सम्पादकीय

शिक्षक दिवस विशेष: खत्म होना चाहिए बच्चे को टॉपर बनाने का जुनून, नंबर से ज्यादा जानकारी पर हो ध्यान

Neha Dani
6 Sep 2022 1:41 AM GMT
शिक्षक दिवस विशेष: खत्म होना चाहिए बच्चे को टॉपर बनाने का जुनून, नंबर से ज्यादा जानकारी पर हो ध्यान
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देश आज जब शिक्षक दिवस मना रहा है, तब पुड्डुचेरी के कराईकल से हृदय विदारक घटना सामने आई है। कराईकल में 13 साल के कक्षा आठवीं के छात्र मणिकंदन की केवल इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि वह पढ़ाई में अव्वल था। हत्या करने वाला कोई और नहीं, बल्कि मणिकंदन की क्लास में सेकंड टॉपर बच्चे की मां है। मणिकंदन ने जब क्लास में टॉप किया तो आरोपी मां विक्टोरिया इस कदर दु:खी हो गई कि वह जूस में जहर मिलाकर मणिकंदन की सोसाइटी के चौकीदार को दे आई और उसे मणिकंदन को पिलवा दिया। सीसीटीवी में सारा वाक्या कैद हो गया।




विक्टोरिया फिलहाल पुलिस की हिरासत में है, पर इस एक मामले ने हम सभी को सोचने पर विवश कर दिया है। क्या गला काट कंपटीशन यहां तक पहुंच गया है कि एक मासूम को मार दिया जाए और वो भी केवल इसलिए कि वह क्लास में अव्वल आता है? पढ़ाई में अच्छा है।

एक लंबी बहस परीक्षाओं में मार्क्स को लेकर होती आई है। समाज का बड़ा वर्ग आज भी बच्चों के मार्क्स को लेकर उत्साहित या हतोत्साहित रहता है। अच्छे मार्क्स या क्लास में टॉप करने वाले बच्चों को समाज में प्रतिष्ठित नजरिए या कहें अभिमान की दृष्टि से देखा जाता है। जो बच्चे अच्छे मार्क्स नहीं लाते, उन्हें आवारा, नकारा जैसी संज्ञाएं भी दे दी जाती हैं। दरअसल, हमारे लिए मार्क्स ही इंटेलिजेंस का पैमाना हैं।


भारत में परीक्षाओं के परिणाम के दौरान हम पाते हैं कि अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें टॉपर्स को लेकर प्रकाशित होती हैं। उनके बड़े-बड़े इंटरव्यू छापे जाते हैं। कैसे तैयारी की, क्या खाते थे, क्या पहनते थे, कैसे सोते या जागते थे, कौन सी किताबें पढ़ी? आदि। छोटे से लेकर बड़े स्कूल तक जमकर इस प्रचार में लगे रहते हैं कि उनके स्कूल के इतने बच्चों ने 90 प्लस परसेंट मार्क्स अर्जित किए हैं। फर्स्ट डिवीजन की तो अब कोई चर्चा ही नहीं रह गई है।

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इतने बच्चे टॉपर रहे हैं। इतने बच्चों के 100 मार्क्स आए हैं, पर कभी फेल होने वाले बच्चों या कम मार्क्स अर्जित करने वालों की चर्चा नहीं की जाती है, ना ही यह समझने की कोशिश की जाती है कि आखिर उनके कम मार्क्स का कारण क्या है, क्या वह किसी और फील्ड में रुचि रखते हैं या कुछ खास सब्जेक्ट के कारण उनके मार्क्स कम रह गए हैं?

वर्ष1986 में दूरदर्शन पर सीरियल आया था, जिसका नाम लेखू था, जिसका मुख्य किरदार पढ़ाई में काफी फिसड्डी था, पर केमिस्ट्री उसकी बहुत अच्छी थी। केमिस्ट्री में वह होनहार विद्यार्थी था और बाकी सब्जेक्ट्स के कारण वह पास नहीं हो पाता था। विडंबना यह है कि हमारे पाठ्यक्रम में ऐसा कुछ शामिल ही नहीं किया गया है, जिससे हम बच्चे को किसी एक खास रुचि के विषय में आगे बढ़ा सकें। दसवीं कक्षा तक उसे हर सब्जेक्ट में पास होना ही पड़ता है।

ग्रेडिंग और नंबर सिस्टम

यदि ग्रेडिंग सिस्टम या नंबरों की बात की जाए तो इसका इतिहास बेहद पुराना है। इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्राचीन ग्रीस में सबसे पहले औजारों की ट्रेनिंग पर ग्रेड देना प्रारंभ हुआ था। उसके बाद इतिहास में झांकें तो पता चलता है कि वर्ष 1646 में हॉर्वर्ड ने नंबरों के आधार टर डिग्री देना प्रारंभ किया। वर्ष 1785 में याले प्रेसिडेंट इजरा स्टिलिस ने अमेरिका में सबसे पहले ग्रेडिंग स्केल लागू कराया, जिसमें ऑप्टिमी, सेकंड ऑप्टिमी, इनफीरियर्स और प्रजोरिस नाम से चार ग्रेड दिए जाते थे।

भारत में गुरुकुल चला करते थे या बच्चों को घर पर शिक्षा देने की परंपरा थी। गुरुकुल में सभी छात्र समान होते थे। कोई ग्रेड लागू नहीं होता था। जब अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा संस्थानों की स्थापना शुरू की, लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा का एक सिस्टम और पाठ्यक्रम बनाया। उसके बाद हमारे यहां भी बच्चों को मार्क्स देने का चलन शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। मार्क्स के इस चक्रव्यूह से ना हम निकल पा रहे हैं, ना अपने बच्चों को निकाल पा रहे हैं।

75 साल पहले जब देश अंग्रेजों से मुक्त हुआ तो शिक्षा के क्षेत्र में सुधार या बदलावों के प्रयास शुरू हुए। सरकारों ने एजुकेशन सिस्टम में परिवर्तन किए, लेकिन मार्क्स की बेड़ियों को कोई सरकार अब तक तोड़ नहीं निकाल पाई है।

यह भी सच है कि हमारे नेता अक्सर दूसरे देशों में एजुकेशन सिस्टम को देखने जाते हैं, लेकिन क्लास रूम में परिवर्तन के अलावा नया कुछ लागू नहीं करा पाए हैं, जबकि जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका जैसे देशों में बच्चों की रुचि के अनुसार पढ़ाई पर जोर दिया जाता है। फिलहाल भारत में ऐसा कोई प्रयोग संभव होता नजर नहीं आ रहा है।

मार्क्स की अंधी दौड़ से बचिए

मार्क्स की अंधी दौड़ में हम दौड़ते ही चले जा रहे हैं। पुड्डुचेरी की घटना वाकई आंखें खोलने वाली है। इसे केवल एक बच्चे की हत्या का मामला समझकर छोड़ देना गलती होगी। यह एक सामाजिक और मानसिक समस्या है। आखिर एक मां ने किस मानसिकता से ग्रसित होकर बेटे के सहपाठी की हत्या का षड्यंत्र रचा। इस दृष्टिकोण में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।

केवल हत्या के मामले में एक विक्टोरिया को सजा दे देने से इस समस्या का हल नहीं निकलेगा। जरूरत ऐसा वातावरण बनाने की है, जिसमें गलाकाट कंपटीशन और मार्क्स की अंधी दौड़ ना हो। केवल कुछ मार्क्स ऊपर-नीचे आने से जीवन प्रभावित नहीं हो जाता है। यदि यही बात विक्टोरिया ने समझी होती तो आज 13 साल का मणिकंदन जिंदा होता। समाज इस विषय पर मिलकर सोचे। बच्चों को बच्चा रहने दें, उन्हें और खुद को प्रेशर कुकर ना बनाएं।
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सोर्स: अमर उजाला

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