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- निलंबन निराधार
महाराष्ट्र विधानसभा से भाजपा के बारह विधायकों के निलंबन को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया है। इसे स्वाभाविक ही महाराष्ट्र महाअघाड़ी सरकार को झटके के रूप में देखा जा रहा है। मगर इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी अधिक गंभीर है और उसे नजीर की तरह याद रखा जाना चाहिए।
दरअसल, मानसून सत्र के दौरान महाराष्ट्र विधानसभा में सभापति के साथ अभद्रता करने के आरोप में भाजपा के बारह विधायकों को एक साल के लिए निलंबित कर दिया गया था। इस फैसले का भाजपा ने पुरजोर विरोध किया। विपक्ष का कहना था कि निलंबन से पहले संबंधित विधायकों का पक्ष तक सुनने की जरूरत नहीं समझी गई। फिर उस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई, जिस पर यह फैसला आया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस तरह निलंबन का फैसला तो निष्कासन से भी बुरा है। इसे किसी भी रूप में संवैधानिक नहीं कहा जा सकता। अधिक से अधिक उसी सत्र तक के लिए उन विधायकों का निलंबन किया जा सकता था। साल भर के लिए निलंबन का अर्थ है कि उतने दिन तक वे अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं हैं। यानी वे सभी क्षेत्र बिना प्रतिनिधि के हैं।
स्वाभाविक ही इस फैसले को राज्यसभा से निलंबित सांसदों को लेकर हुए विवाद से भी जोड़ कर देखा जाने लगा है। गौरतलब है कि मानसून सत्र में ही ठीक इसी तरह राज्यसभा के कुछ विपक्षी सांसदों को सदन में अमर्यादित आचरण के आरोप में निलंबित कर दिया गया था। तब सदन में हाथापाई हो गई थी और विपक्षी सांसदों को सुरक्षाबलों के जरिए बाहर निकालना पड़ा था।
फिर जब शीत सत्र शुरू हुआ, तब भी उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर रहने को कहा गया। इस पर विपक्ष ने जम कर हंगामा किया और सदन के बाहर धरना-प्रदर्शन करते रहे। सत्तापक्ष का तर्क था कि सदन कभी समाप्त नहीं होती, इसलिए सांसदों का निलंबन तब तक बना रहेगा, जब तक कि वे लिखित रूप में माफी नहीं मांगते। इसे लेकर दोनों पक्ष कानूनी नुक्ते पेश करते रहे, मगर निलंबित सांसदों को कार्यवाही से बाहर ही रखा गया।
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद सवाल उठता है कि क्या यही बात राज्यसभा के सांसदों पर लागू नहीं होती! जो हो, पर हकीकत यही है कि अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से महाराष्ट्र के विधायकों और राज्यसभा के सांसदों के सदन की कार्यवाही से बाहर रहने से जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। पर आने वाले वक्त में इसका ध्यान तो रखा ही जा सकता है।
सदन से प्रतिनिधियों के निलंबन का फैसला कई बार सत्तापक्ष सियासी हथकंडे के रूप में करते हैं। जब कभी सरकारों को लगता है कि किसी विषय पर जरूरी बहुमत हासिल करना मुश्किल होगा, तब वह किसी न किसी बहाने विपक्षी प्रतिनिधियों को सदन से बाहर करने का प्रयास करती हैं, ताकि उनके पक्ष के लोगों के मतदान से ही कानून पारित करा लिया जाए।
यों भी सदन में विपक्ष की मौजूदगी जितनी कम रहती है, सत्तापक्ष के लिए उतनी ही आसानी होती है। विडंबना है कि इस कोशिश के चलते पिछले कुछ सालों से संसद और विधानसभाओं में बगैर चर्चा के कानून पास करा लेने की परंपरा गाढ़ी होती गई है। इस तरह बने कानून विवाद का विषय बनते हैं। यह प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं कही जा सकती।