में होने वाले खर्च का बोझ आखिरकार किस पर पड़ता है? इस मसले पर केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल ने एक अहम पहलू का उल्लेख किया है कि लोकलुभावन मुफ्त उपहार बांटने का वादा या बांटा जाना मतदाताओं को प्रभावित करता है और अगर इसे नियमों का दायरे में नहीं लाया गया तो इससे देश की आर्थिक स्थिति बदतर हो सकती है।
यह छिपा नहीं है कि चुनावों में अपने उम्मीदवारों की जीत तय करने के लिए किए जाने वाले प्रचार अब विकास और विचार के स्तर पर देश या समाज को समृद्ध करने की बातों के बजाय लोगों को कोई वाहन या लैपटाप या अन्य सामान देने या बिजली-पानी जैसी सुविधाएं मुफ्त मुहैया कराने के वादों में तब्दील होते जा रहे हैं। जबकि किसी भी देश या क्षेत्र का समग्र और समावेशी विकास जनता को इस रूप में सशक्त करता है, जहां लोगों को कोई सेवा या सामान मुफ्त में लेने की जरूरत नहीं महसूस होती।
मसलन, अगर सबके लिए रोजगार या फिर पर्याप्त आर्थिक आमदनी का जरिया सुनिश्चित कर दिया जाए तो किसी भी व्यक्ति को अपनी जरूरत के किसी सामान या बिजली-पानी जैसी सेवाओं के लिए कीमत चुकाने में क्या असुविधा होगी! लेकिन बुनियादी समस्याओं का कोई ठोस हल निकालने के बजाय तात्कालिक और अस्थायी राहतों के जरिए जनता को उलझाए रखने का प्रयास किया जाता है।