सम्पादकीय

तालिबान सरकार और भारत

Subhi
5 Sep 2021 1:15 AM GMT
तालिबान सरकार और भारत
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अफगानिस्तान में अभी तालिबान सरकार में कुछ देर नहीं मानी जा रही है और अपेक्षा की जा रही है कि इसकी घोषणा किसी भी दिन हो सकती है।

अफगानिस्तान में अभी तालिबान सरकार में कुछ देर नहीं मानी जा रही है और अपेक्षा की जा रही है कि इसकी घोषणा किसी भी दिन हो सकती है। बताया जा रहा है कि सरकार के मुखिया मुल्ला बरादर होंगे जो अभी तक कतर की राजधानी दोहा में तालिबान संगठन के राजनीतिक मुखिया थे। इस मामले में भारत के गौर करने का चिन्तनीय विषय यह है कि इस देश में तालिबान बरास्ता पाकिस्तान इस तरह आ रहे हैं कि इस हुकूमत की तरफदारी में रूस व चीन के साथ पाकिस्तान केन्द्रीय भूमिका में आ चुका है। तालिबान संगठन के पालन-पोषण में पाकिस्तान का सबसे बड़ा हाथ रहा है क्योंकि तहरीके तालिबान पाकिस्तान के नाम पर इस्लामाबाद की हर सरकार 1989 के बाद से आतंकवाद को अपनी विदेश नीति का अंग मान कर चल रही है। 2008 में जब मुम्बई पर समुद्री रास्ते से पाक के आतंकवादियों ने हमला किया था तो भारत ने पूरी दुनिया के सामने यही सिद्ध किया था कि आतंकवाद को पाकिस्तान की सरकार ने अपनी विदेश नीति का एक प्रमुख अंग बना लिया है। अब 2021 चल रहा है और 12 साल बीत जाने के बावजूद पाकिस्तान के तेवर में कोई गुणात्मक अन्तर नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि अलकायदा से लेकर जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे खूंखार संगठन अब भी पाकिस्तान की धरती पर विचरण कर रहे हैं। इन सभी संगठनों के सम्बन्ध अफगानिस्तान और तालिबान से छिपे हुए नहीं हैं। इन संगठनों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई समर्थन देती रही है और इन्हें मजबूत बनाती रही है। अतः यह बेवजह नहीं है कि अफगानिस्तान में सरकार बनने की सुसुराहट होते ही आईएसआई के मुखिया ले. जनरल फैज हमीद काबुल पहुंच गये हैं। यह इस बात का सबूत है कि सरकार गठन में पाकिस्तान प्रमुख भूमिका निभाना चाहता है। यदि कही-सुनी खबरों पर यकीन करें तो अफगानिस्तान के तालिबान लड़ाकों में कम से कम दस हजार पाकिस्तानी शामिल हैं। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि अमेरिका जाते-जाते पाकिस्तान को भी एेसा तोहफा देकर गया है जिसके जरिये पाकिस्तान अब अफगानिस्तान का भाग्य भी लिखने की जुर्रत कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो अमेरिका ने अफगानिस्तान का भाग्य पाकिस्तान के हवाले कर दिया है। पाकिस्तान को यह तोहफा अमेरिका ने इसलिए दिया क्योंकि उसके लिए तालिबान से बात करने का रास्ता पाकिस्तान ने ही तैयार कराया। मगर खुद अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के टुकड़ों पर जिन्दा रहने वाला पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनवा कर अफगानिस्तान की चौपट और बदहाल आर्थिक स्थिति को किस प्रकार पटरी पर ला सकता है? अफगानिस्तान की आर्थिक हालत इतनी खराब हो चुकी है कि यदि कुछ महीने और इसे इमदाद न मिली तो इसके लोगों के लिए भूखों मरने की नौबत आ सकती है। इसका पूरा अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार बन्द हो चुका है और घरेलू कारोबार बैंक बन्द होने व तिजारती रसूख सूख जाने की वजह से चौपट हो गया है। अतः इसकी मदद अब रूस व चीन करके ही इसे बदबख्ती से निकालने का प्रयास कर सकते हैं मगर इन देशों को भी नहीं मालूम है कि तालिबान में अपने बूते पर पेशवर सरकार बनाने की क्षमता है या नहीं इसलिए ये पाकिस्तान की भूमिका पर निर्भर कर रहे हैं। यही भारत के लिए बहुत चिन्ता का विषय है क्योंकि हालात ऐसे बने हैं कि अमेरिका, रूस व चीन तीनों ही पाकिस्तान को जरिया बनाना चाहते हैं। दूसरा, तालिबान ईरान का उदाहरण सामने रख कर दुनिया के सामने इस्लामी सरकार बनाने का दावा करने में लग गये हैं। यह एेसी सरकार होगी जिसमें राजनीतिक निर्णयों की तसदीक इस्लामी उलेमाओं की शूरा (विद्वत परिषद) द्वारा की जायेगी। संपादकीय :किस ओर ले जा रहा है फिटनेस और स्ट्रैस का जुनून?जजों की नियुक्तियां समय की जरूरतसोशल, डिजीटल मीडिया और न्यायमूर्ति रमणगाय राष्ट्रीय पशु घोषित होसुपर टेक को सुपर झटकामजबूती की राह पर अर्थव्यवस्था गौर करिये वह तालिबान सरकार कैसी होगी जिसमें तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला मोहम्मद याकूब अहम किरदार में होगा ? देर-सबेर ये लोग जरूर अपने रंग में आना शुरू करेंगे। मगर हैरानी है कि पश्चिम के वे देश इस सारी स्थिति को बहुत खामोशी और सब्र के साथ देख रहे हैं जो पूरी दुनिया में लोकतन्त्र व मानवाधिकारों के अलम्बरदार बने घूमते हैं। जी-7 ऐसे ही विकसित देशों का संगठन है और पिछले दिनों हुई इसकी बैठक में तालिबानी व अमेरिकी समझौते की ही परोक्ष रूप से ताईद की गई। अफगानिस्तान छोड़ते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जिस प्रकार यह कह कर पल्ला झाड़ा कि अफगानिस्तान विभिन्न कबीलों का देश है । इसमें कभी लोकतन्त्र नहीं रहा और यह अफगानियों का अपना देश है। अमेरिका वहां कोई विकास करने नहीं गया था बल्कि अलकायदा को खत्म करने गया था। यदि एेसा था तो लगातार बीस साल तक अमेरिका व अन्य पश्चिमी देश इसे 64 अरब डालर की प्रतिदिन इमदाद क्यों देते रहे? क्या ऐसा इसलिए था कि एक दिन अमेरिका इस मुल्क को उन्हीं तालिबानियों के हाथ में देकर चला जायेगा जिनसे लड़ने के लिए वह 20 साल पहले काबुल में गया था? याद रखा जाना चाहिए कि जब भारत में अंग्रेजों का राज था तो उन्होंने भी 1919 के 'भारत सरकार कानून' में इसे विभिन्न जातीय व क्षेत्रीय समूहों का जमघट कहा था। अंग्रेजों की इस गलती को 1935 में बने नये 'भारत सरकार कानून' में स्व. मोती लाल नेहरू ने सही कराया था जब उन्होंने भारत के संविधान का मोटा प्रारूप तैयार किया था और उसमें लिखा था कि भारत विभिन्न क्षेत्रीय प्रदेशों व अंचलों व जातीय समूहों से मिल कर बना एक संघ राज्य है। इसके बावजूद अंग्रेज जाते-जाते भारत के दो टुकड़े करा कर चले गये थे। अफगानिस्तान में पंजशीर में वहां के देश भक्त लड़ाके अभी भी संघर्ष कर रहे हैं और तालिबानों को चुनौती दे रहे हैं। इनकी निष्ठा इस्लाम में होने के बावजूद लोकतान्त्रिक पद्धति व मानवीय अधिकारों में है। इससे यही सिद्ध होता है कि पश्चिमी देशों की मानसिकता पूर्व के देशों को लेकर बदली नहीं है।

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