सम्पादकीय

Teachers Day: शिक्षक की परंपरा के उत्तराधिकारी, पुराने ज्ञान से ही नए ज्ञान का सृजन 

Gulabi
5 Sep 2021 6:09 AM GMT
Teachers Day: शिक्षक की परंपरा के उत्तराधिकारी, पुराने ज्ञान से ही नए ज्ञान का सृजन 
x
शिक्षा मनुष्य की निर्मिति का एकमात्र साधन है

शिक्षा मनुष्य की निर्मिति का एकमात्र साधन है। शिक्षा बोध निर्मिति तो करती ही है, उस बोध के अनुरूप मनुष्य की सामाजिक भूमिका का निर्धारण भी करती है। इस संदर्भ में भारतीय शिक्षा में आवश्यक प्रयत्न के लिए चिंतित दार्शनिक का नाम है डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। स्वाभाविक है कि जब भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 क्रियान्वयन की दिशा में आगे बढ़ रही है, तब डॉ. राधाकृष्णन की शिक्षा दृष्टि पर विचार किया जाए। एक ज्ञान दूसरे ज्ञान को जन्म देता है। नया ज्ञान हमेशा प्राचीन ज्ञान की समीक्षा के बाद ही सृजित होता है। यदि प्राचीन ज्ञान की समीक्षा नहीं है, तो जिसे हम अत्यंत नवीन ज्ञान के रूप में समझते हैं, वह केवल कल्पना है। शिक्षा द्वारा कल्पना शक्ति प्राप्त होनी चाहिए, लेकिन कल्पना की यह शक्ति सृजनधर्मी हो, उसके लिए समीक्षात्मक चिंतन विधि की जरूरत है। हम शिक्षकों को स्वीकार करना होगा कि शिक्षक का दायित्व श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना है।

इसका मापन अकादमिक उपलब्धि या शिक्षोपरांत आय से नहीं हो सकता। हमें अपने विद्यार्थियों को सृजनामत्क कल्पना की क्षमता से युक्त एवं स्वावलंबी बनाना है। यही मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया है, यही मनुष्य को मुक्त करने की प्रक्रिया है। भारतीय समाज में शिक्षक की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण थी कि राजा भी शिक्षालय में रथ से उतर कर नंगे पांव जाया करते थे। शिक्षा के राज्याश्रित होने और शिक्षा द्वारा संसाधन बनाने की पूरी प्रक्रिया में अगर कोई व्यक्ति समाज के केंद्र से परिधि पर आ गया है, तो वह शिक्षक है। यदि हमें शिक्षा का उद्धार करना है, शिक्षा द्वारा प्रत्येक मनुष्य का उद्धार करना है, तो शिक्षक को पुनः शिक्षा के केंद्र में प्रतिष्ठित करना होगा।
नई शिक्षा नीति की प्रत्येक संस्तुति शिक्षक की महत्ता पर और नीति के क्रियान्वयन में उसकी केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करती है। यह नीति शिक्षकों से अपेक्षा करती है कि वे भारतीय युवाओं के उज्ज्वल भविष्य के निर्माता बनें। यह नीति राज्य से भी अपेक्षा करती है कि वह शिक्षण के उसी गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करे, जो भारतीय परंपरा में स्वीकृत है। वर्तमान संदर्भ में शिक्षण से संबंधित कुछ प्रश्न उभरे हैं। जैसे कि क्या शिक्षक केवल एक सेवा प्रदाता बनकर रह गए? क्या वे मात्र छात्रों तक सूचना स्थानांतरित करनेवाले हैं? शिक्षकों को अपने विचारों और कर्मों से इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देना है। शिक्षकों के बारे में बनी धारणाएं तोड़नी हैं। आम जन तक यह संदेश संप्रेषित करना है कि सेवा प्रदाता संसाधन बना सकता है, मनुष्य नहीं, जबकि शिक्षक मनुष्य बनाता है, मनुष्यता का बीजारोपण करता है।
हमने अपने जीवन में किसी न किसी शिक्षक को देखकर सीखा है। किसी न किसी शिक्षक के पढ़ाए जाने के तरीक, उनके द्वारा की गई व्याख्या आज भी प्रेरित करती है। हमें ध्यान रखना है कि हम उसी शिक्षक की परंपरा के उत्तराधिकारी बनें। अकादमिक नेतृत्व का कार्य केवल संरचनाओं और संसाधनों पर विचार करना नहीं है। प्रायः हम शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत इसी को अकादमिक नेतृत्व का कार्यक्षेत्र मान लेते हैं। इस दिशा में पहला प्रश्न यह होना चाहिए कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है? यह उद्देश्य भी सदा एक समान नहीं रहता, बल्कि देश-काल के अनुसार बदलता रहता है। इन्हीं के अनुरूप शिक्षा तंत्र और व्यवस्थाएं भी बदली हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ दशक पूर्व जो विषय सामग्री स्नातक स्तर पर पढ़ाई जाती थी, अब वह उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं का अंग है। ऐसे ही उपाधियों का महत्व भी बदला है। श्यामसुंदर दास जी केवल बीए थे। इसी उपाधि का सम्मान करने के लिए बनारस शहर में सम्मान समारोह का आयोजन किया गया था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की नींव हाई स्कूल उत्तीर्ण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रखी थी। लेकिन हिंदी में उनके अवदान के विषय में अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उपाधि और संसाधन के स्थान पर ज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेष अकादमिक श्रेष्ठता की कसौटी है। यह अकादमिक श्रेष्ठता सुनिश्चित करने के लिए योग्य नेतृत्व की आवश्यकता होती है। भारत में बड़े परिवर्तन युवाओं के संकल्प और सपनों से ही हुए हैं। भारत के ज्ञात इतिहास में ऐसा पहला परिवर्तन नचिकेता ने किया था। उसने पूरी परंपरा पर सवाल खड़ा कर दिया और उसे बेहतर और समाजोपयोगी बनाने के लिए मृत्यु से लड़ पड़ा। ऐसे संकल्पों से ही श्रेष्ठ व जिम्मेदार समाज निर्मित होता है, जिसका प्रत्येक सदस्य बदलाव का वाहक होता है।
भारत का इतिहास युवाओं की संकल्प शक्ति से ही लिखा गया है। हम अपार संभावनाओं के पुंज हैं। जब हम कुछ करने और सीखने का मन बनाएंगे, तो एक सक्षम, कौशल संपन्न, ज्ञान संपन्न और जिम्मेदार नागरिक बन सकेंगे। यह ध्यान रखना होगा कि विद्या बंध्या नहीं है, वह उत्पन्न करती है। हम अपनी चेतना में जैसा बीज बोएंगे, वैसा ही हमारा भविष्य होगा। यूरोपीय पुनर्जागरण से आरंभ करके हम आज 'नॉलेज पावर' के स्तर तक पहुंच चुके हैं। 'ज्ञान सद्गुण है' को भूलकर आज यह माना जाने लगा है कि 'ज्ञान ताकत है।' हमें बिना मानवीय मूल्य के यंत्र बना देने वाली संस्थाएं नहीं खड़ी करनी। हमें भारतीय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए समग्र मनुष्य का निर्माण करना है।
लेखक वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति हैं।
Next Story