सम्पादकीय

अमन से बौखलाए आतंकी: काबुल से कश्मीर घाटी तक अमन-चैन पर ग्रहण लगाने को रही हिंसक घटनाएं

Gulabi
14 Oct 2021 5:25 AM GMT
अमन से बौखलाए आतंकी: काबुल से कश्मीर घाटी तक अमन-चैन पर ग्रहण लगाने को रही हिंसक घटनाएं
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अमन से बौखलाए आतंकी

डा. दुष्यंत राय। पिछले कुछ महीनों के दौरान काबुल से लेकर कश्मीर घाटी तक अमन-चैन पर ग्रहण लगाने वाली कुछ हिंसक घटनाओं का अगर विश्लेषण किया जाए, तो दोनों के बीच एक सहज संबंध दिखाई देता है। तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस) की सेनाओं की तीन दशक पहले अफगानिस्तान से वापसी के साथ ही वहां अलकायदा और तालिबानी आतंकियों का वर्चस्व कायम हो गया। इसके कुछ महीने बाद से ही कश्मीर घाटी में आतंक के खूनी खेल की शुरुआत हो गई थी। कुछ विश्लेषकों ने अगस्त के अंत में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद कश्मीर में आतंक की नए सिरे से दस्तक की आशंका जताई थी। जाहिर है काबुल से लेकर कश्मीर घाटी तक आतंक की जड़ों के अंर्तसबंध को समझने का यही सही समय है। ऐसी समझ कश्मीर घाटी को आतंक से मुक्त कराने में बड़ी सहायक सिद्ध होगी।


फिलहाल सरकार के अथक प्रयासों से कश्मीर घाटी दहशत के दौर से बाहर आकर अपने नैसर्गिक सौंदर्य की सुगंध फिर से बिखेरने लगी है। हाल में सरकार ने कश्मीरी पंडितों की कब्जा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की कवायद शुरू की है। अब तक ऐसे लगभग हजार मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को वापस उनके असली मालिक के हवाले कर भी दिया गया है।

याद कीजिए दो साल पहले तक 'कश्मीर' शब्द सुनते ही गोला-बारूद, नकाबपोश आतंकी और हसीन वादियों में पसरा डरावना सन्नाटा ही दिल-दिमाग में कौंधता था। धरती पर जन्नत के इस टुकड़े के साथ यह पहचान कुछ इस तरह चिपकी कि इसे ही कश्मीर की नियति मान लिया गया था। जनता की इस पीड़ा को केंद्र में रहीं सरकारें बखूबी जानती थीं, लेकिन उस यथास्थिति को तोड़ने का साहस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ही दिखा पाए। कश्मीर की फिजाओं से न सिर्फ भय के बादल तेजी से छंटने लगे हैं, बल्कि जिन नौजवानों के हाथ हथियार थामने को अभिशप्त दिखते थे, उन हाथों का हुनर अब देश-दुनिया में अपनी चमक बिखेरने को बेताब है।

'भय के बजाय भरोसे' के मंत्र ने बीते करीब सवा दो साल में कश्मीर का मिजाज जिस तरह से बदला है, उसकी पृष्ठभूमि पर एक नजर डालनी जरूरी है

इस पृष्ठभूमि के तीन मुख्य आधार स्तंभ हैं। पहला, सरकार के दृढ़संकल्प को लेकर लोगों के मन में व्याप्त विश्वास। दूसरा, कश्मीर को लेकर सरकार की इच्छाशक्ति और तीसरा, जम्मू-कश्मीर के माथे से अनुच्छेद 370 और धारा 35ए का धब्बा मिटने के बाद राज्य में शासन-प्रशासन के चरित्र, चेहरे एवं चाल में आया क्रांतिकारी बदलाव।
कश्मीर का संवैधानिक स्वरूप एक झटके में बदल जाएगा, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। इस समस्या के समाधान की दिशा में किए जा रहे प्रयासों की गंभीरता को कश्मीर की आम जनता भी अब समझ रही है। तेजी से पूरे किए जा रहे विकास कार्य हों या फिर पंचायत चुनाव की कामयाबी के मार्फत इस इलाके में जम्हूरियत की जड़ें गहरी करने की ईमानदार कोशिश हों, इन दोनों ही बातों ने कानून और व्यवस्था के प्रति विश्वास की डोर को मजबूत किया है। इसके समानांतर शासन की कार्यप्रणाली में आमूलचूल बदलाव ने भी जनमानस को सकारात्मक ऊर्जा से भर दिया है। इसका ताजा उदाहरण राज्य प्रशासन का वह फैसला है, जिससे जनजातीय समुदायों से जुड़े करीब 15 लाख लोगों को उनका अधिकार देने के लिए वन अधिकार अधिनियम, 2006 लागू हो गया है। राज्य में यह कानून पिछले पंद्रह वर्षों से लटका हुआ था।
सरकार की अब खुद जनता के द्वार तक पहुंचने की नई परिपाटी ने सरकारी तंत्र के चरित्र में बदलाव की इबारत लिख दी है। स्थानीय लोगों के लिए भावनात्मक लगाव का यह चलन बिल्कुल नया अनुभव है। मौजूदा उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने सरकार के मुखिया के रूप में खुद को न सिर्फ जवाबदेह बनाया है, बल्कि राजभवन को जनता के दरवाजे तक ले जाने का प्रयास भी किया है। लोगों के बीच जाकर उनकी नब्ज पकड़ने का उनका प्रयास सार्थक साबित हो रहा है। जनता की यह वही नब्ज है जिसे अब तक की सरकारों ने अपने सियासी हित साधने की होड़ में टटोलने की जहमत उठाना लाजिमी नहीं समझा था। शायद इसी का नतीजा है कि कश्मीर के सुदूर सीमावर्ती गांव दाराकुंजन तक आजादी के बाद पहली बार सड़क बनना संभव हुई है। पाकिस्तान सीमा पर बारामुला के पास स्थित भारत के इस आखिरी गांव में लोगों ने पहली बार सड़क का दीदार किया।
समृद्धि और शांति की जो इबारत कश्मीर घाटी में लिखी जा रही है, हालिया आतंकी वारदातें उसे झुठलाने की कोशिश मात्र हैं, क्योंकि इतना तो तय है कि जनता अफगानिस्तान की हो या कश्मीर की, हर हाल में अमन चाहती है। कश्मीर में बीते तीन महीनों में तीस लाख से अधिक सैलानियों का पहुंचना इसका जीता-जागता प्रमाण है। आतंकियों और उनके सीमा पार बैठे आकाओं की बौखलाहट की वजह भी यही है। लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सरकार इस वजह को समझते हुए विकास और शांति बहाली के दो पहियों की गाड़ी को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने की रणनीति पर चल रही है। सीमा पार से प्रायोजित आतंक की हालिया घटनाओं से कश्मीर में शांति प्रयासों को ठेस लगी है, लेकिन भारत आतंकियों को उखाड़ फेंकने की निर्णायक लड़ाई से अब पीछे हटने वाला नहीं है। इसी रणनीति के बलबूते कश्मीर और कश्मीरियत को लेकर जो कुछ बीते 70 वर्षों में न हो सका, उसका महज दो साल में होना मुमकिन हुआ है। मतलब साफ है, 'बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी।'

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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