सम्पादकीय

हिंदुस्तान में भी तालिबान

Rani Sahu
1 Sep 2021 7:25 PM GMT
हिंदुस्तान में भी तालिबान
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तालिबान की प्रतिध्वनियां भारत में भी गूंजने लगी हैं। कुछ मौलाना शरिया कानून को संविधान से भी महत्त्वपूर्ण मानने का दुस्साहस कर रहे हैं

तालिबान की प्रतिध्वनियां भारत में भी गूंजने लगी हैं। कुछ मौलाना शरिया कानून को संविधान से भी महत्त्वपूर्ण मानने का दुस्साहस कर रहे हैं और अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी का प्रलाप भी कर रहे हैं। यकीनन यह बेहद संवेदनशील स्थिति है। अलबत्ता भारत में संविधान और लोकतंत्र की हुकूमत तय है। मुसलमानों के संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सदर अरशद मदनी ने फरमान जारी किया है कि लड़कियां और लड़के अलग-अलग स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई करें। सह-शिक्षा किसी भी स्तर पर न हो और पुरुष अध्यापक भी लड़कियों को न पढ़ाएं। जमीयत के सचिव गुलज़ार आज़मी ने आग और लकड़ी से तुलना करते हुए व्याख्या दी है कि 12 साल की उम्र से ज्यादा के लड़के-लड़कियों के दरमियान 'शैतानÓ आकर बैठ जाता है। जमीयत मौलानाओं ने अनैतिकता और अश्लीलता से जोड़ते हुए सह-शिक्षा को खारिज किया है। इस्लाम और कुरान की आड़ में ये दलीलें भी दी गई हैं कि मर्दों के लिए क्या जायज है और औरतों के लिए क्या नाजायज है? संविधान में ऐसा कोई फासला या फर्क नहीं किया गया है। मर्द और औरत के समान अधिकार और सामाजिक दर्जा हैं। यह फरमान कितना संवैधानिक और कानूनी है, यह सवाल भिन्न है, क्योंकि हमारी अदालतें ऐसे फरमानों और फतवों को 'अवैध करार दे चुकी हैं, लेकिन चिंता और सरोकार हिंदुस्तान में भी 'तालिबानी सोच के मद्देनजर है।

जमीयत और देवबंद की व्यापकता और स्वीकृति कई देशों तक है। हालांकि अब अरब और इस्लामी देशों में भी सह-शिक्षा का चलन है। लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते और काम करते हैं। कुछ संकीर्णताएं हो सकती हैं, लेकिन तालिबान की तरह तमाम पाबंदियां औरतों पर ही नहीं हैं। ऐसी व्यवस्था ही इस्लाम-विरोधी है। अफगान तालिबान के ताल्लुक भी इन संस्थानों के मदरसों से रहे हैं। वे ही कट्टरपंथी और जाहिल सोच की नस्ल के अड्डे रहे हैं। हालिया दौर में तालिबान एक वैश्विक चिंता और आतंक के तौर पर सामने है, लिहाजा हिंदुस्तान में ऐसी सोच की भत्र्सना ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि संविधान के तहत आरोपित मौलानाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी जरूरी है। भारत एक लोकतांत्रिक और लैंगिक समानता का देश है। जीवन की मुख्यधारा में, ज़मीन से अंतरिक्ष तक, महिला-पुरुष साथ-साथ कार्यरत हैं। बीते कल ही सर्वोच्च न्यायालय में तीन महिला न्यायाधीशों ने शपथ ग्रहण की है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद से लेकर निचले सदन पंचायत तक दोनों ही लिंग साथ-साथ दायित्व निभा रहे हैं। क्या अब जमीयत ऐसे हिंदुस्तान में सभी लैंगिक समीकरणों को बिगाड़ कर नई, तालिबानी संस्कृति स्थापित करना चाहता है? क्या आम दफ्तर से लेकर संसद तक में अब पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग बिठाया जाए? लड़का-लड़की साथ में पढ़ेंगे और काम करेंगे, तो क्या गैर-मुस्लिम जमातें 'लव जेहाद करेंगी? ये तमाम जाहिल दिमाग के तर्क हैं।
दरअसल मंसूबे और मकसद खतरनाक और असामाजिक हैं, लिहाजा यह फरमान भी एक किस्म का 'देशद्रोह है। संभव है कि मौलाना और मौलवियों की जमात, कट्टरपंथी लोगों के सहयोग से, मुसलमानों में इस नई संस्कृति को जबरन लागू करने की कोशिश करे! वह भी संविधान के खिलाफ होगा, लिहाजा देश-विरोधी करार दिया जाना चाहिए। आस्थाओं पर कोई सवाल या बंदिश नहीं है, लेकिन हिंदुस्तान में शरिया नहीं, संविधान का कानून हमेशा चलेगा। इस्लाम में क्या निहित है, कुरान में क्या लिखा है, औरत के लिए परदा लाजिमी है, इन स्थापनाओं का हमें पर्याप्त ज्ञान नहीं है, लेकिन इतना ज्ञान सार्वजनिक है कि कुरान और इस्लाम औरत के हुकूक की पैरोकारी जरूर करते हैं। मौलाना उन्हें भी लागू करने के फरमान जारी क्यों नहीं करते? क्योंकि उनके लिए औरत सिर्फ एक देह है, वस्तु है और बच्चे पैदा करने की मशीन है। हैरत होती है कि यह फरमान उप्र से जारी किया गया है, जहां कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन कांग्रेस, सपा, एमआईएम और एनसीपी सरीखी कथित धर्मनिरपेक्ष और मुस्लिमवादी पार्टियां खामोश हैं! यह है तुष्टिकरण का सबसे जीवंत उदाहरण…! फरमान देने की मानसिकता विकृत और दकियानूसी है, लिहाजा इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी मान कर छोड़ न दिया जाए। साजि़शें और तालिबान ऐसी ही सोच की कोख से पैदा होते हैं और एक हद के बाद उन्हें काबू करना असंभव हो जाता है। इस मामले में कार्रवाई करना जरूरी है ताकि संविधान की सर्वोच्चता को कायम रखा जा सके। भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है तथा अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है।

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