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मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 23वें अधिवेशन की जिस बात ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी,
By NI Editorial
हाल के दशकों में कम्युनिस्ट पार्टियां इस आलोचना से बचाव की मुद्रा में रही हैं कि उन्होंने दलित जातियों को नेतृत्व का हिस्सा नहीं बनाया। तो अब यह कमी दूर करने की कोशिश हो रही है। लेकिन यह एक तरह का प्रतीकात्मक कदम है। राजनीति में प्रतीकों का महत्त्व होता है, लेकिन वे दूर तक काम नहीं आते।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 23वें अधिवेशन की जिस बात ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी, वह यह है कि पार्टी के इतिहास में पहली बार एक दलित नेता को पार्टी की सर्वोच्च संस्था यानी पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाया गया है। रामचंद्र डोम पश्चिम बंगाल से पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। सात बार सांसद रह चुके हैं। लेकिन पोलित ब्यूरो में अब जगह मिली है। उस समय जब पार्टी दिग्भ्रमित अवस्था में नजर आती है। हाल के दशकों में कम्युनिस्ट पार्टियां इस आलोचना से बचाव की मुद्रा में रही हैं कि उन्होंने दलित जातियों को नेतृत्व का हिस्सा नहीं बनाया। तो अब यह कमी दूर करने की कोशिश हो रही है। लेकिन यह एक तरह का प्रतीकात्मक कदम है। राजनीति में प्रतीकों का महत्त्व होता है, लेकिन वे दूर तक काम नहीं आते। इसलिए कि असर किसी राजनीति में कंटेन्ट नहीं है, तो ऊपरी दिखावा कारगर नहीं होता। सीपीएम के सामने असल समस्या उस कंटेन्ट को तलाशने की है, जिसके अभाव के कारण उसका जनाधार क्षीण होता गया है। ये बात लगभग पूरे भरोसे से कही जा सकती है कि वह कारण पहचान की प्रतीकात्मक राजनीति नहीं है।
बहरहाल, 23वीं पार्टी कांग्रेस में सीताराम येचुरी को लगातार तीसरी बार पार्टी का महासचिव चुना गया। पोलित ब्यूरो पार्टी की सर्वोच्च संस्था है। हर तीन साल पर होने वाली पार्टी कांग्रेस के बाद 85 सदस्यीय केंद्रीय समिति पोलित ब्यूरो के सदस्य चुनती है। 63 साल के रामचंद्र डोम पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं और सात बार सांसद रह चुके हैं। वो पेशे से एक डॉक्टर हैं। वे पार्टी के मर्ज का कैसा इलाज प्रस्तुत करेंगे, यह देखने की बात होगी। बहरहाल, सीपीएम की हकीकत यह है कि सिकुड़ते हुए अब वह सिर्फ केरल में सत्ता में रह गई है। लोक सभा में इसके सिर्फ तीन सदस्य हैं। राज्य सभा में सिर्फ पांच। पश्चिम बंगाल में पार्टी कभी लगातार 34 सालों तक सत्ता में रही। लेकिन आज हाल ये है कि राज्य की विधान सभा में पार्टी का एक विधायक तक नहीं है। दूसरे राज्यों में भी पार्टी का जनाधार सिमटता जा रहा है। खुद येचुरी ने माना है कि भारत की आजादी के बाद पार्टी इस समय सबसे चुनौतीपूर्ण हालात का सामान कर रही है। तो पार्टी के नेतृत्व के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि वह कैसे एक बार फिर पार्टी मतदाताओं के सामने आकर्षक विकल्प पेश करे।
Gulabi Jagat
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