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- आतंक का दायरा
Written by जनसत्ता: आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव की ताजा रिपोर्ट निश्चित ही चिंता बढ़ाने वाली है। इसमें कहा गया है कि अफगानिस्तान अब अलकायदा और इस्लामिक स्टेट (आइएस) जैसे आतंकी संगठनों का नया गढ़ बन गया है। पिछले छह महीनों में यहां आतंकी संगठन ज्यादा मजबूत हुए हैं। जाहिर है, तालिबान सरकार का इन्हें पूरा समर्थन मिल रहा है।
हालांकि इस पर हैरानी इसलिए नहीं है कि पिछले साल अगस्त में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से ही दुनिया के तमाम देश यह आशंका जताते रहे हैं कि पाकिस्तान की तरह अब अफगानिस्तान भी आतंकी संगठनों का नया ठिकाना न बन जाए। पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव की रिपोर्ट से आशंका सही साबित हो गई है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि आतंकी संगठन अफगानिस्तान में आजादी का पूरा मजा ले रहे हैं। तालिबान ने अब तक कोई ऐसा संकेत भी नहीं दिया है, जिससे लगता हो कि वह अपनी जमीन से आतंकवादी गतिविधियां नहीं चलने देगा।
यह कहना गलत नहीं होगा कि तालिबान की छवि किसी आतंकी संगठन से कम नहीं है। हालांकि दावा तो यह कट्टर धार्मिक संगठन होने का करता रहा है, लेकिन इसकी गतिविधियां पूरी तरह से आतंकी ही रही हैं। अलकायदा और आइएस सहित पाकिस्तान और मध्यपूर्व के देशों के आतंकी संगठनों से तालिबान के जो संबंध रहे हैं, वे किससे छिपे हैं! इन आतंकी संगठनों की मदद से ही तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता हासिल कर पाया है।
इसलिए आतंकी संगठन अगर तालिबान के राज में ही नहीं फलेंगे-फूलेंगे तो कहां जाएंगे! रिपोर्ट में कहा गया है कि इस्लामिक स्टेट अब यहां खुद को बड़ी ताकत के रूप में स्थापित कर रहा है। जाहिर है, अगर इस्लामिक स्टेट यहां पैर जमाने में कामयाब हो गया तो यह खतरा दक्षिण एशियाई देशों खासतौर से भारत जैसे देशों को कहीं ज्यादा होगा। भारत तो पहले से ही यह आशंका व्यक्त करता रहा है कि पाकिस्तान के इशारे पर तालिबान आतंकी संगठनों और भाड़े के विदेशी लड़ाकों को कश्मीर में भेज अशांति फैला सकता है। इसके अलावा श्रीलंका जैसे देश भी आइएस के खतरे को लेकर परेशान तो हैं ही।
कुछेक देशों को छोड़ दें, तो अभी भी ज्यादातर देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। सभी देश पहले तालिबान सरकार से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि वह किसी भी रूप में आतंकी गतिविधियों में शामिल नहीं होगा और न ही आतंकी संगठनों को अपनी जमीन का इस्तेमाल करने देगा। पर तालिबान ने अपनी तरफ से ऐसा कोई वचन नहीं दिया है। वह जानता है कि अगर उसने ऐसा करने की सोची भी तो आतंकी संगठन उसके खिलाफ ही जंग छेड़ देंगे। सवाल तो इस बात का है कि जो सत्ता हासिल ही आतंकी संगठनों के जरिए की गई हो, उसे खत्म करने के बारे में कौन और कैसे सोच सकता है! पर ऐसा भी नहीं है कि तालिबान अपने यहां जड़ें मजबूत कर रहे आतंकी संगठनों के खतरे को समझ नहीं रहा है।
लेकिन बिना आतंकी संगठनों के तो उसका काम चलने वाला नहीं। अब यह चुनौती उन देशों के सामने है जो आतंकवाद की मार से जूझ रहे हैं। वैश्विक स्तर पर आतंकवाद से निपटने की एक साझा रणनीति क्या हो, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। हालांकि आतंकवाद से निपटने के साझा प्रयासों को लेकर ज्यादातर देशों के बीच समझौते और संधियां हैं।