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इस साल बरसात के शुरुआती दिनों से ही देश के विभिन्न इलाकों में तबाही मचनी शुरू हो गई। हालांकि बाढ़ में गांव के गांव डूब जाने, लोगों की छतों पर पनाह लेने, सैकड़ों घर बह जाने, लोगों के मारे जाने और करोड़ों-अरबों का नुकसान अब हर साल का एक स्थायी दृश्य-सा बन चला है, पर इस साल कुछ अधिक ही तबाही देखी जा रही है। अभी मध्यप्रदेश में बाढ़ ने जो विभीषिका रची है, उससे वहां की शासन-व्यवस्था की चूलें हिल गई हैं। वहां बाढ़ से करीब सवा बारह सौ गांव प्रभावित हैं। लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने में राहत और बचाव दल हलकान हैं।
प्रदेश के मुख्यमंत्री का कहना है कि पिछले सत्तर सालों में ऐसी बाढ़ कभी नहीं आई। राज्य के अलग-अलग जिलों में पिछले तीन दिनों में छह पुल बह गए, जिससे लोगों का संपर्क कट गया है। इनमें से चार पुल पिछले दस-ग्यारह साल पहले ही बने थे। इसलिए विपक्षी दलों को सरकार पर हमला बोलने का मौका मिल गया है। बताया जा रहा है कि बांधों से अचानक पानी छोड़े जाने की वजह से तबाही अधिक मची है। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ है, जब बरसात की वजह से मध्यप्रदेश में यह स्थिति पैदा हुई है। कई सालों से कमोबेश वहां तबाही का मंजर बन जाता है।
बाढ़ और बारिश से जीवन के अस्त-व्यस्त होने और भारी नुकसान की समस्या अकेले मध्यप्रदेश की नहीं है। देश के ज्यादातर राज्य इसकी चपेट में आ जाते हैं। पहाड़ों पर भूस्खलन से तबाही मचती है, तो मैदानी भागों में बाढ़ की वजह से। मगर इस समस्या के समाधान की दिशा में कोई ठोस उपाय नहीं निकाले जा पाते। ज्यादातर जगहों पर देखा जाता है कि बांधों के अचानक खोले जाने की वजह से अधिक परेशानी पैदा होती है। संबंधित महकमे इस बात से अनजान नहीं माने जा सकते।
आज जब बरसात का अनुमान पहले से लगाया जा सकता है, तो फिर बांधों में तब तक पानी क्यों भरते रहने दिया जाता है, जब तक कि वे उफनने नहीं लगते। उनसे पानी चरणबद्ध तरीके से क्यों नहीं निकाल दिया जाता। यही समस्या बिहार और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में भी देखी जाती है। बांधों की जल संग्रहण क्षमता के कम होते जाने का तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है। गाद भरते जाने की वजह से वे जल्दी लबालब हो जाते हैं। उन्हें साफ करते रहने का कोई उपाय अब तक नहीं तलाशा जा सका है।
दरअसल, बाढ़ की विभीषिका सरकारी कुप्रबंधन की वजह से ज्यादा भयावह रूप लेने लगी है। जब तीन दिन की बारिश में छह पुल पानी में बह जाते हैं, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस समस्या से पार पाने के लिए किस स्तर का निर्माण कार्य और प्रबंध किया जाता है। ज्यादातर मामलों में ऐसा क्यों होता है कि हाल के बने पुल ही बाढ़ में बह जाते हैं। सैकड़ों साल पहले बने पुल कैसे उसी बाढ़ को झेल जाते हैं।
जाहिर है, उनके निर्माण में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है, उन्हें बनाते वक्त न तो बाढ़, बारिश और उन पर पड़ने वाले वजन का ठीक-ठीक आकलन किया जाता है और न सामग्री की गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता है। यह केवल मध्यप्रदेश में नहीं हुआ है, बिहार में भी पिछले साल कई पुल इसी तरह बह गए। देश के दूसरे हिस्सों से भी पुलों के ढहने की खबरें मिलती रही हैं। जब तक सरकारें बरसात और बाढ़ से निपटने के लिए सुविचारित तैयारी नहीं करेंगी, तबाही का यह मंजर बनता रहेगा।