सम्पादकीय

आसानी से नहीं झुकेगा तालिबान, आर्थिक संकट के बावजूद विचारधारा से समझौता करने को नहीं तैयार

Tara Tandi
7 Sep 2021 3:13 AM GMT
आसानी से नहीं झुकेगा तालिबान, आर्थिक संकट के बावजूद विचारधारा से समझौता करने को नहीं तैयार
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अफगानिस्तान में गहन आर्थिक संकट के बावजूद इसमें संदेह है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| शशांक पांडेय | अफगानिस्तान में गहन आर्थिक संकट के बावजूद इसमें संदेह है कि तालिबान नेता अपनी कट्टर विचारधारा का परित्याग करेंगे। ऐसे तमाम आर्थिक संकट के बावजूद तालिबान के घुटने टेक देने के कोई आसार फिलहाल नहीं दिख रहे हैं।

भरत झुनझुनवाला। बीते बीस वर्षो में अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह पश्चिमी मदद पर आश्रित हो गई थी। सरकार के बजट की 75 प्रतिशत रकम विदेशी मदद से मिल रही थी। तालिबान के कब्जे के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, अमेरिकी सरकार और अन्य पश्चिमी देशों द्वारा अफगानिस्तान को आर्थिक मदद न देने से अफगानिस्तान निश्चित ही घोर आर्थिक संकट में घिरेगा। अफगानिस्तान के पास विकल्प भी नहीं दिखते हैं। विश्व में अफीम का 80 प्रतिशत उत्पादन अफगानिस्तान में होता है, लेकिन अनुमान है कि इससे तालिबान को मात्र 30 करोड़ डालर सालाना ही प्राप्त होते थे। तालिबान को इससे अधिक आय वैध व्यापार पर अवैध टैक्स वसूलने से होती थी।

भारत के साथ विदेश व्यापार प्रतिबंधित करने से भी अफगानिस्तान की आर्थिक समस्याएं बढ़ेंगी। भारत अफगानिस्तान के माल का तीसरा सबसे बड़ा खरीदार रहा है। अफगानिस्तानी फल, ड्राई फ्रूट और खनिज निर्यातकों की दिक्कतें बढ़ेंगी। अफगानिस्तान के पास कथित रूप से एक लाख करोड़ रुपये के खनिज संसाधन हैं। यदि उनके व्यापार से अफगानिस्तान को आय हो सकती थी तो बीते 20 वर्षो में उनके खनन में व्यापक वृद्धि हुई होती। खनन में वृद्धि का न होना यही बताता है कि उनके वाणिज्यिक उपयोग में अवरोध हैं।

उदाहरण के लिए चीन द्वारा 2007 में तांबे की खदान का अनुबंध किया गया था, जिससे आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो सका है। अफगानिस्तान चारों तरफ से घिरा हुआ है। घरेलू अर्थव्यवस्था खोखली हो गई है। विदेशी मदद बंद हो चुकी है। अफीम का व्यापार सीमित है, विदेश व्यापार प्रतिबंधित है और खनिज पदार्थो का दोहन कठिन है। ऐसे में अफगानिस्तान में महंगाई का बढ़ना तय है। वहां से पूंजी का पलायन होगा और आम अफगान के लिए हालात लगातार खराब होते जाएंगे।

तमाम आर्थिक संकट के बावजूद तालिबान के घुटने टेक देने के कोई आसार नहीं दिखते। हमारे सामने सीरिया, ईरान, उत्तर कोरिया, क्यूबा और वेनेजुएला के उदाहरण मौजूद हैं, जहां आर्थिक संकट के बावजूद लोगों ने कष्ट सहे, लेकिन घुटने नहीं टेके। इसलिए हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि आर्थिक संकट के कारण तालिबान अपनी विचारधारा से समझौता करने को तैयार हो जाएगा। विशेषकर इसलिए कि तालिबान धार्मिक उद्देश्यों से प्रेरित संगठन है। 2013 में अमेरिका के फारेन पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन के अनुसार तालिबानी अपने मजहब की रक्षा के लिए मरने को तैयार हैं। वे वर्षो से लेकर दशकों तक युद्ध करने को संकल्पित हैं। 2014 के यूनाइटेड स्टेट्स इंस्टीट्यूट आफ पीस के अध्ययन के अनुसार तालिबान के कुछ प्रमुख मुद्दे सैन्य ताकत, जिहाद और अफगानिस्तान में इस्लामिक एमिरेट को स्थापित करना है।

अपनी रणनीति बनाने के लिए हमें सामरिक दृष्टि से तालिबान की स्थिति को पाकिस्तान, ईरान, चीन और अमेरिका के दायरे में समझना होगा। तालिबान का पाकिस्तान से घनिष्ठ संबंध जगजाहिर है। पाकिस्तान की तरह तालिबान का एक उद्देश्य कश्मीर में दखल देना है। इसलिए पाकिस्तान हमारे विरुद्ध और तालिबान के साथ ही खड़ा रहेगा। ईरान की स्थिति भिन्न है। अफगानिस्तान मूल रूप से सुन्नी बहुल देश है। यहां शिया समुदाय की संख्या लगभग 20 प्रतिशत है। शियों पर लगातार अत्याचार किए जाते रहे हैं। ईरान शिया बहुल देश है। इसलिए ईरान का स्वाभाविक झुकाव तालिबान के विरुद्ध होगा। वह अपने अल्पसंख्यक शिया समुदाय की रक्षा करना चाहेगा। चीन के सामने दो परस्पर विरोधी उद्देश्य हैं। एक तरफ अफगानिस्तान को वह अपने बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम में जोड़ना चाहेगा, जिससे वह अफगानिस्तान के खनिजों का दोहन कर सके। दूसरी तरफ उसे शिनजियांग क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय में कट्टर विचारधारा के प्रसार पर भी नियंत्रण करना है।

इसलिए चीन चाहेगा कि अफगानिस्तान के साथ आर्थिक संबंध बनाए, लेकिन संभवत: वह गहरा संबंध नहीं बनाना चाहेगा। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को तालिबान नैतिक रूप से भ्रष्ट और अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। चूंकि भारत के अमेरिका से घनिष्ठ संबंध है इसलिए भारत स्वत: तालिबान का दुश्मन बन जाता है। अमेरिका की आर्थिक ताकत विफल है। मौजूदा परिस्थिति में अमेरिका के साथ जुड़कर भी हमें लाभ नहीं मिलने वाला। वैसे भी अमेरिका का आíथक सूर्यास्त हो ही रहा है, जबकि चीन का आíथक सूर्योदय हो रहा है। तालिबान न तो आíथक संकट से टूटेगा और न ही अमेरिकी दबाव में आएगा। इस स्थिति में भारत को अमेरिका से हटकर ईरान के साथ मिलकर तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन को घेरने का प्रयास करना चाहिए। ईरान हमारे साथ हमारा सहयोग कर सकता है, क्योंकि उसे अफगानिस्तान में अपने शिया समुदाय की रक्षा करनी है। वहीं चीन को भी इस्लामिक कट्टरता से मुकाबला करना है।

हमारे सामने पहला विकल्प है कि अमेरिका के साथ सहयोग कर तालिबान की दुश्मनी मोल लें। इससे हम ईरान और चीन दोनों को ही कुपित करेंगे। तब हमारे सामने तालिबान-पाकिस्तान-ईरान-चीन की चौकड़ी दिखेगी। चीन यदि तालिबान को आर्थिक सहायता देगा तो हमें तालिबान का सामना करने में और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अत: हमें दूसरे विकल्प पर विचार करना चाहिए। ऐसे में हमें अमेरिका के गठबंधन से अलग होकर ईरान और चीन के साथ समन्वय कर तालिबान-पाकिस्तान के विरोध में ईरान-चीन-भारत की तिकड़ी बनाने का प्रयास करना चाहिए।

हमें इससे आगे भी सोचना है। विषय आर्थिक अथवा सैन्य स्तर पर समाप्त होता नहीं दिख रहा। विषय हिंदू बनाम इस्लाम से जुड़ा हुआ है। यदि भारत को विश्वगुरु की भूमिका निभानी है तो ईसाई और इस्लाम मतों के साथ संवाद करना होगा। साझा समझ बनानी होगी। हमें एक तरफ ईरान और चीन के साथ सामरिक गठबंधन बनाना होगा और दूसरी तरफ इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच संवाद स्थापित करना होगा। तभी हम इस मसले का सही समाधान निकाल सकेंगे। अमेरिका द्वारा तालिबान पर प्रतिबंध लगाकर आर्थिक दबाव बनाने की रणनीति के साथ खड़े होकर हम स्वयं को और गहरे संकट में डालेंगे।

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