सम्पादकीय

तकनीकी सुविधा की दीवारें

Subhi
17 Feb 2023 5:25 AM GMT
तकनीकी सुविधा की दीवारें
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अजय प्रताप तिवारी: सुबह से शाम तक लोग अपने मोबाइल की स्क्रीन पर अपनी निगाहें गड़ाए रहते हैं। कायदे से कहें तो एक छोटी-सी स्क्रीन ने मनुष्य को व्यवहार में अपना गुलाम बना लिया है। ज्यादातर लोग चाह कर भी इस स्क्रीन से मुंह मोड़ नहीं पाते हैं, क्योंकि ये हमारे जीवन के एक अहम हिस्से बन चुके हैं। एक तरह से स्मार्टफोन मनुष्य के दिमाग को अपनी गिरफ्त में ले लिया हैं। मनुष्य को संचालित करने में अब उनके अपने दिमाग का जोर कम चल रहा है और उसे नियंत्रित करने का काम स्मार्टफोन कर रहे हैं।

इस आदत ने मनुष्य के भीतर बसे भावनात्मक ताने-बाने को नष्ट कर दिया हैं। इसी वजह से मनुष्य के व्यवहार में कई तरह के बदलाव दिखाई देने लगे हैं। सच यह है कि स्मार्टफोन, लैपटाप, टैबलेट, टीवी आदि डिजिटल उपकरणों से एक तरह का प्रकाश उत्सर्जित होता है। इनके प्रकाश में स्पेक्ट्रम का एक नीला हिस्सा होता है जो मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क में समस्या उत्पन्न करता है।

इसके कारण लोगों को नींद न आने भूलने, चिड़चिड़ाने जैसी गंभीर समस्याएं घेर रही हैं। दिन भर बिना जरूरत के भी मोबाइल स्क्रीन पर अंगुलियां चलाते रहने से केवल शरीर को नुकसान नहीं हो रहा है। बल्कि इसी वजह से मानसिक तनाव और अपनों के बीच बढ़ रही दूरियां व्यक्ति को अकेला महसूस करने पर मजबूर कर रही हैं। आसपास सभी तरह के रिश्ते-नाते होने के बावजूद इंसान अकेला होता जा रहा है।

लेकिन ये आधुनिक तकनीकी और यंत्र लोगों को इस कदर अभ्यस्त और गुम करता है कि धीरे-धीरे मनुष्य को एकांत में ही जीने की आदत हो जाती है और वह इसी को अपना समाज समझने लगता है। एक ऐसा समाज जहां पर भावनाएं, संवेदनाएं, सहानभूति, अपनापन और रिश्तों का कोई मोल नहीं रह जाता है। व्यक्ति में भावनात्मकता मर जाती है। और इसके बाद स्वाभाविक रूप से भावनात्मक रूप से टूटा हुआ व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करने लगता है।

यह सच है कि डिजिटल दुनिया ने दुनिया और समाज को बहुत कुछ दिया है। जिंदगी को कई तरह से आसान बनाया है। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि इसने हमसे छीन भी बहुत कुछ लिया है। आज छोटे-छोटे बच्चों में एक अजीब-सा बदलाव दिखाई देने लगा है। वे अपने पारिवारिक और सामाजिक संबंध को समझ नहीं पा रहे हैं। यहां तक कि अपने व्यक्तित्व की जरूरतों की भी अनदेखी कर रहे हैं। इसका कारण यह नहीं है कि बच्चों में कोई कमी है। आसपास का वातावरण और पारिवारिक बदलाव की वजह से ऐसा हो गया है।

हमारे समाज में पहले छोटी आयु में ही माता-पिता के अलावा परिवार के बुजुर्ग और अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों के मनोयोग के अनुरूप लोग खुद को ढालना सीखते थे। पहले बच्चों के मन-मस्तिष्क में पारिवारिक भाषाई संवाद स्थापित कराया जाता था। माता-पिता बच्चों के साथ जुड़े रहते रहते थे। बच्चों को विविध रिश्तों के मायने बताए जाते थे। किसी भी पारिवारिक रिश्ते में बड़ों की ओर से मातृत्व की भावना और छोटों की ओर से सम्मान का भाव होता है और इनमें पारस्परिक लगाव का स्तर बहुत ऊंचा होता है, जो इसकी विशेषता है। हमारे रिश्तों में नैसर्गिक भाव खत्म हो गया है।

संवेदना और भावनात्मकता नाममात्र रह गई है। आज अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को लेकर चिंतित हैं कि उनके बच्चों ने संवाद खत्म या बेहद कम कर दिया है। बच्चे उनको समय नहीं देते हैं, एक दूसरे को समझ नहीं रहे हैं। हर अभिभावक को अपने बच्चों से आत्मीय लगाव और बहुत उम्मीद होती है, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो अभिभावक से दूरियां बना लेते हैं। ऐसे में बुजुर्ग माता-पिता टूट जाते हैं। व्यक्ति कितना भी ज्ञान, धन और शक्ति से संपन्न क्यों न हो, हर क्षेत्र का विद्वान बन जाए, मगर जब तक उसके अंदर भावनाएं और संवेदना नहीं समृद्ध हों, तो यह सब किसी काम की चीज नहीं है।

शिक्षा समाज को भावनात्मक संवेदना और आत्मीयता से जोड़ने का काम करती है, न कि तोड़ने की। हमारे रिश्ते-नाते सब कुछ पुराने हैं। लेकिन सोचने-समझने का नजरिया बदल गया है। आज जरूरत है रिश्तों को समझने की और एक दूसरे को जानने-पहचानने की, परस्पर सहयोग की, समाज को साथ लेकर चलने की। रिश्ते-नाते, संवेदना और आत्मीयता पर निर्भर होते हैं जो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है।

अगर कोई व्यक्ति बिना स्मार्टफोन के जीवन जी रहा होगा तो निश्चित रूप से वह बहुत खुशहाल, शांत और भावनात्मक रूप से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता होगा। प्रकृति और जीवन को जीने के लिए हमें डिजिटल दुनिया की आभासी हकीकत से बाहर निकलना होगा। बाजारीकरण की प्रतिस्पर्धी समाज से किनारा करना होगा, सहयोग की भावना बढ़ानी होगी, रिश्तों को समेट कर साथ चलना होगा। तभी हम बौद्धिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत हो सकेंगे।




क्रेडिट : jansatta.com

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