सम्पादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान: कभी देहरादून से गए बादशाहों ने किया था अफगानिस्तान पर राज

Gulabi
23 Aug 2021 6:14 AM GMT
अफगानिस्तान में तालिबान: कभी देहरादून से गए बादशाहों ने किया था अफगानिस्तान पर राज
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अफगानिस्तान के सत्ता संघषों की खलबली भारत तक आनी इसलिए भी स्वाभाविक है कि

जयसिंह रावत।

अफगानिस्तान के सत्ता संघषों की खलबली भारत तक आनी इसलिए भी स्वाभाविक है कि अगर उस भू-आबद्ध देश ने भारत को एक से बढ़कर एक बेरहम आक्रान्ता और मुगलों की जैसी दीर्घजीवी सल्तनत दी है तो भारत ने भी उस देश को नादिर शाह जैसा बादशाह दिया है।

यही नहीं बरक्जाई राजवंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान और उनके पौत्र याकूब खान को देहरादून ने शरण दी है, जो वापस जा कर फिर बदाशाह बने। इनसे पहले मौर्य वंश का शासन भी अफगानिस्तान तक रहा। देहरादून की विश्व विख्यात बासमती भी इन पठान शासकों की देन है। दोस्त मोहम्मद खान के वंशजों में से एक असलम खान उत्तर प्रदेश में मंत्री रह चुके हैं।
जब अफगान शाह को निर्वासित कर लाया गया मसूरी
पहले आंग्ल-अफगान युद्ध (1839-1842) के दौरान आज से ठीक 182 साल पहले अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह की मदद, जिसमें उनके जनरल हरिसिंह नलवा की असाधारण भूमिका थी, से जब अफगानिस्तान के बरक्जाई राजवंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान को हरा कर काबुल की गद्दी शाह शूजा दुर्रानी को सौंपी तो वे दोस्त मोहम्मद खान को निर्वासित कर मसूरी ले आए। जहां वह 1842 तक रहा।
दोस्त खान दो बार अफगानिस्तान का 'अमीर' (बादशाह) रहा। पहली बार वह 1826 से 1839 तक और फिर दूसरी बार 5 अप्रैल 1842 को शाह शूजा की शुजाउद्दौला द्वारा हत्या के बाद अंग्रेजों को मजबूरन उसे वापस काबुल ले जाकर पुनः गद्दी सौपनी पड़ी।
शाह शूजा अपने भाई जमन शाह को हटा कर 1803 में अफगानिस्तान का अमीर बना था, लेकिन जून् 1809 में महमूद शाह ने शाह शूजा का भी तख्ता पलट दिया और शूजा को कभी पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह की, तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी की शरण लेनी पड़ी। उसी से रणजीत सिंह ने कोहिनूर हासिल किया था।
मसूरी में निर्वासित शाह के लिए बना महल
दोस्त मोहम्मद खान को पद्च्युत कर मसूरी लाने तक यह पहाड़ी नगर अंग्रेजों की बस्ती के रूप में काफी विकसित हो चुका था। वहां चर्च, अस्पताल, होटल और क्लब आदि खुल चुके थे। मिस्टर बोहले का 'मसूरी सेमिनरी स्कूल' खुल चुका था। कैण्टोनमेंट भी स्थापित हो चुका था।
पहले सर्वेयर जनरल कर्नल एवरेस्ट का कार्याल 1832 में ही खुल चुका था। फिर भी दोस्त मोहम्मद खान कोई मामूली बंदी न होकर एक बादशाह था, इसलिए उसके लिए मसूरी में एक महल भी बनाया गया जिसे अफगानिस्तान के राजमहल की तरह 'बाला हिसार' नाम दिया गया। बाला हिसार महल की जगह अब एक पब्लिक स्कूल चलता है।
दोस्त मोहम्मद खान साथ लाया था बासमती
दोस्त मोहम्मद खान को बिरयानी का बेहद शौक था इसलिए वह निर्वासन के समय अपने साथ कुनार प्रान्त के बेहतरीन खुशबूदार चावल भी साथ लाया था, जिसे देहरादून में उगाया गया और बाद में वह चावल अपनी बेमिशाल महक के कारण बासमती कहलाया। इस बासमती की महक राजनीतिक और भौगोलिक सीमाओं को लांघ कर देहरादून का नाम रोशन करती रही है।
आज उत्तराखण्ड से निर्यात होने वाले सामान में बासमती का प्रमुख स्थान है। माना जाता है कि दोस्त मोहम्मद खान के कर्मचारी खोखले बांस के डंडे के अन्दर इस बीज को लाए थे।
मसूरी से वापस ले जाकर फिर बनाया खान को बादशाह
अफगानिस्तान में अपनी हुकूमत की बहाली पर दोस्त मोहम्मद खान ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ ही सिखों के साथ भी अच्छे संबंध रखे। उसने 1857 की गदर में विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। 9 जून 1863 को खान की अचानक मृत्यु के बाद उसका पुत्र शेर अली खान काबुल की गद्दी पर बैठा। शेर अली ने अफागानिस्तान में बराक्जाई शासन में सुधार के लिए काफी प्रयास किए। वह अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बनने के बजाय रूस और ब्रिटेन की टस्सल में तटस्थ रहा।
अंग्रेजों ने इस तठस्तता को रूस की ओर झुकाव माना और अपनी सेना काबुल पर चढ़ाई के लिए भेज दी। मजबूरन शेर अली ने अपनी हुकूमत बचाने के लिए रूस से मदद के इरादे से काबुल छोड़ा तो उसी दौरान मजार-ए-शरीफ में उसकी मौत हो गयी। शेर अली की मौत के बाद उसका पुत्र याकूब खान अफगानिस्तान का अमीर बना।
दोस्त खान के बाद याकूब भी देहरादून में निर्वासित
शेर अली की 1879 में किसी उत्तरी प्रान्त में मौत होने पर याकूब सत्ता का स्वाभाविक हकदार हो गया। याकुब द्वारा मई 1879 में ब्रिटेन के साथ गण्डामक संधि पर हस्तारक्षर कर वैदेशिक मामलों का नियंत्रण ब्रिटेन को सौंपना ही था कि संधि के खिलाफ अयूब खान के नेतृत्व में विद्रोह हो गया और याकूब के हाथ से सत्ता निकल गई और उसके बाद अयूब अफगानिस्तान का नया अमीर बन गया। इस विद्रोह के बाद दिसम्बर 1879 में पदच्युत याकुब को भारत भेज दिया गया।
वह भारत में स्थाई रूप से निवास करने वाला पहला अफगानी पूर्व शासक था। लेकिन मफेसिलाईट प्रेस द्वारा अप्रैल 1936 में प्रकाशित हेरोल्ड. सी विलियम्स की पुस्तिका
''मसूरी मिसलेनी'' में कहा गया-याकूब खान को 1883 में चार ब्रिटिश अधिकारियों की अभिरक्षा में मसूरी लाने के बाद उसे 'वेलेव्यू' में रखा गया। उसे इस स्टेशन में कहीं भी आने जाने की आजादी थी, जिसका वह पूरा उपयोग/दुरुपयोग करता था। उसकी सनकी हरकतों की शिकायत गर्वनर जनरल से की गयी तो जबाब मिला कि ''उसका बाल बांका भी नहीं होना चाहिए।''
पूर्व बादशाह देहरादून का ही होकर रह गया
दरअसल, याकूब खान मसूरी आया तो फिर यहीं का होकर रह गया। उसके लिए देहरादून में आज के ई.सी.रोड पर शाही आवास बनाया गया। यह शाही आवास वर्तमान मंगला देवी इंटर कालेज परिसर में है।
याकूब के सुरक्षा गार्ड वर्तमान करनपुर पुलिस चौकी पर तथा अन्य कर्मचारी सड़क की दूसरी ओर रहते थे। वह 18 नम्बर का ई.सी. रोड परिसर बाद में मसूरी देहरा अण्डरटेकिंग और फिर पावर कॉरपोरेशन का दफ्तर बना। अफगानिस्तान के इस शाही परिवार के नियंत्रण में वर्तमान म्यूनिसिपल रोड से लेकर डीएवी कॉलेज रोड तक का क्षेत्र था। ई.सी. रोड स्थित मस्जिद भी इसी शाही परिवार के लिए बनवाई गई थी।
पूर्व मंत्री असलम अफगान शासकों के वंशज
याकूब खान के वंशजों में फुटबाॅल खिलाड़ी असलम खान और उनके भाई अकबर खान भी शामिल है। असलम खान उत्तर प्रदेश में वन एवं खेल मंत्री रह चुके हैं। वह उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए 1985 में कांग्रेस टिकट पर और 1989 में जनता दल के टिकट पर मुजफ्फराबाद सीट से चुनाव जीते थे। देहरादून में राजपुर रोड पर उनकी कोठी है। वह पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के काफी करीबी माने जाते थे।
अफगान बादशाह की देहरादून की शहजादी से शादी
इसी देहरादून में 9 अप्रैल 1883 को अफगानिस्तान पर लगभग 4 सालों तक शासन करने वाले नादिर शाह का भी जन्म हुआ था। वह बरक्जाई राजवंश की ही शाखा मुशाहिबान से संबंधित था। नादिर शाह का परदादा सुल्तान मोहम्मद खान, अमीर दोस्त मोहम्मद खान का भाई था।
नादिर के पूर्वजों को अमीर अब्दुल रहमान ने देश से निकाला था ताकि वे भविष्य में गद्दी हथियाने का प्रयास न कर सकें। अब्दुल रहमान की मौत के बाद उसका बेटा हबीबुल्ला गद्दी पर बैठा। नादिर ने जब 1912 के खोस्त विद्रोह में अफगान शासक की मदद की तो नादिर के हबीबुल्ला से संबंध अच्छे हो गए। इसी दौरान हबीबुल्ला जब राजकीय यात्रा पर भारत आया तो उसने नादिर की बहनों से एक के साथ निकाह कर लिया।
देहरादून का नादिर बना अफगान बादशाह
देहरादून में पले बढ़े नादिर के निर्वासित दादा मोहम्मद याहया को जब ब्रिटिश सरकार एवं अब्दुर रहमान खान से अफगानिस्तान लौटने की अनुमति मिली तो नादिर खान बादशाह अमानुल्ला खान के शासनकाल में तीसरे आंग्ल-अफगान युद्ध में उसकी फौज का जनरल बन गया।
युद्ध के बाद नादिर को वजीर बना दिया गया। अमानुल्ला से मतभेद होने पर नादिर को देश निकाला दिया गया। लेकिन हबीबुल्ला कलाकानी द्वारा अमानुल्ला के खिलाफ विद्रोह के बाद नादिर की बफादार सेना ने पुनः काबुल पर कब्जा कर लिया। इस बफादार फौज का एक कमाण्डर हाल ही में निर्वासन में गए अशरफ गनी का दादा भी था। नादिर शाह ने हबीबुल्ला कलाकानी और उसके भाई समेत उसके 9 करीबियों को मौत के घाट उतार दिया था।
इस प्रकार देहरादून में जन्मा नादिर शाह अफगानिस्तान का बादशाह बन गया। सन् 1933 में नादिर जब एक स्कूल के समारोह में भाग लेने जा रहा था तो एक अल्पसंख्यक हजारा व्यक्ति अदुल खालिक ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी। हालांकि खालिक को तत्काल पकड़ लिया गया और उसके पूरे खानदान को सजाये मौत दी गयी।
अंतिम बादशाह का देहरादून से था लगाव
नादिर के बाद उनके पुत्र जहीर शाह ने मात्र 19 साल की उम्र में सन् 1933 में अफगानिस्तान की सत्ता संभाली। जहीर का तख्ता 17 जुलाइ 1973 को उस समय पलटा गया जब इटली की सरकारी यात्रा पर थे। उन्हें 3 फरबरी 2004 को पेट के इलाज के लिए भारत लाया गया। उस समय उन्होंने देहरादून स्थित अपने वंशजों से मिलने की इच्छा जताई थी मगर उनकी इच्छा पूरी नहीं हुयी। 23 जुलाइ 2007 को उनकी मृत्यु हो गई। हाल ही तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रहे अशरफ गनी की दादी भी देहरादून से थी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।


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