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- तेल की तलब से पनपता...
अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी के नतीजे में वहां तालिबान सत्ता में आ गए हैं। वहां का घटनाक्रम चिंता पैदा करने वाला है। वहां के अल्पसंख्यकों और मुसलमानों ने देश से किसी भी तरह भाग निकलने के जिस तरह के प्रयास किए हैं वे दुःखद और दिल को हिला देने वाले थे। इस घटनाक्रम ने पूरी दुनिया का ध्यान अफगानिस्तान की ओर खींचा है। तालिबान के पिछले शासनकाल को याद किया जा रहा है, जिस दौरान उन्होंने महिलाओं का दमन किया था, पुरुषों के लिए तरह-तरह के कोड निर्धारित किए थे और शरिया कानून का अपना संस्करण देश पर लाद दिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों का ध्वंस भी किया था। इस सबसे उनका चरित्र दुनिया के सामने आया था। कुछ लोगों को यह उम्मीद थी कि तालिबान सुधर गए होंगे, परंतु उनके शुरुआती निर्णयों से तो ऐसा नहीं लगता। यह दुःखद है कि भारत में कुछ मुसलमानों ने तालिबान के सत्तासीन होने का स्वागत किया। भारत के अधिकांश मुसलमान अफगानिस्तान के घटनाक्रम से दुःखी और सशंकित हैं और उन्होंने तालिबान सरकार की नीतियों का विरोध किया है। फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह और गीतकार जावेद अख्तर जैसे लोगों ने खुलकर तालिबान की नीतियों और हरकतों की निंदा की है। यह सब अफगानिस्तान में घट रहा है, परंतु भारत का गोदी मीडिया, जो सत्ताधारी दल की तरफदारी और उसके विरोधियों पर हमला करने के लिए जाना जाता है, तालिबान शासन के भयावह पहलुओं को उजागर करने में काफी उत्साह दिखा रहा है। जो कुछ कहा जा रहा है वह सच हो सकता है, परंतु उस पर इतना अधिक जोर दिया जा रहा है कि ऐसा लग रहा है मानो तालिबान भारत के लोगों के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं। तालिबान की कुत्सित हरकतों को उजागर करने में गोदी मीडिया इस हद तक डूब गया है कि उसे न तो भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी दिख रही है, न दलितों और महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार और न ही किसानों के आंदोलन जैसे मुद्दे। देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने की घटनाओं को गोदी मीडिया निरपेक्ष ढंग से प्रस्तुत नहीं कर रहा है। वह ऐसा दिखा रहा है मानो उन पर अत्याचार के लिए धार्मिक अल्पसंख्यक स्वयं जिम्मेदार हैं।