सम्पादकीय

सोशल मीडिया में तालिबानी दहशत

Rani Sahu
30 Aug 2021 6:38 PM GMT
सोशल मीडिया में तालिबानी दहशत
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अफगानिस्तान में पश्चिमी देशों का ‘ऑपरेशन रेस्क्यू’ अभी कुछ दिन और चलेगा। सबकी प्राथमिकता में अपने देश के लोग हैं

हरजिंदर। अफगानिस्तान में पश्चिमी देशों का 'ऑपरेशन रेस्क्यू' अभी कुछ दिन और चलेगा। सबकी प्राथमिकता में अपने देश के लोग हैं। कुछ अफगानी नागरिक भी हो सकता है, उनके साथ ही अपने को बचाने में कामयाब हो जाएं, लेकिन बाकी उन लोगों के जीवन पर तालिबानी खतरा न जाने कब तक मंडराता रहेगा, जो पिछले 20 वर्षों में दुनिया की आधुनिकता और मुख्यधारा से जुड़ गए थे। अमेरिका और पश्चिमी देशों के पास न तो ऐसे लोगों को बचाने की कोई सोच व रणनीति ही दिख रही है, न ही कोई चिंता। लेकिन सोशल मीडिया का कारोबार करने वाली कंपनियां अपने तरह से जरूर सक्रिय दिख रही हैं। यानी वे कंपनियां जिनके कंधों पर चढ़कर अफगानिस्तान की पूरी एक पीढ़ी आसमान छूने की कोशिश कर रही थी।

फेसबुक ने यह प्रावधान किया है कि अफगानिस्तान में अब इस प्लेटफॉर्म पर आने वालों को किसी की भी फ्रेंड लिस्ट नहीं दिखाई देगी। इससे यह पता नहीं चल सकेगा कि कौन किसके संपर्क में था, वह किसे पसंद-नापसंद कर रहा था, यह वह कैसी टिप्पणियां कर रहा था। इसके साथ ही फेसबुक ने एक टूल भी जारी किया है, जिसके जरिए लोग अपने एकाउंट को लॉकडाउन कर सकेंगे। यानी फिर कोई नहीं जान सकेगा कि उन्होंने कब क्या कहा और अब कब क्या किया। उनकी तस्वीरों और उनकी पिछली गतिविधियों तक किसी की भी पहुंच अब संभव नहीं रह जाएगी।
इंस्टाग्राम में भी यही सारी सुविधाएं दी जा रही हैं, लेकिन कुछ अलग ढंग से। कोई भी अफगान नागरिक अब अगर इंस्टाग्राम पर जाता है, तो उसे एक पॉप-अप मिलेगा, जिसमें यह बताया गया है कि अपने एकाउंट की और उस पर की गई अपनी गतिविधियों की रक्षा कैसे की जाए।
एक और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इन दिनों युवा वर्ग के बीच खासा लोकप्रिय हो रहा है - क्लबहाउस। यह एक ऑडियो प्लेटफॉर्म है, जो पिछले कुछ महीने से सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोर रहा है। क्लबहाउस ने अफगानिस्तान के लोगों की निजी जानकारी अपने एप से हटा दी है। अब न वहां उनकी तस्वीरें हैं और न कोई ऐसी जानकारी, जिससे उनके बारे में सुराग लगाया जा सके। क्लबहाउस ने जैसे ही यह देखा कि अफगानिस्तान के उपयोगकर्ता वहां से अपनी तस्वीरें और जानकारी हटा रहे हैं, उसने लोगों की सुरक्षा के लिए खुद ही इसे करने का फैसला किया।
पश्चिमी देशों की सरकारें जिस समय अपने देशों के लोगों को अफगानिस्तान से निकालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, सोशल मीडिया के काम में लगी कंपनियां उन अफगान नागरिकों को बचाने में लगी हैं, जो फिलहाल वहां से नहीं निकल सकते।
यह भी मुमकिन है कि आशंकाओं को देखते हुए अफगान नागरिक अब सोशल मीडिया के जरिये लोगों से संपर्क करना ही छोड़ दें। लेकिन इस बीच वहां एक स्थानीय मोबाइल एप का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है, जो लोगों को गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले की खबरें देने की कोशिश कर रहा है। इस एप का नाम है एहतेसाब, यानी जिम्मेदारी। यह एप लोगों को बताता है कि इस समय कहां पर कैसा खतरा है, कहां बम फटा है, कहां गोली चली है, कहां आग लगी है और कहां पर बिजली गायब है। यह ट्रैफिक जाम जैसी सूचनाएं भी दे रहा है। इस एप के पास सूचनाएं देने का अपना कोई तंत्र नहीं है। इसके उपयोगकर्ता ही ये सारी सूचनाएं एप पर डालते हैं, यानी वह व्यवस्था है, जिसे आज के समय में क्राउड सोर्सिंग कहा जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से इस एप पर तालिबान जैसे शब्दों का इस्तेमाल वर्जित कर दिया गया है। पिछले साल मार्च में कोविड महामारी के आगमन के समय ही शुरू हुआ यह एप इस समय कहां से चलाया जा रहा है, इसकी जानकारी फिलहाल गोपनीय रखी गई है। इसे वहेदी नाम की एक महिला ने शुरू किया था, वह इस समय कहां हैं, यह भी कोई नहीं जानता।
लेकिन ऐसे एप भी तभी तक काम कर पाएंगे, जब तक तालिबान मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट पर लगाम कसना नहीं शुरू करते। वैसे अफगानिस्तान में तालिबान के पिछले दौर और इस दौर के बीच बड़ा फर्क यह है कि उस समय आम लोगों के लिए न इंटरनेट उपलब्ध था और न मोबाइल नेटवर्क। इस समय ये दोनों उपलब्ध हैं और खुद तालिबान भी इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। पिछले दिनों तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के बाद वहां के राष्ट्रपति भवन से जो पहली तस्वीरें आईं, उनमें से एक तस्वीर में बड़ी सी मेज पर हथियारबंद तालिबान बैठे हुए हैं और बंदूक टांगे एक युवा तालिबान अपने स्मार्टफोन से उनकी तस्वीर ले रहा है।
पिछले 21 साल में अफगानिस्तान में एक ऐसी पीढ़ी जवान हो चुकी है, जिसने इस तरह की सुविधाओं के बीच जीना और उन निर्भर रहना सीख लिया है। उसे आजादी का अर्थ भी मालूम है और उसका महत्व भी। तालिबान की पाबंदियों के बीच इस पीढ़ी की प्रतिक्रिया क्या और कैसी होगी, अफगानिस्तान का भविष्य आने वाले समय में इसी पर निर्भर करेगा।
लेकिन ठीक यहीं पर हमें बहुत सारी सीमाओं को भी समझ लेना चाहिए। अफगानिस्तान की आबादी इस समय 32 करोड़ है, जबकि वहां मोबाइल फोन कनेक्शन की संख्या महज तीन करोड़ बीस लाख ही है। यानी आबादी का सिर्फ दस फीसदी। इसमें भी कितने स्मार्टफोन हैं, यह हम नहीं जानते। इसकी तुलना अगर हम भारत से करें, तो हमारे यहां जितनी वयस्क आबादी है, मोबाइल फोन की संख्या उससे कहीं ज्यादा है। अफगानिस्तान में मोबाइल फोन की पहुंच अफ्रीका के बहुत से गरीब देशों से भी बहुत कम है। कंप्यूटर और इंटरनेट सेवा से युक्त घरों की संख्या तो शायद और भी कम हो।
ये आंकड़े अफगानिस्तान के बारे में कुछ और भी बताते हैं। पिछले दो दशक में वहां दुनिया के तमाम देशों ने भले ही बहुत तरह की कोशिशें की हों, लेकिन कोई बहुत बड़ा मध्यवर्ग वहां विकसित नहीं हो सका है। वह वर्ग जिसके हित आधुनिकता और आजादी से कुछ ज्यादा ही जुड़े होते हैं। यही वर्ग कई बदलावों का आधार भी तैयार करता है। वहां जो मध्य वर्ग अभी है, फिलहाल तो उसकी प्राथमिकता तालिबान के अत्याचारों से किसी तरह अपनी रक्षा करना है।


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