सम्पादकीय

प्रतीक और प्रतिनिधित्व

Gulabi Jagat
23 Jun 2022 5:25 AM GMT
प्रतीक और प्रतिनिधित्व
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सम्पादकीय
By NI Editorial
किसी समुदाय के विशेष के व्यक्ति को ऊंचे पद पर बैठा देने का यह कतई मतलब नहीं होता है कि उस समुदाय का सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण भी हो रहा हो। अब तक के अनुभव के आधार पर यह बेहिचक कही जा सकती है।
भारत में प्रतीक और प्रतिनिधित्व की सियासत तो आजादी के ठीक बाद से ही शुरू हो गई थी, लेकिन 1990 के दशक में आकर यही मुख्यधारा बन गई। नतीजा हुआ कि गरीब-अमीर के अर्थ में मुद्दों को देखने का चलन बेहद कमजोर हो गया। तब दलित-पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों को भी प्रतीकात्मक रूप से प्रतिनिधित्व देने की मांग जोर-शोर से उठने लगी और धीरे-धीरे वामपंथी दलों समेत सभी पार्टियों ने इसी व्याकरण को वास्तविक राजनीति समझ लिया। अब यह कहा जा सकता है कि इस नई बनी या बनाई गई परिस्थिति को समझने और उसे अपने अनुकूल ढालने में भारतीय जनता पार्टी/ आरएसएस सबसे कुशल साबित हुए। उन्होंने इसे सोशल इंजीनियरिंग कहा। ये परिघटना इस तरह आगे बढ़ी कि आरएसएस ने व्यापक हिंदुत्व अस्मिता को इस तरह ढाला जिसमें हिंदू समुदाय के अंदर आने वाली तमाम जातियों और जन जातियां समाहित होती चली गईं। अल्पसंख्यक अस्मिताओं को ढालने की उसे जरूरत नहीं थी, क्योंकि उन अस्मिताओं को 'शत्रु' के रूप में पेश कर ही उसने बाकी व्यापक हिंदू पहचान को आगे बढ़ाया था।
तो आज भाजपा यह दावा करने की स्थिति में है, उसने दलित-आदिवासी-ओबीसी को सर्वाधिक प्रतिनिधित्व दिया है। एक आदिवासी महिला- द्रौपदी मूर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बना कर उसने अपने इस दावे को और पुष्ट किया है। इसके पहले वह दलित पहचान के आधार पर देश में राष्ट्रपति बना ही चुकी है। अब ये आलोचना दीगर है कि ये प्रतिनिधित्व महज प्रतीकात्मक हैं। किसी समुदाय के विशेष के व्यक्ति को ऊंचे पद पर बैठा देने का यह कतई मतलब नहीं होता है कि उस समुदाय का सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण भी हो रहा हो। अब तक के अनुभव के आधार पर यह बेहिचक कही जा सकती है। वैसे कहा यह भी जा सकता है कि प्रतीक और जातीय/ सामुदायिक प्रतिनिधित्व की राजनीति का असल मकसद भी यही होता है। ये सियासत विकास और वर्गीय समानता के प्रश्न को हाशिये पर धकेल देती है। यही भारत में भी हुआ है। दलों के शक्ति-संतुलन को देखते हुए द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना लगभग तय ही है। जाहिर है, प्रतीकात्मक प्रतिनधित्व की समर्थक शक्तियों के लिए ये अच्छी खबर है।
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