सम्पादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान: "मेरे बच्चे को बचा लो तुम्हें इंसानियत का वास्ता"

Gulabi
23 Aug 2021 6:26 AM GMT
अफगानिस्तान में तालिबान: मेरे बच्चे को बचा लो तुम्हें इंसानियत का वास्ता
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अफगानिस्तान में तालिबान

स्वाति शैवाल।

धरती के उस महफूज़ टुकड़े पर खड़े ओ सिपाही,
बस एक आखिरी उम्मीद की किरण तुम हो।
नौ महीने जिसे अपने खून से सींचा मैंने,
उस मासूम के रखवाले अब तुम हो।
अभी थोड़ी खरोंचे लगेंगी जिस्म पर,
सीमा पर खिंचे इन तारों की तो कोई बात नहीं सह लेंगी।
रोज यहां छलनी जिस्म की, तकलीफ से तो बच पाएंगी।
रोज न मिलें चॉकलेट और मिठाई तो कोई गम नहीं,
दो वक्त की रोटी में ही बसर कर लेंगी।
अभी तो मेरी छाती का दूध तक नहीं सूखा,
उसे आदत है मेरी उंगली पकड़कर सोने की।
लेकिन ले जाओ उसे दूर मुझसे कहीं,
यहां रही तो मौत की नींद भी न मिल पाएगी।
सलामत रही जो मैं तो शायद मिल पाऊंगी,
अपने बच्चे की फूलों सी खिलती हंसी देख पाऊंगी।
जो न बची जान तो भी,
बच्ची के बचने का इत्मीनान होगा।
इस एक पल के लिए पत्थर किया है मैंने खुद को,
साथ अपनी बच्ची के बस अपनी दुआएं हैं रखीं।
सम्भाल लेना मेरे जिगर के टुकड़े को
इसकी मासूम आंखों ने अभी दुनिया नहीं देखी।

कुछ साल पहले मैं एक रोड एक्सीडेंट की शिकार हुई थी। वक्त के साथ घाव भरे और तकलीफ कम हुई। लेकिन एक चीज जो आज भी मेरे अवचेतन में गहरे बैठी है वो है एक गुहार। 'भैया, मेरा बच्चा। मेरा बच्चा।' मुझे कुछ याद नहीं कि एक्सीडेंट के तुरन्त बाद क्या हुआ था। वो सब जैसे किसी ने मेरी मेमोरी में से डिलीट कर दिया। याद है तो बस धुंधला सा एक अक्स और वो गुहार, जो मैं अपने बेटे को लेकर लगा रही थी।

मेरे मन में उस समय सिर्फ एक ख्याल था। कार में मेरे परिवार के साथ बैठा मेरा बेटा सलामत है या नहीं और मैं चिल्ला रही थी-'भैया, मेरा बच्चा, मेरा बच्चा।' आईसीयू में जब तक मैंने अपने बेटे को नहीं देख लिया मुझे चैन नहीं आया।

अफगानिस्तान की तस्वीरें हर मां और बाप का दर्द है
आज जब अफगानिस्तान की तस्वीरों में मांओं को अपने बच्चों को सैनिकों की तरफ फेंकते हुए देख रही हूं तो ऐसा लग रहा है मानों हाथ बढ़ाकर उन बच्चों को सहेज लूं। उनकी मां को दिलासा दे दूं कि बहन, चिंता मत करो तुम्हारे बच्चे मजफूज़ रहेंगे।

इस ब्लॉग को लिखते समय उंगलियों से ज्यादा दिल कांप रहा है। कोई भी मां अपने बच्चे को मरते दम तक सुरक्षित रखने की कोशिश करती है। जब हम अपने बच्चों को ये पाठ पढ़ाते हैं- 'बेटा किसी अनजान व्यक्ति की दी हुई चॉकलेट मत खाना, या बेटा कोई अनजान तुम्हें साथ चलने को कहे तो मत जाना।' तब हम उसकी अनजान खतरे से सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे होते हैं। लेकिन यहां तो माएं अपने दिल के टुकड़ों को उन अनजान सैनिकों के हवाले कर रही हैं जिनके देश के बारे में भी वो कुछ नहीं जानतीं। क्योंकि वो खुद को शायद ये तसल्ली देना चाहती हैं कि बच्चे के साथ जो भी होगा वो तालिबानियों के राज से तो बेहतर ही होगा। वरना कौन मां है जो अपने बच्चे से दूर होना चाहेगी?

तालिबानियों की दहशतगर्दी एक बार झेल चुकी महिलाओं की दास्तान से अनजान नहीं हैं ये मांएं। जानती हैं वे कि यहां बच्चे रहे तो या तो उनके हाथों में बन्दूकें थमाई जाएंगी या उनके साथ जानवर से भी बदतर सलूक किया जाएगा। और बच्चे अगर लड़कियां हैं तो जीते जी दोज़ख (नर्क) की आग में झुलसती रहेंगी।

आज अपने स्वतंत्र देश के एक आरामदायक घर में बैठकर यह लिखते हुए मेरी आंखें भरी जा रही हैं। सोचिए उन मांओं पर क्या गुजर रही होगी जो अपने बच्चों को किसी अनजान के भरोसे छोड़कर जाने को विवश हैं।
कहते हैं- बच्चे देश का भविष्य होते हैं, लेकिन उन बच्चों का क्या जो बिना कसूर कुछ 'बड़ों' की बनाई दुनिया को बिना जाने समझे भुगत रहे हैं। कुछ दिन इनकी तस्वीरें वायरल होंगी लोग फिर धीरे-धीरे भूलते जाएंगे।

हमारी आदत है आसानी से भूल जाने की। न जाने दुनिया के किस कोने में तब भी कोई मां अपने उस बच्चे को ढूंढती भटक रही होगी जिसे उसने सुरक्षित भविष्य की आस में सीमा के पार फेंका था। या फिर ऊपर आसमान से झांक रही होगी कोई मां अपनी किसी बच्ची की तलाश में।

आप सबसे हाथ जोड़कर निवेदन है, आपको आपके बच्चों का वास्ता, इन मासूमों के सुरक्षित रहने और इन्हें इनकी मांओं से न बिछुड़ने की दुआ कीजिए। सुना है ऊपरवाला सच्ची दुआओं को कबूल करता है।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।


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