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मोहन वर्मा: अनुभवों के आधार पर अगर यह कहा जाए कि जो सुख हमें आनंद देता है और जो दुख हमें अंतहीन नजर आता है, उनके मूल में अपेक्षा और उपेक्षा के वे झूले हैं, जिन पर हम हर क्षण झूलते रहते हैं। परिस्थितिजन्य अपनी स्थिति से कई बार खुश होते या स्थिति से गमगीन होते हमें नजर ही नहीं आता कि इसके पीछे वह अपेक्षा है, जो हम दूसरों से पाले हुए हैं या फिर उनके द्वारा की जा रही उपेक्षा हमें आहत किए दे रही है। मनुष्य की अपेक्षा होती है कि उसे लोगों का सम्मान मिलता रहे, वह जो चाहता है, वह सब कुछ आसानी से हो जाए।
कई बार कहीं न कहीं पढ़ने में आता रहा है कि न किसी से कोई अपेक्षा रखो और न किसी के द्वारा की गई उपेक्षा की परवाह करो। मगर भावनाओं की लहरों और तरंगों के आवेश में हर कोई हर बार इन शब्दों की अनदेखी करता है। बड़े-बड़े पंडालों में सत्संग सुनते, ज्ञान देती पुस्तकों में सुकून ढूंढ़ते हम अगर और कुछ न करके सिर्फ अपेक्षा और उपेक्षा के झूले झूलना बंद कर दें या कम कर दें तो हमारी अधिकांश समस्याएं खुद-ब-खुद सुलझ जाएंगी। मगर हम ऐसा करने की कोशिश नहीं करते।
हमारे सामने जो दुनिया है, वह जादू भरी है। जैसी दिखाई देती है वैसी है नहीं और जैसी है वैसी दिखाई नहीं देती। जितना आप इससे निर्लिप्त होने की कोशिश करेंगे उतनी ही यह आपको अपनी तरफ खींचेगी। इसे जितना पाने की कोशिश करेंगे, उतनी ही यह आपसे दूर होती जाएगी। इसे एक मृगतृष्णा कह सकते हैं।
चूंकि हरेक व्यक्ति भावनाओं का पुतला है। भावनाओं की पल-पल उठती तरंगें यहां-वहां इसके, उसके पास दौड़ाती रहती हैं। भीतर के बजाय बाहर का आकर्षण और चकाचौंध हमें ज्यादा आकर्षित करता है। इससे, उससे की जाने वाली अपेक्षा और जादुई दुनिया द्वारा की जाने वाली उपेक्षा ही हमें उत्साहित और निराश करती है या कहें तो सुखी या दुखी करती है।
एक मशहूर गायक की नायाब गजल की पंक्तियां हैं- 'दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है'। अपेक्षा पूरी हो गई तो समझो सोना पा लिया और उपेक्षा हो गई तो सब कुछ मिट्टी की मानिंद लगता है। आत्मज्ञान की बड़ी-बड़ी बातों में जितनी बार माया मोह से दूर रह कर निर्लिप्त होने की बात कही गई है, उतनी ही बार यह भी कहा गया है कि यह सब मुश्किल तो है, मगर असंभव नहीं।
भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- 'व्यवहार में प्रिय अप्रिय अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर भी जो हर्ष और शोक नहीं करता, वह मोह रहित स्थिर बुद्धिवाला और ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य परमात्मा में ही स्थित रहता है।
जो बाह्य पदार्थों में आसक्ति नहीं करता वह अपने आप में स्थित सात्विक सुख को प्राप्त कर लेता है। जिसने अपने आप को जीत लिया है वह प्रारब्ध के अनुसार आने वाली अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्मों की सफलता-विफलता में दूसरों द्वारा किए मान-अपमान में निर्विकार रहता है।'यहां पूरी विनम्रता से यह सच भी स्वीकार करना होगा कि निर्विकार रहने में सिर्फ और सिर्फ अपेक्षा और उपेक्षा की अनदेखी करना एकमात्र रास्ता है, जो बहुत आसान नहीं है। पंडालों में ज्ञान बांटते बड़े-बड़े ज्ञान सागरों को भी आसानी से अपेक्षा और उपेक्षा से विचलित होते देखा जा सकता है, तो आम आदमी की क्या बिसात।
दरअसल, अपेक्षा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो चाहे-अनचाहे हर व्यक्ति किसी न किसी से करता ही करता है। चूंकि हम सब सामाजिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं और सामाजिक ताने-बाने में किसी की किसी से कोई अपेक्षा ही न हो यह भी संभव नहीं। मगर अपेक्षा किससे, कब, कितनी की जानी चाहिए यह महत्त्वपूर्ण है। ऐसे ही हमारे व्यवहार से जुड़ा है उपेक्षा का भाव। कब, कौन, किस परिस्थिति में क्यों हमारे साथ उपेक्षित व्यवहार कर रहा है, यह समय रहते जानना और समुचित कदम उठा कर बचना जरूरी है।
जीवन में हरेक इंसान सुकून से जीना चाहता है। एक बार मिले मनुष्य जीवन में धन, संपदा, नाम, यश, कीर्ति और अमर हो जाने की कामना रखता है। हर तरह की बाधा, दुख, दरिद्रता, परेशानियों का कभी सामना न करना पड़े, यह अंतहीन चाहत भी बनी रहती है। मगर दुनिया में रह कर दुनियादारी निभाते हुए सब कुछ मन के हिसाब से ही हो, यह संभव नहीं होता। दुनियादारों से अपेक्षा भी रखनी पड़ती है और कई बार उपेक्षा का मुंह भी देखना पड़ता है। और बस यहीं से जुड़ी होती है दुखी और सुखी होने की कहानी। यह रास्ता थोड़ा मुश्किल तो है, पर असंभव नहीं।