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खुशी को आप कई रूपों में देख सकते हैं, अनुभूत कर सकते हैं
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
सुख या खुशी को आनंद मान लेना एक बहुत बड़े गम को आमंत्रण है, क्योंकि दुनिया का कोई सुख, दुख को साथ लिए बिना नहीं आता। लेकिन आनंद सिर्फ आनंद है। इसका कोई विपरीत नहीं। कई लोग पूछते हैं आखिर आनंद होता क्या है, आता कहां से है? तो याद रखिए, हमारी इंद्रियां जब आपस में लड़ना बंद कर देती हैं, तब आनंद पैदा होता है। हमारे पास दस इंद्रियां हैं। पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां। ये सब एक-दूसरे को विपरीत दिशा में खींच रही होती हैं और इसमें जो भारी पड़ती है, वह अपनी खुशी दे देती है।
लिहाजा हम बावले हो जाते हैं। इंद्रियों की आपसी खींचतान से भी हमें खुशी तो मिल जाती है, लेकिन वो ही खुशी फिर कभी भी गम में बदल जाती है, क्योंकि बाकी इंद्रियां दुख फेंक रही होती हैं। जब इंद्रियों की लड़ाई या खींचतान बंद होती है, तब जीवन में आनंद उतरने लगता है। लेकिन, लोगों ने आनंद को भी आयोजन बना दिया, औपचारिकता में ढाल लिया।
खुशी को आप कई रूपों में देख सकते हैं, अनुभूत कर सकते हैं। धन-दौलत में, अपनी मार्कशीट में, सफलता में खुशी ढूंढ सकते हैं, लेकिन आनंद इनमें नहीं मिलता। कुछ लोग आनंद को भी नोटों में टटोल रहे हैं, कागजों में ढूंढ रहे हैं, सरकारी फाइलों में खोज रहे हैं, लेकिन याद रखिए, आनंद का सबसे बड़ा विभाग तो हमारे भीतर है। जीवन का वास्तविक आनंद यहीं मिल सकता है।
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