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- किस्सा एक तालीबाज का
यह किस्सा एक अनूठे तालीबाज का है, जो तालियां पीटते-पीटते उस मुकाम पर जा पहुंचा, जहां बहुत कम लोग पहुंच पाते हैं। तालियां बजती देखी हैं, परंतु नटवर जी की जैसी ताली कोई नहीं बजाता। हर सभा में वे तालियां बजाते पाए जाते। जब वे ताली बजाते तो पूरी भीड़ उनकी तरफ मुखातिब हो जाती तथा वे बेखबर होकर तालियां पीटते रहते। कई बार तो प्रश्न यह उठता कि नटवर जी तालियां क्यों बजाते हैं? परंतु मन सहज रूप से उत्तर दे देता कि कम से कम वे ताली तो बजा रहे हैं। तालियां बजाने की परंपरा हमारे यहां प्राचीनकाल से चली आ रही है, जिसे नटवर जी ने आधुनिक काल में भी बचाए रखा। वे भाषण देने वाले हर व्यक्ति से इतना प्रभावित हो जाते कि उनका पूरा शरीर अतिरिक्त रोमांच से भर उठता तथा वे भूल जाते कि उनका ताली बजाना मजाक बन रहा है। नटवर जी के दफ्तर में हड़ताल होती तो वे ही एकमात्र कर्मचारी थे, जो नियमित रूप से सभा स्थल पर पहुंचते, कोई कुछ भी बोले, वे ताली पीटने से बाज नहीं आते। शनैः शनैः उनका ताली-पीटना इतना मशहूर हो गया कि लोग हड़ताल में नहीं, उनकी ताली की आवाज सुनने तथा उसका अंदाज देखने आने लगे, सब कुछ चमत्कृत करने वाला। लोगों के पेट में बल पड़ जाते हंसते-हंसते, परंतु नटवर जी लगातार पूरे माहौल को रोमांचपूर्ण बनाए रखते। तालियां तो शिखंडी समाज भी बजाता है, परंतु नटवर जी ने उनको भी मात दे दी। ताली क्या बजाते-साथ में मुंह की पूरी बत्तीसी को ही बजा डालते। उनकी हथेलियों की इस अद्भुत शक्ति पर लोग ईर्ष्या करने लगे। अपनी हथेलियां देखते और खुद के सिर में दे मारते। मेरी शुरू से ही ऐसे 'विवित्र किंतु सत्य' लोगों से मिलने की जिज्ञासा रही है।
सोर्स- divyahimachal