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यह एक अजीब मजाक है कि एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य की पुलिस को ही गिरफ्तार कर रही है
बिक्रम वोहरा
यह एक अजीब मजाक है कि एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य की पुलिस को ही गिरफ्तार कर रही है. राजनीतिक सत्ताधारियों ने बदला लेने के लिए पुलिस को अपनी निजी सेना बना ली है, मीडिया ने अपना जादू खो दिया है और कोई भी असहज सवाल नहीं पूछता. कीस्टोन फिल्म की स्टाइल में तीन राज्यों की पुलिस ने तेजिंदर बग्गा (Tajinder Bagga) मामले में जो किया वह अगर दुखद नहीं होता तो बेहद हस्यपूर्ण होता. यह बहुत ही खतरनाक चलन है क्योंकि पुलिस को राजनीतिक दलों ने जनता का दोस्त बनने की जगह सुपारी किलर बना दिया है, जिनके पास किसी की भी हत्या करने, अपंग बनाने या धमकाने का लाइसेंस है. बीजेपी (BJP) नेता तेजिंदर बग्गा के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के खिलाफ बयान और उसके बाद तीन राज्यों की पुलिस का सुर्खियों में आना हर कानूनी मानदंड के परे है. न्यायपालिका और चौथे स्तंभ (मीडिया) अंदरूनी खामियों की वजह से खोखले भी होते जा रहे हैं.
राजनीतिक आकाओं के फरमान के बाद अहंकारी पुलिस की स्थिति देखिए. हर छोटे-बड़े पुलिस थाने में लोगों के साथ बगैर जवाबदेही के क्रूरता के साथ व्यवहार किया जाता है. महिलाओं से बलात्कार होते हैं, गरीबों पर हमले होते हैं. भारत के गृह मंत्रालय ने संसद में बयान दिया कि तीन साल में 348 लोग पुलिस हिरासत में और 5,221 लोग न्यायिक हिरासत में मारे गए. इसी दौरान उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में 23 और न्यायिक हिरासत में 1,295 लोगों की मौत हुई. आज स्थिति ऐसी हो गई है कि पुलिस तो राजनीतिक दलों की चाटुकारिता करती नजर आती ही है और मीडिया को भी धमकाया जाता है.
सत्तर और अस्सी के दशक प्रिंट मीडिया के सुनहरे दिन थे
सत्तर और अस्सी के दशक में जब भारतीय प्रिंट मीडिया के सुनहरे दिन थे तब उसमें एक शक्ति थी जिस पर गर्व होता था. तब प्रेस को राजनीति का प्रहरी माना जाता था जो सचमुच में सभी को संतुलित करके रखता था. तब कोई पेड, फर्जी खबर नहीं थी, न ही कोई सनसनी पैदा करने के लिए खबर छानता था. खबर में अपनी जरूरत के मुताबिक कोई उसे काट-पीट कर किसी खास सांचे में भी नहीं ढालता था. उन दिनों धमकियां भी कम ही दी जाती थीं. 1975 से शुरू होने वाले दुर्भावना से भरे आपातकाल के बाद अगले 21 महीने तक प्रेस ने कसैले और नाश करने वाली बेड़ियों में जकड़ी स्वतंत्रता देखी. मगर यहां भी डर और त्वरित कार्रवाई के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिनने के बावजूद मौत का डर कभी नहीं रहा. पत्रकारों के साथ धक्का-मुक्की होती थी मगर ज्यादा खराब स्थिति में भी तत्कालीन सूचना मंत्री वी सी शुक्ला के सामने बस पेशी होती थी या इंदिरा गांधी के दफ्तर में आर के धवन का समन आता था जो एक स्कूल के बच्चे की तरह पत्रकारों को पाठ पढाते थे. तब आर के धवन प्रधानमंत्री जितनी ही हैसियत रखते थे.
इमरजेंसी में उनके मुताबिक नहीं चलने पर वे मौखिक रूप से डांट जरूर देते थे, मगर फिर भी उनके स्वर में एक विनती होती थी. पक्षपात का आरोप लगने के जोखिम के बावजूद उन दिनों प्रेस में इतनी एकता होती थी जो आर के धवन को भी संयमित कर देती थी. उन दिनों ऐसे लोग थे जो गलत होने पर प्रेस वालों को बचाने का काम करते थे. कुलदीप नैयर ने मालिक रामनाथ गोयनका के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी के विरुद्ध अपने पत्रकारों की फौज के साथ इंडियन एक्सप्रेस में कई लेख लिखे.
भारत के पूर्व में सी एस ईरानी ने स्टेट्समैन में सत्ता के विरोध में खबरें छापीं और अच्छी लड़ाई लड़े. अरुण शौरी पत्रकार नहीं थे, लेकिन मीडिया के सिपाही की तरह दृढ़ संकल्प से निशाना साधते थे चाहे सामने कितनी भी बड़ी हस्ती ही क्यों न हो. फलक्रम पत्रिका ने संजय गांधी के सामूहिक नसबंदी अभियान को बर्बाद कर दिया. फॉर यू नाम की एक पत्रिका ने जबरन परिवार नियोजन कराये जाने की मुहिम के विरोध में अपनी कवर पर जो तस्वीर छापी उसमें एक पति और पत्नी के बीच मुंबई पुलिस के एक सिपाही को दिखाया गया था. पत्रकार अशोक महादेवन ने एक क्लासीफाइड विज्ञापन छापा, जो उस समय वायरल भी हुआ और प्रतिरोध का प्रतीक भी बना. उसमें कोड वर्ड में कैप्शन लिखा थाः O'Cracy, D.E.M., beloved husband of T. Ruth, loving father of Faith, Hope and Justicia expired on June 6 (सच्चाई के पति और विश्वास, आशा और न्याय के पिता प्रजातंत्र की 6 जून को मौत हो गई).
मीडिया आज पुलिस की तरह सत्ता के अधीन हो गया है
विद्वान पत्रकार विनोद मेहता को अपनी डेबोनेयर पत्रिका में यौन 'उत्तेजक' रिपोर्ट छापना बंद करने के लिए अक्सर दिल्ली से बुलावा आता था. मेनका गांधी ने जब सूर्या नाम की एक पत्रिका शुरू की तब सभी अच्छे पत्रकारों को फरमान आया कि वे उसमें लिखें… वरना… लेकिन, बहुतों ने लिखने से मना कर दिया. इसके बावजूद कोई 'वरना' साबित करने जैसी हरकत नहीं हुई.
उन दिनों की अपूर्ण एकता अब शून्य में बदल गई है. अब तो कई संपादक कॉर्पोरेट प्रबंधक बन गए हैं. पत्रकार विशेषज्ञ नहीं होते इसलिए कई गैर पत्रकार पेशेवर पत्रकार से बेहतर लेख लिखते हैं. मीडिया आज पुलिस की तरह सत्ता के अधीन हो गया है और ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा जाता जो नेताओं को झटका दे सके. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छह साल में केवल एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और उसमें भी सवालों के जवाब नहीं दिए. कोई नहीं पूछता कि मीडिया के साथ वे सबसे स्पष्ट रास्ते का उपयोग क्यों नहीं करते.
हालांकि, इस पर अब तक कोई निष्कर्ष नहीं निकला है. दरअसल, अब उनकी जरूरत ही नहीं रह गई है. मीडिया अंदर से खोखला हो गया है. अब वह राजनेताओं और नौकरशाहों को जवाबदेह नहीं बनाता जो उसका काम है. सच्चाई यह है कि राजनीतिज्ञों में चौथे स्तंभ और उसके लिए काम करे वालों के लिए अब सम्मान नहीं बल्कि तिरस्कार बचा है.
फिर फूट और पाखंड भी बड़े पैमाने पर है
घबराहट और नाजुक स्थिति में आए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में गिनती भर के नायक हैं, मगर ज्यादातर जहां पर गुर्राना चाहिए वहां मिमियाने लगते हैं. जैसे ही पत्रकार को पता चलता है कि मुश्किल में पड़ने पर कोई साथी, बॉस या मालिक उसका साथ नहीं देगा तो उसे अपनी आजीविका की चिंता होने लगती है और उसकी रिपोर्ट की धार कुंद हो जाती है. कोई आश्चर्य नहीं है कि अरविंद केजरीवाल इतने अतिसंवेदनशील और अहंकारी हैं. जिन्हें उन पर अंकुश रखना था उन्होंने उन्हें खुला छोड़ दिया है. नीचे दिए गए APP के अवलोकनों से ज्यादा किसी की गिरावट और क्या होगी. 2021 में कम से कम छह पत्रकार मारे गए, 108 हमले का शिकार हुए और भारत में 13 मीडिया घरानों को निशाना बनाया गया. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा प्रेस का गला जम्मू कश्मीर में घोंटा गया जहां अक्सर पत्रकारों को थाने बुलाया जाता था, उन पर एफआईआर दर्ज होती थी, उनके घरों पर छापे पड़ते थे और अक्सर सुरक्षाबल उनकी पिटाई भी करते थे.
राइट्स एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) की इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2021 में कहा गया है कि भारत में जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और त्रिपुरा में सबसे ज्यादा पत्रकारों और मीडिया घरानों पर हमले हुए हैं. मारे गए छह पत्रकारों में से उत्तर प्रदेश और बिहार में दो-दो की हत्या हुई जबकि आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में एक-एक की मौत हुई.
इसे पढ़ें: अमेरिका की कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) ने प्रेस की स्वतंत्रता और मीडिया पर हमलों पर अपने वार्षिक सर्वेक्षण में कहा है कि 1 दिसंबर 2021 तक भारत में अपने काम के कारण चार पत्रकारों की हत्या कर दी गई जबकि पांचवें की "खतरनाक असाइनमेंट" के दौरान मृत्यु हुई. इसमें यह भी कहा गया कि 1 दिसंबर 2021 तक रिपोर्टिंग के कारण सात भारतीय मीडियाकर्मी सलाखों के पीछे पहुंचा दिये गए. और फिर सबसे कड़वी बात: इस हफ्ते जारी सीपीजे रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में इस साल अपने काम के लिए "बदले की भावना" से मारे गए पत्रकारों की संख्या सबसे अधिक है. अगर हम मीडिया को मूक और नपुंसक बनाने के मामले में नहीं जागे और इसी तरह से सत्ता में काबिज लोगों के इशारे पर आगे चलते रहे तो यह हमें अपने लिए गए या लिए जाने वाले शपथ से दूर ले जाएगा प्रयास करना, तलाश करना और किसी हाल में झुकना नहीं.
Rani Sahu
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