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- कसौटी पर मुफ्त
Written by जनसत्ता: पिछले कुछ सालों से देश भर में होने वाले चुनावों के दौरान मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से जिस तरह के लुभावने वादे किए जाने लगे हैं, उसे लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। मुख्य शिकायत यह सामने आई है कि चुनाव के दौरान पार्टियां जिस तरह जनता के सामने कुछ चीजें मुफ्त उपलब्ध कराने का वादा करती हैं, उसका असर निष्पक्ष मतदान की प्रक्रिया पर पड़ता है और इस तरह आखिरी तौर पर एक स्वस्थ लोकतंत्र बाधित होता है।
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर उचित ही सवाल उठाते हुए केंद्र सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों की ओर से मुफ्त में चीजें बांटने या ऐसा करने का वादा करने को वह कोई गंभीर मुद्दा मानती है या नहीं! अदालत ने केंद्र को वित्त आयोग से यह भी पता लगाने को कहा कि पहले से कर्ज में डूबे राज्य में मुफ्त की योजनाओं पर अमल रोका जा सकता है या नहीं।
दरअसल, चुनावों में सत्ता हासिल करने के लिए अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की ओर से किए जाने वाले वादे की शक्ल अब बीते कुछ समय से कोई चीज या सुविधा मुफ्त मुहैया कराने के रूप में सामने आने लगी है। अगर एक पार्टी विद्यार्थियों को मुफ्त लैपटाप देने का वादा करती है तो दूसरी बिजली और स्कूटी या गैस सिलेंडर। हालत यह हो गई है कि इस मामले में लगभग सभी पार्टियों के बीच एक होड़ जैसी लग गई है कि मुफ्त के वादे पर कैसे मतदाताओं से अपने पक्ष में लुभा कर मतदान कराया जा सके।
कई बार सरकार बनने के बाद ऐसे वादे पूरा होने की राह देखते हैं, तो कई बार इन पर अमल भी किया जाता है। सवाल है कि अगर कोई पार्टी केंद्र या किसी राज्य में सरकार बनने के बाद आम जनता को मुफ्त सुविधा या सामान मुहैया कराती है, तो उसका आधार क्या होता है! लगभग हर छोटी-मोटी सुविधाओं या आर्थिक व्यवहार को कर के दायरे में लाने और उसे सख्ती से वसूलने वाली सरकारें इतने बड़े पैमाने पर कोई चीज कैसे मुफ्त देने लगती हैं? इसका एक अन्य पहलू यह है कि कुछ सुविधाएं या सेवाएं मुफ्त किए जाने से इतर सरकार क्या जनता से अन्य मदों में कर नहीं वसूलती है? फिर विशेष या आपात स्थिति में अगर जीवन-निर्वाह के लिए लोगों को कोई सामान निशुल्क दिया जाता है तो क्या वह सरकार की जिम्मेदारी नहीं होती है?
यह जगजाहिर है कि कई बार विकास से संबंधित किसी काम के समय पर पूरा नहीं होने को लेकर सरकारें कोष में धन की कमी और कर्ज के बोझ का रोना रोती हैं। लेकिन वहीं वे मुफ्त में लोगों को कोई सामान बांटने से लेकर बिजली या पानी जैसी योजनाएं चला कर जनपक्षीय होने का दावा करती हैं। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों की ओर से वादे किए जाने पर पूरी तरह रोक लगाना इसलिए भी मुश्किल है कि लोकतांत्रिक ढांचे में मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें जनता के सामने खुद को बेहतर पक्ष के रूप में पेश करना होता है।
लेकिन सरकार के कोष की स्थिति एक वास्तविक समस्या है। ऐसे में ये सुझाव दिए जाते हैं कि वित्त आयोग आबंटन के समय किसी राज्य सरकार का कर्ज और मुफ्त में सामान मुहैया कराने की कीमत को देख कर अपना निर्णय ले सकता है। जाहिर है, चुनावों में जीत के लिए कोई चीज या सेवा मुफ्त मुहैया कराए जाने का सवाल कठघरे में है और इस पर कोई स्पष्ट रुख सामने आना जरूरी है।