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तालिबान के नाम से कुख्यात आतंक के इस नए संस्करण के हाथों 2001 में अफगानिस्तान में बामियान के बुद्ध की डेढ़ हजार साल पुरानी मूर्तियों को बारूद से उड़ते हुए दुनिया ने देखा था
विजय मनोहर तिवारी। तालिबान के नाम से कुख्यात आतंक के इस नए संस्करण के हाथों 2001 में अफगानिस्तान में बामियान के बुद्ध की डेढ़ हजार साल पुरानी मूर्तियों को बारूद से उड़ते हुए दुनिया ने देखा था। 1996 में जब इस हिंसक समूह के आतंकियों ने काबुल पर कब्जा जमाया तब भारत में मोबाइल फोन नहीं थे। चौबीस घंटे के सैटेलाइट न्यूज चैनल नहीं थे। इंटरनेट नहीं था। गूगल, फेसबुक, व्हाट्सएप, मैसेंजर, इंस्टाग्राम वगैरह भी नहीं थे। सिर्फ अखबार थे। जो बच्चे उस समय पैदा हुए होंगे, वे अब सोशल मीडिया के सारे साधनों से लैस यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी कर चुके युवा हैं, जो अपनी पसंद-नापसंद को लेकर कहीं अधिक गहरा आग्रह रखते हैं।
वे रियल टाइम अपडेट चौबीस घंटे ले रहे हैं और उनकी पहले से बेहतर दुनिया भर में कनेक्टिविटी है। तालिबान की दूसरी आमद को वे पिछले संदर्भ के साथ अपनी आंखों से देख रहे हैं। ये वो पीढ़ी है, जिसे भारत का असल इतिहास पढ़ने के लिए किसी फरेबी पाठ्यक्रम की डिग्री नहीं चाहिए। नए संचार माध्यमों पर इतिहास की हर हकीकत दर्ज है।
बामियान में गौतम बुद्ध की डेढ़ सौ फीट ऊंची तीन विशाल पर्वतीय प्रतिमाएं चौथी और पांचवी सदी में बनाई गई थीं। इतने बड़े प्रोजेक्ट्स बिना बौद्ध आबादी के संभव नहीं थे। तब का अफगानिस्तान पूरी तरह बौद्ध धर्म के रंग में रंगा हुआ था, जहां बौद्ध मठों और शिक्षा संस्थानों का तगड़ा नेटवर्क सदियों तक कायम रहा था। यह इस्लाम के चरण कमल पड़ने के पहले की बात है। इस्लामी हमलों ने बौद्धों का सफाया कर दिया, यह आज के बेमेल नारेबाजी में लगे दिशा भ्रष्ट समूहों के संज्ञान में होना चाहिए।
तालिबान ने बीस साल पहले बुद्ध की हत्या बामियान में दूसरी बार आधुनिक विश्व के सामने की थी। अखंड भारत के इतिहास में सिल्क रूट पर बसे इस समृद्ध इलाके से पहली बार बौद्धों का सफाया करने वाले बाहरी हमलावर थे और वे भी इस्लाम के हिंसक अनुयायी थे। वे भी इन्हीं की शक्लों के थे। उनके दिमागों में एक ही दर्शन प्रवाहित है।
प्राचीन गांधार की धर्मांतरित बौद्ध आबादी अपनी नई पहचान के साथ 13 सौ साल बाद वही पाप दोहराती देखी जा रही है। वे अब महान शांतिप्रिय बौद्ध पूर्वजों के वंशज नहीं हैं, जिन्होंने अपनी आस्था और पुरुषार्थ से बामियान में बुद्ध को अपनी आंखों के सामने विराट रूप में उतार दिया था। उनमें खून वही है, लेकिन अब यह एक कठोर सत्य है कि वे पूरी तरह हिंसक और आत्मघाती आतंकवादी हैं। उन्हें अपनी इस नई पहचान पर फख्र है। वे मानते हैं कि दुनिया में यही दर्शन अंतिम सत्य है।
काबुल और कंधार में उत्पात मचाने वाले और देश और दुनिया के बाकी हिस्सों में उनका समर्थन करने वालों के भीतर एक ही सॉफ्टवेयर धंसा हुआ है। यकीनन ये खतरनाक है। यह पीढ़ियों के योगदान से सभ्य बने हुए हमारे संसार के लिए ऐतिहासिक चिंता का विषय है। इसकी सबसे लंबी और सबसे भारी कीमत भारत ने चुकाई है।
बामियान में गौतम बुद्ध की डेढ़ सौ फीट ऊंची तीन विशाल पर्वतीय प्रतिमाएं चौथी और पांचवी सदी में बनाई गई थीं। - फोटो : Pixabay
याद कीजिए इस भारत पर बाहरी आक्रमण के इतिहास को। आप कल्पना कर सकते हैं कि बख्तियार खिलजी की आग में खाक में मिलने से पहले नालंदा विश्वविद्यालय पांच सौ साल पहले से स्थापित अपने समय की दुनिया का एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान था, जिसमें दस हजार विद्यार्थी पढ़ रहे थे। विजयनगर साम्राज्य पांच सौ साल पहले की दुनिया का एक विकसित कारोबारी महानगर था, जिसे पांच बहमनी मुस्लिम शिकारियों ने लूटकर आग के हवाले कर दिया था। भारत के चप्पे-चप्पे में हमलावरों की चपेट में आए हिंदू और बौद्ध राज्यों में आग और राख की कहानियां बिखरी हुई हैं।
दरअसल, जो 9/11 में अमेरिका ने भोगा वह भारत एक हजार साल से झेलता रहा है। न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमलों और नालंदा से लेकर विजयनगर की तबाहियों में कोई फर्क नहीं है। वह एक ही लहर काम कर रही है। ये हूबहू वही चेहरे हैं, जो अभी-अभी काबुल में दिखाई दे रहे हैं। अतिरेक, कट्टरता और आतंकवाद के चेहरे।
बामियान के इलाके की आबादी के इस बदले हुए रूप में आतंकी ताकतों ने एक हजार साल खपाए हैं। शुरुआती हमलों में बौद्धों के सफाए के बाद ही आबादी ने एक नई शक्ल लेना शुरू कर दिया था। गोरी और गजनवी दो-ढाई सौ सालों में धर्मांतरित उन्हीं बौद्ध पूर्वजों के वंशज थे, जिन्होंने इस्लामी जोश से सराबोर होकर भारत पर झपट्टे मारे थे और फिर अहमद शाह अब्दाली तक यह किस्सा पीढ़ियों तक बदस्तूर जारी रहा।
इस बीच उज्बेकिस्तान से तैमूर और बाबर, ईरान से नादिर शाह की लुटेरी जाहिल और क्रूर फौजों ने भारत को छीला, वह अलग कहानियां हैं।
दरअसल भारत का इतिहास एक भीषण रूप से घायल अतीत है, जिसे 1947 में मुल्क के टुकड़ों की परिणति के रूप में देखा गया। बचे-खुचे भारत को 1990 में कश्मीर से पंडितों के पलायन के दर्दनाक दृश्य देखने पड़े। इन सत्तर सालों में पाकिस्तान ने अपनी नफरत के नमक से उसी घायल अतीत की यादें हर समय ताजा करके रखी हैं।
भारतीय मानस तालिबानों के दूसरे उभार को आतंकी और आक्रमणकारी अतीत की छाया में ही देख रहा है। - फोटो : पीटीआई
मैंने काबुल से अमेरिकी फौजों के निकलने के बाद ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप पर आम भारतीयों की ढाई-तीन हजार पोस्ट-कमेंट पढ़े हैं। यूट्यूब पर कई नामचीन लोगों को सुना है। सोशल मीडिया पर बाढ़ आई हुई है। एक बात खास है। भारतीय मानस अफगानिस्तान के मौजूदा संकट को पिछले पचास साल के संकुचित दायरे में नहीं देख रहा कि पहले सोवियत रूस ने कब्जा किया। फिर अमेरिका ने कब्जा जमा लिया। यह सारा संकट अमेरिका की देन है। वह धोखेबाज निकला। ये सारे सतही विश्लेषण वे कर रहे हैं, जो पॉलिटिकली-करेक्ट प्रवाह में अपना ज्ञान देते रहे हैं। भारतीय मानस तालिबानों के दूसरे उभार को आतंकी और आक्रमणकारी अतीत की छाया में ही देख रहा है।
वह ऐसा देखे इसकी पर्याप्त वजहें ठोस और पुख्ता हैं। इसके लिए आपका इतिहास में एम. ए. होना जरूरी नहीं है। इंटरनेट ने दुनिया के अतीत और वर्तमान के सारे दरवाजे, खिड़कियां और रोशनदान खोल दिए हैं। आज की युवा पीढ़ी इतिहास को खंगाल रही है। वह सवाल कर रही है। सबूतों के साथ उसे जवाब मिल रहे हैं। उसे साफ दिखाई दे रहा है भारत के साथ आखिर हुआ क्या था। सुनहरी परतें चढ़ा कर जिस सचाई को छुपाने की भरसक कोशिश की गई वो परतें अब उतार रही हैं।
तालिबान के रूप में दुनिया आतंक के इस चेहरे को उसी घृणा से देख रही है, जिसका कोई कारण और तर्क नहीं है। बहुत संक्षिप्त में गहरी हिंसा, अथाह असहिष्णुता और अकल्पनीय क्रूरता पर आधारित इस महादर्शन का निचोड़ यह है-"धरती पर जो भी सभ्य है, सुसंस्कृत है, समृद्ध है, विकसित है, वह हमारा दुश्मन है और हम उसके मिटने तक उसी की भूमि पर जाकर अंतहीन संघर्ष करेंगे। आतंक और नफरत की इस फितरत को समझा कर भी लंबे वक्त तक अनदेखा किया गया।
यह आग का ऐसा फैलाव है, जिसमें अभी बहुत कुछ झुलसना और खाक होना बाकी है। अच्छी बात यह है कि हम आधुनिक तकनीक के ऐसे दौर में हैं, जब अफगानिस्तान, इराक या सीरिया में हुई कोई भी ऐसी घटना उन देशों की अपनी त्रासदी नहीं होगी। अब हर नालंदा और हर विजयनगर की आग का धुआं दुनिया की हर आंख में चुभ रहा है। आग की यह लपट अब जलकर-भुनकर बरबाद हो चुके अफगानिस्तान की राख को ही अपनी चपेट में ले रही है। वहां कत्लेआम के लिए अब कोई बौद्ध मठ, मूर्तियां और नागरिक नहीं बचे। पाकिस्तान में कैसा समाज बना, यह भी देख लीजिए।
अरब, तुर्क, खिलजी, तुगलक, लोदी, मुगल, खलीफा, सुलतान, बादशाह, नवाब, निजाम, पाकिस्तान, आईएसआई, लश्कर, जैश, हिजबुल, हुर्रियत, सिमी, जमीयत, अलकायदा, इस्लामिक स्टेट जैसे अनगिनत नाम आतंक के अतीत और वर्तमान के उसी कट्टरता की अलग-अलग नामों से ब्रांडिंग और पैकेजिंग हैं। अंदर पैक वैचारिक जहर एक ही है। वे एक ही महावृक्ष की शाखें और पत्ते हैं, जिनकी जड़ें एक ही हैं। वे एक ही जलाशय से भरी गई अलग-अलग बाल्टियां हैं। भारतीय मानस उन्हें इसी रूप में देख रहा है। अगर दुनिया अब भी नहीं संभली और आटनाक की इस आग को यों ही फैलाने दिया तो ये कब आपके घर तक पहुंच जाएगी, आपको पता ही नहीं चलेगा।
(लेखक ने 25 साल प्रिंट और टीवी में बिताए हैं। सात किताबें प्रकाशित। पांच साल तक भारत भर की आठ बार लगातार यात्राएं की हैं। भारत में इस्लाम के फैलाव पर उनकी आठवीं किताब छपकर आ रही है।)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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