सम्पादकीय

कश्मीर पर तालिबान का भरोसा नहीं, पर भारत भी अब 90 वाला देश नहीं

Gulabi
5 Sep 2021 12:52 PM GMT
कश्मीर पर तालिबान का भरोसा नहीं, पर भारत भी अब 90 वाला देश नहीं
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अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा जगजाहिर है

संयम श्रीवास्तव।

अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) का कब्जा जगजाहिर है. लेकिन इस कब्जे ने कहीं ना कहीं भारत की मुश्किलें बढ़ा दीं हैं. क्योंकि भारत (india) अभी तालिबान को लेकर पशोपेश में है कि उसे तालिबान पर भरोसा करना चाहिए या नहीं. हालांकि तालिबान खुले तौर पर कई बार कह चुका है कि वह भारत से अच्छे संबंध चाहता है और अफगानिस्तान की धरती वह किसी भी देश के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होने देगा. भारत भी कूटनीतिक समझ से धीरे-धीरे तालिबान से नज़दीकियां बढ़ा रहा है. चाहे वह कतर में मंगलवार को तालिबानी नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई (Sher Mohammad Abbas Stanikzai) से भारतीय राजदूत दीपक मित्तल (Deepak Mittal) की मुलाकात हो या फिर सुरक्षा परिषद की ओर से दिया गया बयान, जिसमें तालिबान को समर्थन देने जैसी बात थी. या फिर पहले से चली आ रही तालिबान से बैकडोर बातचीत.

भारत और तालिबान दोनों के अपने-अपने एक दूसरे से फायदे हैं. जहां तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता चलाने के लिए भारत आर्थिक और सामरिक रूप से मदद कर सकता है. वहीं भारत भी अफगानिस्तान में मौजूद रहकर अपने सामरिक, कूटनीतिक और सुरक्षात्मक स्थिति को दक्षिण एशिया में सुरक्षित रख सकता है.
हालांकि तालिबान के सहयोगी अल कायदा की ओर से कश्मीर को लेकर जो बयान आया उसे देखते हुए भारत अब एक बार फिर से यह सोचने पर मजबूर हो गया है कि क्या कश्मीर के मुद्दे पर तालिबान पर भरोसा किया जा सकता है? दरअसल अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद आतंकवादी संगठन अलकायदा ने तालिबान को बधाई देते हुए वैश्विक मुस्लिम समुदाय से अन्य मुस्लिम क्षेत्रों को भी मुक्त कराने का आह्वान किया है और उसने सबसे पहला टारगेट कश्मीर को रखा है. जिसने भारत की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. माना जा रहा है कि अल कायदा के इस बयान के पीछे पाकिस्तान का हाथ है. इसलिए कश्मीर को लेकर देश में सुरक्षा भी हाई अलर्ट पर कर दी गई है.
कश्मीर का नाम होना और शिंजियांग का नाम ना होना शक पैदा करता है
तालिबान ने अभी हाल ही में बयान दिया कि उसका सबसे खास दोस्त चीन है और वह चीन से ही फंड लेकर अफगानिस्तान में अपनी स्थिर सरकार चलाएगा. वहीं अलकायदा जो तालिबान का दोस्त है और अपने आप को इस्लाम का सबसे बड़ा मसीहा मानता है, उसकी तरफ से एक बयान आया जहां उसने कहा कि अफगानिस्तान को अमेरिकी कब्जे से मुक्त कराने के बाद अब अन्य मुस्लिम क्षेत्रों को भी काफिरों से मुक्त कराना होगा. अपने इस बयान में उसने कश्मीर, इराक, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, सोमालिया जैसे जगहों का नाम लिया. लेकिन खास बात है कि इसमें कहीं भी चीन के शिनजियांग प्रांत का नाम नहीं शामिल है. जहां वीगर मुस्लिमों पर सबसे ज्यादा ज्यादतियां होती हैं.
अलकायदा ने चीन के इस हिस्से का नाम सोची समझी साजिश के तहत नहीं लिया. क्योंकि उसके दोस्त तालिबान को चीन, पाकिस्तान, रूस और तुर्की जैसे देशों का साथ मिला हुआ है और तालिबान भी अब चीन को अपना दोस्त बताता है. ऐसे में अलकायदा की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह तालिबान के खिलाफ जाकर चीन के खिलाफ कुछ बोले. लेकिन उसने भारत के खिलाफ जरूर बोला और इस पर तालिबान का कोई रिएक्शन नहीं आया, जो कश्मीर के लिए तालिबान को लेकर संदेह पैदा करता है.
अपने वादे तोड़ने में तालिबान को महारत हासिल है
तालिबान का इतिहास देखकर उस पर कोई भी देश इतनी आसानी से विश्वास कर ले, शायद ही ऐसा हो सकता है. 90 के दशक में जब अफगानिस्तान पर उसका शासन था तो उसने सबसे क्रूर दमनकारी शासन चलाया. उस वक्त अफगानिस्तान में सार्वजनिक तौर पर लोगों की हत्या करना, पत्थर मारकर उन्हें जान से मार देना, कोड़े मारना आम बात थी. महिलाओं के लिए तो वह दौर नर्क से भी बदतर था.
लेकिन अब तालिबान बयान दे रहा है कि वह पूरी तरह से बदल चुका है और अब वह महिलाओं को पढ़ने लिखने और नौकरी करने का अधिकार देगा, लोगों की जिंदगी-संपत्ति और उनकी गरिमा की सुरक्षा करेगा, अफगानिस्तान के लिए एक शांतिपूर्ण और सुरक्षित माहौल बनाने पर जोर देगा और अमेरिकी और नाटो सेनाओं के साथ काम कर चुके काबुल शासन के अधिकारियों की रक्षा भी करेगा.
लेकिन क्या वाकई में इस वक्त अफगानिस्तान में यह सब हो रहा है. द क्विंट में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार सरकार द्वारा संचालित फिल्म निर्माण कंपनी की महानिदेशक सायरा करीमी बताती हैं कि कुछ ही हफ्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को नष्ट कर दिया और वहां लगभग 20 लाख लड़कियों को स्कूल से बाहर कर दिया गया है. भारतीय फोटोजर्नलिस्ट दानिश की हत्या पर भी तालिबान ने झूठ बोला था, पहले उसने इस हत्या में अपने हाथ होने से इनकार किया था और उसके बाद तालिबान ने कहा कि दानिश सिद्दीकी बिना इजाजत इलाके में आए थे इसलिए मारे गए.
यही नहीं दोहा समझौते के समय तालिबान ने वादा किया था कि वह अपने संबंध अल कायदा, जैश-ए-मोहम्मद, आईएस खुरासन जैसे आतंकवादी संगठनों से अपने संबंध तोड़ देगा. लेकिन उसने ऐसा किया नहीं और आज भी उसके संबंध इन आतंकवादी संगठनों से उतने ही मजबूत हैं जैसा कि 90 के दशक में हुआ करते थे. इसलिए तालिबान की हरकतें देखकर उस पर इतनी आसानी से विश्वास करना कतई ठीक नहीं है.
भारत की पूरी तैयारी है
कश्मीर को लेकर भारत अपनी पूरी तैयारी करके बैठा है. अफगानिस्तान में जैसे ही तालिबान की हुकूमत आई, मिलिट्री इंटेलिजेंस ने कश्मीर को हाई अलर्ट पर कर दिया है. सीमा पर चौकसी और बढ़ा दी गई है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनकी टीम बीते कई महीनों से अफगानिस्तान कि हर स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं. तालिबान और पाकिस्तान की हर हरकत पर इस टीम की पैनी नजर है. क्योंकि भारत किसी भी स्थिति में 90 के दशक वाली गलती नहीं करना चाहता है.
दरअसल 90 के दशक में जब अफगानिस्तान पर तालिबान की हुकूमत थी तब हिंदुस्तान ने आतंकवाद के कई जख्म झेले थे. उसी समय कारगिल का युद्ध हुआ, जम्मू कश्मीर विधानसभा पर हमला हुआ, भारत की संसद पर हमला हुआ और आईसी 814 विमान अपहरण जैसी कई घटनाएं हुईं. इसलिए कश्मीर को लेकर भारत पूरी तरह से सतर्क है और वह आतंकवादियों के किसी मंसूबे को कामयाब नहीं होने देगा.
बातचीत के अलावा कोई रास्ता नहीं है
अफगानिस्तान में भारत का लगभग 22,000 करोड़ रुपए का निवेश फंसा है. ऊपर से दक्षिण एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए भारत का अफगान धरती पर मौजूद रहना बेहद जरूरी है. चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को कूटनीतिक और सामरिक रूप से जवाब देने के लिए भी अफगानिस्तान कि धरती पर भारत की मौजूदगी जरूरी है. तालिबान को भी पता है कि अगर उसे अपने देश में स्थिर सरकार चलानी है तो साउथ ईस्ट एशिया में भारत ही एक ऐसा देश है जो उसकी हर प्रकार से मदद कर सकता है.
पाकिस्तान अब तक भले ही उसकी मदद करते आया हो, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वह तालिबान की सरकार चलाने में मदद कर सके. यही वजह है कि तालिबान भारत से अपने अच्छे संबंध चाहता है. भारत के पास इस वक्त तालिबान पर विश्वास करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. इसलिए अंदर खेमे में भारत को सतर्क रहते हुए तालिबान पर भरोसा कर उसके साथ बेहतर संबंध स्थापित करने होंगे, क्योंकि तालिबान से बेहतर संबंध भारत को चीन और पाकिस्तान की चुनौतियों से निपटने में जहां एक ओर मदद करेगा. वहीं साउथ ईस्ट एशिया में उसकी स्थिति भी मजबूत करेगा.
पश्तूनों के जरिए पाकिस्तान-तालिबान को जवाब
भारत के पास पाकिस्तान और तालिबान दोनों को जवाब देने का एक और रास्ता है. दरअसल 1893 में ब्रिटिश हुकूमत ने अफगानिस्तान में अफगान शासक अमीर अब्दुर रहमान के साथ एक समझौते के तहत कुछ इलाकों को बांटने के लिए डूरंड रेखा खींची. लेकिन इस रेखा ने पश्तूनों की आबादी के एक बड़े इलाके को दो हिस्सों में बांट दिया और बाद में जब पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो ये हिस्सा भी पाकिस्तान ने कब्जा लिया.
हालांकि पश्तून लोग इस डूरंड रेखा को नहीं मानते और पूरे पश्तून इलाके को मिला कर एक अलग प्रांत बनाने की मांग कर रहे हैं. पाकिस्तान इस मांग को हमेशा ठुकराता आ रहा है. अब भारत इस आंदोलन को बढ़ावा देकर पाकिस्तान और तालिबान दोनों को करारा जवाब दे सकता है.
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