सम्पादकीय

सफाई कामगार वर्ग की सुध लीजिए

Gulabi
7 Aug 2021 4:05 PM GMT
सफाई कामगार वर्ग की सुध लीजिए
x
उनके काम को सम्मानजनक बनाने के लिए इसका पूरी तरह मशीनीकरण होना चाहिए

उनके काम को सम्मानजनक बनाने के लिए इसका पूरी तरह मशीनीकरण होना चाहिए। सुरक्षात्मक पहनावा, घर योग्य जमीन देकर गृह निर्माण सहायता और सरकार द्वारा अनुसूचित वर्ग के लिए चलाई जा रही सहायता योजनाओं और सफाई कामगारों के लिए विशेष योजनाओं का लाभ दिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए…

हमारे देश में सफाई कामगार वर्ग सबसे हाशिए पर रहने वाला समुदाय है। 98 फीसदी सफाई कामगार वाल्मीकि समुदाय से संबंध रखते हैं। इनके काम की स्थितियां इतनी खराब हैं कि इन्हें सबके लिए सफाई सुनिश्चित करने के बावजूद खुद सबसे गंदे हालात में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालत इतनी खराब है कि इनकी जातियों के नाम तक को गाली समझा जाता है। किंतु यह समुदाय अपने को वाल्मीकि कहलाना ही पसंद करता है। ये वर्ग महाऋषि वाल्मीकि का वंशज कहलाता है। इनका मानना है कि मुस्लिम काल में इस्लाम कबूल न करने के कारण इन्हें सफाई और मैला उठाने का काम सजा के रूप में करने के लिए मजबूर किया गया। कालांतर में यह एक अलग जाति के रूप में मानी जाने लगी। इनका ज्यादातर काम शहरी इलाकों में ही है क्योंकि गांव में तो बाहर खुले में शौच जाने का प्रचलन रहा है। शहरी इलाकों में जब फ्लश शौचालयों का प्रचलन नहीं था, तब शुष्क शौचालयों की सफाई का काम बहुत ही गंदगी भरा था।
1993 में कानून बना कर शुष्क शौचालय बनाने और उसकी दस्ती सफाई को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। किंतु अभी तक भी यह पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है। 2013 में दस्ती मैला सफाई के लिए नियुक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। फिर भी 2018 में देश के 170 जिलों में 42303 दस्ती मैला सफाई कामगार पाए गए। पूरे देश में सर्वे से ही पूरी स्थिति का पता चलेगा। यह आंकड़े 'सफाई कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय आयोग' के वार्षिक सर्वे से प्राप्त हुए हैं। इस सर्वे रिपोर्ट में और भी कई चिंताजनक उद्घाटन हुए हैं। शुष्क शौचालयों पर प्रतिबंध के बाद आधुनिक सीवर व्यवस्था की सफाई भी हाथों से, और सीवर में घुस कर करनी पड़ती है। सैप्टिक टैंक खाली करने का काम भी इसी तरह होता है। सीवर और सैप्टिक टैंक सफाई के दौरान इनमें बनी जहरीली गैसों के कारण अनेक कामगारों की मौत हो जाती है। अख़बारों में भी कई बार इसके समाचार आते रहते हैं। 1993 से 2020 तक 928 सीवर और सैप्टिक टैंक मौतें सामने आईं। हालांकि 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। अतः असली आंकड़ा ज्यादा हो सकता है। हैरानी और लापरवाही की बात है कि आज के तकनीकी युग में इन खतरनाक कामों के लिए भी सुरक्षा उपकरणों और मशीनीकरण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा सीवर मृत्यु के मामलों में 10 लाख मुआवज़ा दिए जाने के निर्देश दिए गए हैं, किंतु 10 लाख के हिसाब से 928 में से 575 मामलों में ही मुआवज़ा राशि दी गई है और पीडि़त परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी का भी आदेश पारित हुआ था।
किंतु क्योंकि अधिकांश कामगार ठेके पर ठेकेदारों द्वारा भर्ती किए गए होते हैं, इसलिए कोई लाभ पीडि़तों को नहीं मिल पाता। ठेकेदारी प्रथा में न्यूनतम वेतन व्यवस्था भी लागू नहीं हो पाती। हालांकि नगर निकाय प्राथमिक नियोक्ता होने के कारण न्यूनतम मजदूरी भुगतान करवाने का जिम्मेदार होना चाहिए, किंतु वे भी इस दिशा में कोई ध्यान नहीं देते हैं। अब आयोग ने तो 25 लाख मुआवज़े की अनुशंसा की है, किंतु जमीनी क्रियान्वयन कितना होता है, यह अभी देखना बाकी है। सफाई कर्मियों को अधिकांश रोजगार नगर निकायों में ही मिलता है। उनके पास हमेशा बजट की कमी बनी रहती है और उसका खामियाजा सबसे निचले पायदान पर बैठे सफाई कामगारों को ही उठाना पड़ता है। इसलिए नगर निकायों में सफाई कामगारों के लिए अलग से निर्धारित राशि का प्रावधान होना चाहिए। इसके अलावा रेलवे भी सफाई कामगारों को रोजगार देने वाली बड़ी इकाई है। रेलवे का इस मामले में और भी बुरा हाल है। वहां तो रेलवे लाइनों की दस्ती मैला सफाई खुले आम जारी है। हालांकि आयोग द्वारा मामला उठाए जाने के बाद रेलवे ने भी कुछ प्रयास शौचालय सुधार की दिशा में उठाए हैं, किंतु पटरियों की सफाई की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं आया है। वाल्मीकि समुदाय के लिए वैकल्पिक व्यवसाय अपनाने की दिशा में पर्याप्त प्रशिक्षण व्यवस्था का भी अभाव है। हालांकि कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं, किंतु उनका लाभ उठाने के रास्ते में भी कई कठिनाइयां हैं, जिनमें शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य की बुरी हालत, नाम पर राजस्व भूमि दर्ज न होने के कारण स्थायी निवास प्रमाणपत्र न होना आदि कई समस्याएं हैं। शिक्षा में ज्यादातर प्राथमिक शिक्षा से आगे पढाई नगण्य है। स्वास्थ्य के मामले में इनके काम की स्थितियां इतनी चुनौतीपूर्ण हैं कि इनकी औसत आयु मात्र 32 वर्ष है। हिमाचल प्रदेश में एक अध्ययन में शिमला नगर निगम में 28 महीनों में 16 मृत्यु दर्ज हुईं, जिनमें से हृदय रोग, कैंसर, गुर्दा खराबी आदि प्रमुख कारण पाए गए।

हिमाचल प्रदेश में 22 फीसदी के पास ही घर बनाने के लिए थोड़ी सी भूमि उपलब्ध है। 23 फीसदी के पास अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र नहीं हैं। 76 फीसदी के पास स्थायी हिमाचली निवासी प्रमाणपत्र नहीं हैं। 22 फीसदी ही दैनिक भोगी कर्मचारी हैं, शेष ठेकेदारों के माध्यम से काम करते हैं। रिहायश की स्थितियां भी अत्यंत चिंताजनक हैं। 40 फीसदी एक कमरे में रहते हैं। 33 फीसदी के पास दो कमरे हैं। 20 फीसदी के पास रसोई नहीं है। रिहायशी कमरे में ही खाना भी बनता है। इस बदहाली में यह समाज रह रहा है, जिसकी ओर न सिर्फ सरकार बल्कि आम शहरियों को भी ध्यान देने और दबाव बनाने की जरूरत है। उनके काम को सम्मानजनक बनाने के लिए इसका पूरी तरह मशीनीकरण होना चाहिए। सुरक्षात्मक पहनावा, घर योग्य जमीन दे कर गृह निर्माण सहायता और सरकार द्वारा चलाई जा रही अनुसूचित वर्ग के लिए सहायता योजनाओं और सफाई कामगारों के लिए विशेष योजनाओं का लाभ दिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। सफाई कर्मचारी आयोग को केंद्र सरकार के स्तर पर स्थायी बनाया जाना चाहिए और इनकी अनुशंसाओं को बाध्यकारी बना कर लागू करने की मजबूत व्यवस्था की स्थापना होनी चाहिए, ताकि हम सभी के लिए सफाई जैसी आवश्यक सेवा प्रदान करने वाले समुदाय को सम्मानजनक जीवन यापन प्राप्त हो सके और राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन जैसे जनहितकारी उपक्रमों को मजबूती मिल सके।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान
Next Story