सम्पादकीय

मैदान के लिए आंसू

Rani Sahu
24 March 2022 7:11 PM GMT
मैदान के लिए आंसू
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पूर्व सांसद महेश्वर सिंह के आंसुओं से ढालपुर का मैदान धुल जाएगा या उस पाप की भागीदारी से यह प्रदेश बच जाएगा

पूर्व सांसद महेश्वर सिंह के आंसुओं से ढालपुर का मैदान धुल जाएगा या उस पाप की भागीदारी से यह प्रदेश बच जाएगा, जो ऐतिहासिक मैदानों से उनका अस्तित्व छीन रही है। कुल्लू में मुख्यमंत्री की जनसभा में महेश्वर सिंह का दर्द इसलिए छलका क्योंकि ढालपुर का मैदान धीरे-धीरे अतिक्रमण की साजिशों से सिमट रहा है। उनकी शिकायत का पलड़ा भारी है और अगर इसे समूचे प्रदेश के हिसाब से देखा जाए, तो कई सार्वजनिक मैदान अतिक्रमण या विकास के नाम पर मौत का शिकार हो रहे हैं। कुल्लू का ढालपुर मैदान उस विरासत का पड़ाव है, जो दशहरा के सांस्कृतिक पक्ष की रखवाली करता है। ऐसे आयोजन का मंचन अगर अतिक्रमण की वजह से सिकुड़ रहा है, तो यह अपराध तुरंत रुकना चाहिए। विकास की मजदूरी में सार्वजनिक स्थलों की बर्बादी एक बड़ा विषय है और इसके ऊपर शहरी एवं ग्रामीण विकास मंत्रालयों के साथ-साथ प्रशासन और सरकार को गहन विचार करना चाहिए। न केवल ढालपुर, बल्कि मंडी का पड्डल, सुजानपुर का होली, धर्मशाला का पुलिस, चंबा का चौगान तथा ऐसे अनेक मैदान सिकुड़ रहे हैं। इसके लिए जनप्रतिनिधि भी पूरी तरह दोषी हैं क्योंकि विकास के विस्तार में वे अनेक बार अमूल्य जगह को बर्बाद करने में सहयोग करते हैं। धर्मशाला के पुलिस मैदान के एक बड़े भाग पर कार्यालयों का निर्माण इसी तरह की सोच का परिणाम है।

हाल यह है कि प्रमुख मेला ग्राउंड अतिक्रमण के कारण सिकुड़ चुके हैं। आज छिंज और टमक के लिए भी ग्रामीण मेला मैदान कमजोर स्थिति में हैं, जबकि कई स्थानों पर स्कूलों से भी मैदान छीने जा रहे हैं। प्रदेश में अतीत से ही सामुदायिक मैदानों की भरमार रही है और इसीलिए कमोबेश हर गांव में अलग-अलग सुविधाओं और परंपराओं के हिसाब से ऐसे स्थानों का महत्त्व रहा है। इसमें दो राय नहीं कि बढ़ते वनों के दबाव ने सार्वजनिक स्थानों की इस कद्र कतरब्यौंत की कि सुजानपुर मैदान के कई बाजू काटने पड़े। आश्चर्य यह भी कि हर साल वन विभाग को कलगी लगाते आंकड़े यह जिक्र तो कर देते कि जंगल का क्षेत्रफल कितना बढ़ गया, लेकिन यह पैमाइश नहीं होती कि इसकी कीमत में सार्वजनिक इस्तेमाल की भूमि कितनी तीव्रता से कम हुई। वन विभाग ही अपने कार्यालयों, बस्तियों और वार्षिक उत्सवों के लिए हर साल शहरी जमीन छीन रहा है, तो यह हिसाब भी लगा लिया जाए कि जंगल का यह प्रहरी इनसानों के हिस्से की कितनी जमीन हड़प कर बैठा है। दूसरी ओर सार्वजनिक स्थलों की भूमि पर अतिक्रमण या तो सरकारी प्रश्रय से हो रहा है या हमने इन्हें सुरक्षित बनाए रखने की कोई चौकस व्यवस्था ही शुरू नहीं की। हर साल जंगल बढ़ाने के इरादों के बीच कौन सोचेगा कि भविष्य की मानवीय गतिविधियों के लिए कितनी अतिरिक्त जमीन चाहिए। ऐसे में क्यांे न हर गांव और शहर का विकास सोचने से पहले यह सुनिश्चित किया जाए कि किस तरह इनके दायित्व के साथ भूमि बैंक की परिकल्पना को सार्थक बनाया जाए।
हमीरपुर जैसे शहर में सार्वजनिक गतिविधियों के लिए प्रशासन का अपना कोई मैदान नहीं है, तो कई अन्य स्थानों पर खेल विभाग भी ऐसी फकीरी में दिखाई देता है। ऐसे में आधुनिक जरूरतों के हिसाब से हर शहर की चारों दिशाओं में चार सामुदायिक मैदान विकसित करने की जरूरत है, ताकि विकास की भूख से अलग मानवीय विश्राम के लिए कुछ खुला आकाश बचा रहे। कुल्लू या हर शहर की विरासत, प्रवृत्ति, क्षमता, महत्त्व आर्थिकी और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए शहरी विकास योजनाओं को कागज़ी घोड़े बनाकर दौड़ाने के बजाय, हकीकत में उतारना पड़ेगा। शहरी व ग्रामीण निकायों के पदाधिकारियों का यह नैतिक फर्ज है कि वह अतीत व वर्तमान का संरक्षण करते हुए भविष्य के लिए सुरक्षित रास्ते चुनें। ढालपुर मैदान पर हुए अतिक्रमण के लिए नागरिक समाज भी दोषी है, क्योंकि ये सामुदायिक संपत्तियां हैं और पुरखों व परंपराओं की धरोहर भी। शहरी कानूनों के शिथिल अध्याय पूरी तरह गल चुके हैं, अतः भविष्य के कड़े प्रहरी बनने के लिए नई चेतना, प्रेरणा व अध्यव्साय की जरूरत है, जिसके लिए नागरिक चेतना सर्वोपरि है।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

Rani Sahu

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