सम्पादकीय

स्वामी श्रद्धानंद : अछूतोद्धार के लिए डॉक्टर अंबेडकर भी जिनके कृतज्ञ थे

Tara Tandi
26 Jun 2021 2:16 PM GMT
स्वामी श्रद्धानंद : अछूतोद्धार के लिए डॉक्टर अंबेडकर भी जिनके कृतज्ञ थे
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स्वामी श्रद्धानंद समाप्त होती 19वीं सदी और शुरू होती

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | शंभूनाथ शुक्ल | स्वामी श्रद्धानंद समाप्त होती 19वीं सदी और शुरू होती 20वीं सदी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली, तेजस्वी, प्रखर वक्ता, विद्वान और समाजसेवी थे. अगर वह राजनीति में बने रहते, तो सारे नेता उनसे पीछे होते. अछूतोद्धार उनकी ही परिकल्पना थी. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है, "स्वामी जी दलितों के सर्वोंत्तम हितकर्ता व हितचिन्तक थे." बाबा साहेब अम्बेडकर ने 1945 के 'कांग्रेस और गांधी जी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया?' नामक ग्रंथ में यह बात कही है, (पृष्ठ 29-30). कांग्रेस में रहते हुए स्वामी जी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है. कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी. उस समिति में स्वामी जी का समावेश था.

अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी मांग की थी, परन्तु उनकी मांग अस्वीकृत कर दी गई. अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृष्ठ 29). उक्त ग्रन्थ में स्वामी जी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, 'स्वामी श्रद्धानन्द एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण और दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा.' (पृष्ठ 223).
कौन थे स्वामी श्रद्धानंद
स्वामी श्रद्धानंद का जन्म पूर्वी पंजाब के जालंधर जिले के गांव तलवान में 22 फ़रवरी 1856 को एक खत्री परिवार में हुआ था. उनके पिता नानकचंद विज यूनाइटेड प्रोविंस (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस इंस्पेक्टर थे. स्वामी श्रद्धानंद के घर का नाम मुंशीराम और स्कूल का नाम बृहस्पति विज था. बाद में मुंशीराम चला. मुंशीराम जी की पढ़ाई-लिखाई उत्तर प्रदेश के बनारस और बरेली शहरों में हुई. उन्हें महात्मा की उपाधि गांधी जी ने दी और वे महात्मा मुंशीराम के नाम से जाने जाने लगे. वर्ष 1917 में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और वे स्वामी श्रद्धानंद के रूप में जाने गए.
बचपन की एक घटना ने उनके अंदर अस्पृश्यता को लेकर घृणा पैदा कर दी
पहले वे भी 19वीं सदी के तमाम प्रतिभाशाली नवयुवकों की तरह नास्तिकवादी थे. उनके जैसा साहस, धैर्य और ईमानदारी उस समय के किसी भी लोक नायक में नहीं मिलती. उन्होंने अपनी जो जीवनी लिखी है, उसमें सच को जिस तरह और जिस बेरहमी से दिखाया है, वह दुर्लभ है. पहले मैं भी गांधी जी की जीवनी- "सत्य के मेरे प्रयोग" को सबसे ईमानदार आत्म कथा समझता था. पर गांधी जी कई बार उन्हीं घटनाओं का सच्चाई के साथ वर्णन करते प्रतीत होते हैं, जो उनकी राजनीतिक विचारधारा को पुष्ट करें. धर्म, समाज और अंध विश्वास तथा व्याभिचार पर वे चलताऊ रवैया अपनाते हैं. जबकि स्वामी श्रद्धानंद कड़ा प्रहार करते हैं.
उनके पिता 1857 के ग़दर के समय संयुक्त प्रांत के किसी शहर, संभवतः बनारस में ईस्ट इंडिया सरकार के कोतवाल थे और वे उनकी निर्ममता के बारे में विस्तार से लिखते हैं. उन्होंने लिखा है, कि बनारस के जिस लाहौरी मोहल्ले में उनका घर था, वहां एक दिन अनजाने में उन्होंने किसी भंगिन को छू लिया. पड़ोसी हिंदुस्तानी खत्रियों ने हंगामा कर दिया. पंजाब की होने के कारण उनकी मां छुआ-छूत का यूपी वालों जैसी कड़ाई से पालन नहीं करती थीं. लेकिन जन दबाव के चलते भयंकर ठंड में उन्हें बालक मुंशीराम को स्नान करवाना पड़ा. इससे उनके अंदर अस्पृश्यता को लेकर घृणा पैदा हुई. इसी तरह आगे वे लिखते हैं, कि एक दिन सुबह-सुबह वे गंगा नहाने के लिए कांधे पर धोती डाले जा रहे थे. रास्ते में एक मठ से उन्होंने एक स्त्री की चीख सुनी. दौड़ कर वे वहां गए, तो स्वयं महंत को पापकर्म में लिप्त देखा. उन्होंने उस महंत को गर्दन से धर-दबोचा. पहले तो महंत के चेले आए, पर यह पता चलने पर कि इस किशोर के पिता शहर कोतवाल हैं, वे भाग निकले.
एक पादरी को ईश प्रचार करते समय इसी तरह के कुछ असामाजिक कार्यों में धुत देख, उन्हें ईश्वर और उनके इन कथित पुरोहितों से नफरत हो गई. बाद में उनके पिता का तबादला बरेली हो गया. वहां उन्होंने एक दिन स्वामी दयानंद को प्रवचन करते सुना और उन्हें लगा, कि इस व्यक्ति में कुछ दम है. और वे स्वामी जी के तर्कों को सुन कर उनके अनुगामी बन गए.
स्वामी श्रद्धानन्द जी को सबसे पहले गांधी जी ने 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया
सन् 1901 में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान, गुरुकुल, कांगड़ी की स्थापना की. हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया. गांधी जी तब दक्षिण अफ़्रीका में संघर्षरत थे. मुंशीराम विज जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर गांधी जी को भेजे. गांधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे और मुंशीराम विज और राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे.
महात्मा गांधी ने सबसे पहले स्वामी श्रद्धानन्द जी को महात्मा की उपाधि से विभूषित किया. उन्होंने उर्दू और हिंदी में दो समाचार पत्र भी प्रकाशित किए. जलियांवालाकांड के बाद अमृतसर में जब कांग्रेस का 34वां अधिवेशन( दिसंबर 1919 ) में हुआ, तब स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया. उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए खूब ज़ोर दिया. 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली के जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था.
गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये आन्दोलन 'शुद्धि' चलाया
स्वामी श्रद्धानन्द के कांग्रेस के साथ मतभेद तब हुए जब उन्होंने कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चलते देखा. कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे. स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया. उन्होंने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये आन्दोलन चलाया, जिसका नाम शुद्धि था. स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाजी थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय और पुरी की गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था.
23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी व्यक्ति ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके उनकी गोली मार कर हत्या दी थी. बाद में उसे फांसी की सजा हुई. गांधी जी ने गुवाहाटी अधिवेशन में कांग्रेस के मंच से स्वामी श्रद्धानंद को श्रद्धांजलि अर्पित की थी.


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