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- लक्षित आतंक
Written by जनसत्ता: पिछले दिनों गृहमंत्री जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गए तो उन्होंने दावा किया कि आतंकी संगठनों को समूल नष्ट किया जाएगा। निस्संदेह उससे सुरक्षबलों का हौसला कुछ बढ़ा होगा। मगर ऐसा आतंकी संगठनों के मनोबल पर कोई खास असर नजर नहीं आ रहा। एक दिन पहले शोपियां में हथगोला फेंक कर दो प्रवासी मजदूरों की हत्या कर दी गई।
उससे पहले एक कश्मीरी पंडित को निशाना बना कर मार डाला गया। पिछले कुछ महीनों से कश्मीरी पंडितों और किसी अन्य राज्य से वहां जाकर रह रहे लोगों को निशाना बना कर मारा जा रहा है। इससे आम लोगों के बीच दहशत का माहौल है और कश्मीर पंडित करीब डेढ़ महीने से धरने पर भी बैठे हुए हैं कि उन्हें कश्मीर से बाहर सुरक्षित स्थानों पर चले जाने दिया जाए। मगर सरकार ने उन्हें वहीं रोक रखा है। दरअसल, कश्मीरी पंडितों के घाटी में पुनर्वास की मंशा से उन्हें नौकरियां दी गर्इं, उनके मुहल्ले आबाद किए गए, मगर जैसी सुरक्षा उन्हें मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पाई।
इसलिए आतंकी उन्हें आसानी से निशाना बनाते रहे हैं। हत्या की ताजा घटनाओं के बाद एक बार फिर कश्मीरी पंडितों ने घाटी से बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर बसने की मांग दोहराई। कश्मीरी प्रवासी पंडित संगठनों की ओर से घाटी में आतंकवादियों द्वारा लक्षित हत्याओं पर चिंता जाहिर करते हुए जमीनी स्थिति का आकलन करने के लिए एक तथ्यान्वेषण प्रतिनिधिमंडल भेजे जाने का प्रस्ताव किया गया।
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होनी है। सरकार चाहती थी कि चुनाव से पहले घाटी में अमन का माहौल बने, मगर स्थितियां जटिल होती जा रही हैं। तमाम तैयारियों और चौकसी के बावजूद आतंकी हमलों में कमी नहीं आ रही। पिछले आठ-नौ सालों से घाटी में सघन तलाशी अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें घर-घर जाकर सशस्त्र बल तलाशी लेते और आतंकियों की पहचान करते रहे हैं।
सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर कड़ी नजर रखी जा रही है। अलगाववादी संगठनों और आतंकियों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों पर शिकंजा कसा जा रहा है, संदिग्ध बैंक खाते बंद कर दिए गए हैं। सड़क के रास्ते पाकिस्तान से होने वाली तिजारत बंद है, जिससे आतंकियों को चोरी-छिपे हथियार पहुंचाने की कोशिशों पर लगाम लगी है। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटने के बाद करीब डेढ़ साल तक घाटी में कर्फ्यू लगा रहा, संचार सेवाएं बंद रहीं।
तब दावा किया गया कि घाटी में आतंकवादियों की कमर टूट चुकी है। आतंकवाद में कमी के आंकड़े जारी कर संतोष भी प्रकट किया गया। मगर घाटी से कर्फ्यू हटते ही आंकड़े आए कि जिन दिनों कश्मीर बंद था, उस वक्त भी आतंकवादी संगठनों में नए सदस्यों की भर्ती होती रही।
दरअसल, कश्मीर में आतंकी घटनाएं रुकने का नाम इसलिए नहीं ले रही हैं कि सरकार उसे सिर्फ बंदूक के बल पर रोकने का प्रयास कर रही है। हैरानी की बात नहीं कि जब-जब सख्ती के आदेश दिए गए हैं, तब-तब आतंकी घटनाएं बढ़ जाती हैं। घात लगा कर सुरक्षाबलों के काफिले पर हमला, सैन्य शिविरों में घुसपैठ, बाहरी लोगों या प्रवासी मजदूरों को निशाना बना कर मारने, कश्मीरी पंडितों में भय पैदा करने जैसी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है।
हकीकत यही है कि आतंकवाद समाप्त करने के सरकार चाहे दावे जितने करे, पर इस समस्या से पार पाने में उसकी रणनीतियां कारगर साबित नहीं हो पा रहीं। इसलिए अगर सरकार सचमुच घाटी के लोगों का जीवन सुरक्षित करना और वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करना चाहती है, तो उसे दूसरे उपायों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।