सम्पादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान: युद्ध हो या विस्थापन, महिलाएं सबसे बड़ी कीमत चुकाती आ रही हैं..!

Gulabi
24 Aug 2021 5:13 PM GMT
अफगानिस्तान में तालिबान: युद्ध हो या विस्थापन, महिलाएं सबसे बड़ी कीमत चुकाती आ रही हैं..!
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तालिबानियों के झुंड में भी आपको ढेर सारे 10-17 साल तक के टीनएजर्स दिखाई देंगे, जो हाथों में बंदूक थामे गोलियां दागते हैं

उसके सपनों में कभी भी,

बन्दूकें नहीं थीं।
फूल नहीं थे ढेर सारे लेकिन, खुशहाल फसलें थीं।
वह अपने छोटे से घर के और,
शौहर के सपने देखा करती थी।

कोख से उगने वाले,
फूलों को सेती रहती थी।

ज़िन्दगी की डायरी में सुख दुख के,
अफसाने लिक्खा करती थी।
फिर हवा चली कुछ ऐसी,
आसमान खून हो गया।
ज़मीन लगी कांपने,
फना सुकून हो गया।
कुचले गए सपने,
वहशी पैरों के नीचे।
गुलदस्ते उसकी हंसियों के,
थरथरा कर ढह गए।
आसमान से होड़ लगाते पैर उसके,
कटकर रह गए।

अब सिर्फ ठूंठ बाकी है,
जिसमें से घाव रिसते हैं।
सपने उसकी अधखुली आँखों में अब भी,
जुगनू बनकर चमकते हैं।
है इंतज़ार में वो औरत कि,

एक दिन सपनों को सच कर पाएगी।
सदियों तक उसकी सिसकियों से,
क्रांति की तहरीरें लिक्खी जाएंगी

तालिबानियों के झुंड में भी आपको ढेर सारे 10-17 साल तक के टीनएजर्स दिखाई देंगे, जो हाथों में बंदूक थामे गोलियां दागते हैं। बच्चे अगर लड़कियां हैं तो मर कर मुक्ति पा जाने का भी विकल्प खोजती हैं। उन्हें झुंड द्वारा हर तरह से रौंदे जाने के बाद या तो मार दिया जाएगा या बाज़ार में बेच दिया जाएगा, और औरतों का हश्र भी यही होगा।
हर दरवाजा बंद, दूर-दूर तक मदद नहीं
तालिबानी समूह कट्टरपंथ का चरम हैं। उनकी नज़रों में औरतें केवल पाबंदियों की बेड़ियों में बंधी मजदूर हैं जिनका अपना कोई वजूद नहीं होता। जिनको न पढ़ने की छूट होनी चाहिए, न अपनी मर्जी से बोलने की, न ही अपनी मर्जी से जीने की। उनकी तकदीर तय करने की इजाजत दूसरों को होती है।

अफगानिस्तान में जो कुछ चल रहा है वो एक दिन के तूफान के बाद का गुबार नहीं है। मुश्किल यह है कि एक पूरे देश के उन लोगों का भविष्य कट्टरपंथियों के हाथों में आ गया है, जो सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे।
खतेरा की दर्दनाक कहानी
पिछले दिनों सुर्खियों में रही खतेरा की कहानी तो आपने सुनी ही होगी। इस युवती के इंटरव्यू ने तालिबानियों की दरिंदगी की रोंगटे खड़े कर देने वाली तस्वीर दुनिया के सामने ला दी थी।
अफगान पुलिस में काम करने वाली इस युवती को पिछले साल तालिबानी लड़ाकों ने घेर लिया और उसका आईडी चैक करने के बाद उस पर 8 गोलियां दागीं। इतना करने पर भी वे नहीं रुके उसके बाद उन्होंने उसपर चाकू से कई वार किए और चाकू से ही उसकी आंखें निकाल कर उसे सड़क पर मरने के लिए छोड़ गए।

इसे खतेरा की अच्छी किस्मत कहिए या औरत होने की उसकी मजबूती, वो बच गई और फिर इलाज के लिए भारत आ पाई। फिलहाल उसने यहीं शरण ले रखी है।

खतेरा ने बताया था कि तालिबानी लड़ाके केवल औरतों को बेइज्जत करके मारते ही नहीं,बल्कि उनके शरीरों को अपने कुत्तों का पेट भरने के लिए उनके सामने फेंक देते हैं। खतेरा इलाज के लिए भारत आ पाई क्योंकि उसके पास थोड़ा बहुत पैसा था लेकिन वो औरतें जो इतनी खुशकिस्मत नहीं हैं उनके लिए अब अफगानिस्तान नरक से भी बदतर जगह है।

शर्तें लागू हैं और जिंदगी बदहाल है
बहरहाल, शायद दुनिया भर में अपनी छवि के प्रचार को देखते हुए तालिबानियों ने इस बात का प्रॉमिस तो किया है कि महिलाओं को उनके अधिकार दिए जाएंगे। लेकिन इसमें भी शर्तें लागू हैं।

पहली बात तो ये कि महिलाओं को ये अधिकार शरिया कानून के अंतर्गत ही मिलेंगें। शरिया कानून इस्लाम के कानून हैं जिनको हटाने को लेकर पहले भी बकायदा बहसें होती रही हैं। भारत में भी हुई हैं। ऊपर से तालिबानियों ने शरिया की अपनी अलग परिभाषाएं बना रखी हैं। यानी एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।

इसका एक उदाहरण समझिए-
नए अफगानिस्तान में औरतों को बाज़ार जाने की छूट तो होगी लेकिन बिना हिजाब वे घर से बाहर नहीं निकल सकेंगी और उनके साथ एक 'मर्द' का होना जरूरी होगा, चाहे वह मर्द 6 साल का बच्चा ही क्यों न हो।

इस एक उदाहरण से ही स्पष्ट है कि वहां आने वाले दिनों में औरतों की स्थिति क्या होने वाली है। फिलहाल तो जो औरतें अफगानिस्तान से बाहर हैं वे अपने बचे होने का जश्न मना रही हैं और जो औरतें पीछे छूट गई हैं वो दुनियाभर की तरफ हसरत भरी नजर से देख रही हैं। शायद किसी मानवाधिकार की नजरे इनायत कभी उनकी तरफ भी हो जाए।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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