सम्पादकीय

ताज की ज़ात

Rani Sahu
6 Jun 2022 7:15 PM GMT
ताज की ज़ात
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अवध और काशी के बाद अब उन्होंने ताज की ज़ात पता लगाने के लिए देश भर में आंदोलन घड़ने का निर्णय लिया है

अवध और काशी के बाद अब उन्होंने ताज की ज़ात पता लगाने के लिए देश भर में आंदोलन घड़ने का निर्णय लिया है। ज़ाहिर है, घड़ा वही जाता है जो खड़ा नहीं हो सकता। एक आम आदमी जो अपने घर की मुमताज को ढंग की एक साड़ी या सूट ख़रीद कर नहीं दे सकता, उसके दिल में ताज देखने की हसरत तभी अंगड़ाइयां लेती है, जब उसकी बीवी उससे बरस-दो बरस तक ताज देखने के लिए इसरार करती रहे या उसकी जेब में चार पैसे जमा हो जाएं। महंगाई के दुःशासन से अपनी गृहस्थी की साड़ी संभालते उस बेचारे के पास कहां इतना वक्त है, यह सोचने का कि ताज के नीचे उसकी अपनी नींव है या वह किसी के कंधे पर पांव रख कर खड़ा है। वैसे अब शायद ही कोई मुमताज अपना ऐसा मकबरा बनवाना चाहे जो उसके जाने के बाद ताज जैसा बखेड़ा खड़ा कर दे। हां, इस बात की संभावना ज़्यादा है कि अब कोई मुमताज अपने शाहजहां को इतना प्यार करने दे कि उसके प्यार की चौदहवीं निशानी को दुनिया दिखलाने की जद्दोजहद में वह ख़ुद शहीद हो जाए। पता नहीं क्या सोच कर ताजमहल बनाने वाले ने उसके प्रवेश द्वार पर इन दर्शनपूर्ण पंक्तियों, 'हे आत्मा! तू ईश्वर के पास विश्राम कर।

ईश्वर के पास शांति के साथ रहे तथा उसकी परम शांति तुझ पर बरसे' को ख़ूबसूरत संगमरमर पर ख़ुदवाया होगा। अब तो मुद्दों की तलाश में भटकते बावरे हर आत्मा को ईश्वर के पास पहुंचाने के बंदोबस्त में रंग-बिरंगे चोले पहने घूम रहे हैं। जिस किसी भी व्यक्ति की आत्मा को विश्राम करना हो या परम शांति की दरकार हो, वह इनसे सम्पर्क कर सकता है। हां, यह बात दीगर है कि ये चोले किसी विदेशी आक्रमण के समय केवल यज्ञ-हवन करते या तमाशा देखते नज़र आएं। बेचारे ताज के संदर्भ में 'चार दिन की चांदनी फिर वही अंधेरी रात' कहावत भी असफल साबित हुई है। मुआ है ही इतना सुंदर कि लोग तस्वीरों में देख कर भी मोहित हो जाते हैं। उसकी ख़ूबसूरती की वजह से लोगों ने न जाने कितनी कहानियां गढ़ रखी हैं। लेकिन मकबरा होने के बावजूद वह केवल इश्क़ की ज़बान बोलता है।
पर लोग जि़ंदा होते हुए भी मुर्दा नज़र आते हैं। मुझे पूरा यक़ीन है कि सियासी रोटियां सेंकने वाले भी अपना हनीमून मनाने के लिए यहां ज़रूर आए होंगे। कई मर्तबा मुझे नब्बे के दशक के उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के 'वाह ताज! अरे हुज़ूर वाह ताज बोलिए' की पंच लाईन वाले ताजमहल चाय के उस विज्ञापन की याद आती है, जिसमें वह अपने नूडल बालों वाले सिर को हिलाते हुए तबला बजाते दिखते हैं और चाय किसी उत्साही कार्यकर्ता की तरह प्याली से बाहर छलकती हुई नज़र आती है। अगर यह विज्ञापन आजकल आया होता तो इसी बात पर आंदोलन खड़ा हो सकता था कि ताज चाय हिंदू है या मुसलमान। अगर हिंदू है तो उसका विज्ञापन एक मुसलमान कैसे कर सकता है और मुसलमान है तो उसे एक देशभक्त हिंदू कैसे पी सकता है। वैसे ताज को दुनिया के आठ अजूबों में शामिल करने के लिए पूरे विश्व में जितने वोट मिले थे, उससे ज़्यादा वोट तो हमारी उस एक ईवीएम में मिल सकते हैं जो कूड़े के ढेर में या इलेक्शन कराने वाले किसी बाबू की गाड़ी में मिलती है। कहते हैं कि ताज की वास्तुकला फारसी, तुर्की, भारतीय और इस्लामी घटकों के अनूठे संगम का मिश्रण है। लेकिन ताज की नींव में जिस ख़ास कि़स्म की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था, वह अब यमुना का जल स्तर कम होने की वजह से सूखती जा रही है, जिससे उसके वजूद पर ख़तरा मंडराने लगा है। लेकिन सियासत में इतनी फुरसत किसके पास है जो उसके ख़ुद गिरने का इंतज़ार करे। हम ताज की ज़ात का पता लगा ही चुके हैं। उसे गिराने के लिए वे चुनावी घटक काफी होंगे, जिनसे कुरसी के पाए मजबूत होते हैं।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

सोर्स- divyahimachal


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