सम्पादकीय

जो बचा, अब उसे तो संभालो

Rani Sahu
25 May 2023 4:58 PM GMT
जो बचा, अब उसे तो संभालो
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ये कैसे नरभक्षी दिन हमारे सिर पर महीनों झूलते रहे। तूफान ऐसा बहा कि उसने साबुत इमारतें तो क्या, खंडहर तक नष्ट कर दिए और अब मसीहा फरमाते हैं, ‘लो परमात्मा का शुक्र अदा करो, कि वह मौत की अंधेरी गुजऱ गई। अब अगर कुछ बच गया है तो उसकी सार-सम्भाल कर लो।’ जी हां, जो बच गया, अब उसकी ओर देखते हैं। महीनों पूरी बंदी घोषित हुए बिना शहर-शहर की दुकानें ग्राहकों की वीरानगी झेलती रहीं। औद्योगिक विकास को दोबारा जि़न्दा कर देने के नारे तो लगते रहे, लेकिन मांग से निपूती आधी ताकत पर काम करते कल कारखानों को हम अब शुभ सूचना दे रहे हैं कि ‘लो महामारी की इस उठान की जवानी बीत गई। लगातार बूढ़े होते उसके मारक आंकड़े अब कांखते कराहते विदा ले रहे हैं।’ अब दिलासा भरे आंकड़ों का युग आ गया, जो आपकी पीठ थपथपाने लगे। लो, लगता है बुरे दिन बीत गए। देखते ही देखते देश के अन्दर से बाहर से ला टीकों का ढेर लगा दिया। इनकी आपूर्ति करोड़ों में बढ़ा रहे हैं। प्राण जाये पर प्रण न जाये वाली सरकार यह कहती है कि इस साल के अंत तक इतनी भारी तादाद में टीके हर शहर के मैदान में आ जायें कि रास्ता रोक-रोक कर टीके आपका पीछा करेंगे कि भाई जान अब टीका लगाए बिना न जा पाओगे। राहत के दिन शुरू हो गए। वे दिन गये जब सरकार ने चार सौ का टीका निजी अस्पतालों को 1060 रुपये में बेचा था और अपने आप पर मुनाफाखोरी का इल्ज़ाम झेल लिया था, लेकिन हमने भी साहिब ज्यों ही विरोधियों को इस मसले की प्रत्यंचा खींचते देखा, यह खरीद-बेच का ढंग ही बंद कर दिया। अस्पतालों को बेचे टीके वापस ले लिए। देखा हमारी सरकार कितनी संवेदनशील है, ज्यों ही खबर मिली त्यों ही यह बिक्री बंद कर दी। वैसे सरकारी मुनाफाखोरी का आरोप हमें तो लगता है चुनाव सियासत के अन्तर्गत लगा है, तभी तो देखो शिकायतकर्ताओं ने तत्काल हमारा इस्तीफा भी मांग लिया। क्या यह कुर्सी की छीनझपट का गंदला खेल है? चुनावी वर्ष में तो चलता ही चलता है। लेकिन हमारी तत्परता देखिए, तुरंत इसकी खरीद-बेच बंद कर दी। अब सोच रहे हैं कौन सी माकूल नीति अपनायें कि टीका नीति के मनसबदार भूखे न मरें, चाहे वे कोरोना निरोधी टीके लगाने वाले हों या महामारी से मरीज़ की जान बचाने वाले प्रभावी टीके बेचने वाले हों।
कितना शोर था कि रोगियों के लिए आक्सीजन सिलेंडर और वैंटीलेटरों की जम कर ब्लैक हो रही है, हमने इसके विरोध में चेतावनियों के बोर्ड और कालाबाजारों पर छापा मार कर उडऩ दस्ते तैयार कर दिये, लेकिन रब्ब बड़ा कारसाज़ है। लो देखो अब महामारी की दूसरी लहर की गिरावट अपने आप होने लगी। कमर चाहे उसकी महामारी के कारण टूटी, लेकिन दुआ अपने प्रशासन को दीजिए कि उसके महामारी से जूझ लेने के इरादों से घबरा संक्रमण अपने आप कम होने लगा। मरने वालों की संख्या कम हो गई तो हमने घोषणा की लीजिये मौत के हरकारों को सबक मिला। मरीज़ कम हुए तो काले बाज़ारों पर मुर्दनी छाई तो, चोर बाज़ारियों की हवा निकल गई, यह बात हम कह तो सकते हैं। लेकिन मुर्गे की मां कब तक अपने बावर्चियों से खैर मनाएगी। भविष्य दृष्टा भी अभी से चेताने लगे कि एक लहर का बस में आ जाना छुटकारा नहीं होता। ये महामारियां लहर दर लहर बसर होती हैं। छुटकारे का उत्सव मनाने की बजाय सदा सचेत रहने की कसम खा लो। मौत के झंझावात में अपना धंधा चमकाने वाले अभी भी घात लगाये बैठे हैं। चोर बाज़ारी एक ऐसी दुकानदारी है, जिसके सामने कानून के रखवाले बार-बार असमर्थ हो जाते हैं। मौत के तूफानी तीरंदाज़ों ने केवल कुछ देर के लिए रुखसत ली है, सदा के लिए विदा नहीं हो गये। इस राहत को मध्यांतर मान दुर्दिनों के इन हरकारों पर गाज बन कर गिरने, जड़ से उखाड़ देने का प्रहारक मंसूबा बना लो, क्योंकि यह समय सुस्ताने का नहीं, जागते रहो चिल्लाने का है।
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

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