सम्पादकीय

भयावह स्थिति के आंसू

Rani Sahu
14 Aug 2023 7:04 PM GMT
भयावह स्थिति के आंसू
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By: divyahimachal
‘बार-बार अफरातफरी में हुजूर उलझ जाते, उनके गुरूर में उन्हीं के पांव फिसल जाते’। कुछ यही बयान करता हिमाचल का परिदृश्य वर्तमान में आहत होने के सिवा कर भी क्या सकता। इस धंसाव में हमारी एडिय़ों का दर्द, चलते हैं तो नासूर मौत को बुला लाता। हिमाचल के धंसते पहाड़ों के कठघरे में हम, हमारे योजनाकार और सरकारों की प्राथमिकताओं के कारण अफरातरफरी का माहौल जिम्मेदार है। आश्चर्य और आपदा दोनों ही अप्रत्याशित मान भी लें, लेकिन ये नजारे विकास के नासूर को इंगित कर रहे हैं। धर्मपुर बस स्टैंड के डूबने का अर्थ यह नहीं कि बारिश ने बाढ़ का रुख मोड़ दिया, बल्कि यह है कि विकास ने बहते पानी के रास्ते में टांग अड़ाई है। कम से कम यह तो साबित हो रहा है कि विकास की आचार संहिता और गवर्निंग सिद्धांत चाहिए। क्या टीसीपी कानून की वजह व उपयोगिता को समझ कर पूरे प्रदेश में विकास का मॉडल बनाना जरूरी नहीं। हम अवैध या निर्माण की अफरातफरी में ध्वस्त हो रहे हैं। यह चाहे फोरलेन प्रोजेक्ट हों, निजी निर्माण शैली हो या सियासी प्राथमिकताओं के तहत विकास हो, वर्तमान त्रासदी के हर जिक्र में इनकी बर्बादी में कहीं तो हम सभी ने हिमाचल को मुजरिम बना दिया। इस हफ्ते की शुरुआत में हिमाचल अपने वजूद में मौत की गिनती कर रहा है।
रविवार से सोमवार के बीच ममलीग, शिमला व अनेक सडक़ों पर धंसाव का सिलसिला करीब चालीस लोगों व अनगिनत वाहनों को निगल चुका है। मकान गिर रहे हैं, मंदिर ध्वस्त हो रहे हैं, पुल और पुलियों की शामत आई है तथा सडक़ों के नामोनिशान मिट रहे हैं। एक भयावह स्थिति के बीच पहली बार हिमाचल सहम गया है। विनाश की चीखों का मंजर कमोबेश हर जगह मौजूद है। कारण ढूंढने चलेंगे तो हजारों बहाने मिल जाएंगे या भाग्य को कोसकर हम हर कफन को बर्दाशत कर लेंगे, लेकिन सत्य यह है कि कहीं हमसे ही गुनाह हो गया। ऐसे में राहत और बचाव कार्यों में अब ऐसी परीक्षा है, जहां कम से कम सियासत नहीं होनी चाहिए। इस विषय में पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार के बयान की प्रशंसा होनी चाहिए, जहां उन्होंने प्रदेश सरकार की अनावश्यक नुक्ताचीनी को दरकिनार करते हुए राहत और बचाव के लिए राज्य के खास और आम को पहरेदार बना दिया है। वह सुक्खू सरकार की खुले मन से प्रशंसा करते हुए अपनी ही पार्टी को नसीहत देते हैं कि दुख की इस घड़ी में आंसू पोंछने की जरूरत को अहमियत देनी होगी।
सवाल यह नहीं कि केंद्र ने कितनी राहत दी, बल्कि यह है कि आपदा से निपटने के लिए देश पर्वतीय हिमाचल के साथ किस हद तक खड़ा है। कम से कम पिछले डेढ़ दो महीने की बारिश ने एक तरह से हिमाचल पर धावा बोला है और यह स्थिति असामान्य और अप्रत्याशित है। इससे पहले पानी की ऐसी विकरालता कभी नहीं देखी गई, इसलिए सारी निगाहें केंद्र पर हैं। इस नुकसान की भरपाई की कोई तयशुद्धा औसत नहीं और न ही कुछ सिक्के उछाल कर केंद्र मरहम लगाने का देवता हो जाएगा। यह चुनौती पहाड़ के अस्तित्व को मिली है। यह उस पहाड़ की चुनौती है जो अपने संतुलन और श्रम से देश की प्रकृति और प्रवृत्ति को आसरा देता आया है। जो पानी पहाड़ को सता रहा है, उसी की जरूरत देश को है और रहेगी। बहरहाल हिमाचल को देखने, संवरने और भविष्य को परखने का नजरिया बदलना पड़ेगा। अब राहत और बचाव को हम सिर्फ संयोग से नहीं ले सकते, बल्कि यह राष्ट्रीय हिफाजत और न्याय का प्रश्र है।
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