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राज्यसभा उपचुनाव राम विलास पासवान के निधन से खाली हुई सीट के लिए होना है
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। राष्ट्रीय जनता दल ने निर्णय किया है कि वह बिहार में अगले महीने होने वाले राज्यसभा उपचुनाव में अपना उम्मीदवार उतारेगी, जो कि पार्टी के लिए एक बड़ी भूल साबित हो सकती है. राज्यसभा उपचुनाव राम विलास पासवान के निधन से खाली हुई सीट के लिए होना है. नामांकन भरने का आखिरी दिन 3 दिसंबर है और अगर जरूरत पड़ी तो मतदान 14 दिसंबर को होगा जिसमें प्रदेश के नव-निर्वाचित विधायक मतदान करेंगे. सत्तारूढ़ एनडीए की तरफ से भारतीय जनता पार्टी ने बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को अपना उमीदवार घोषित किया है, जबकि खबरों के अनुसार आरजेडी में दो नामों पर चर्चा चल रही है–पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और वरिष्ट नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी.
अब्दुल बारी सिद्दीकी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में हार गए थे. पार्टी उनके मार्फत अपने मुस्लिम मतदाताओं को खुश करना चाहती है. आरजेडी के संस्थापक लालू प्रसाद यादव की 'भूराबाल' वाली बात जिसमें उन्होंने अपने राज्यकाल में चार अग्रिम जातियों भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को टारगेट किया था, को बिहार अभी भी भुला नहीं है. जगदानंद सिंह को राज्यसभा में भेज कर शायद आरजेडी उस बात का प्रायश्चित करना चाहती है. विधानसभा चुनाव खत्म होते ही आरजेडी को यकायक अग्रिम जातियों की याद आई है. बुधवार को हुए विधानसभा स्पीकर पद के चुनाव में महागठबंधन की तरफ से आरजेडी ने भूमिहार नेता अवध बिहारी चौधरी को अपना उम्मीदवार बनाया था पर जीत एनडीए के उम्मीदवार विजय कुमार सिन्हा की हुई.
243 सदस्यों वाले बिहार विधानसभा में महागठबंधन के 110 विधायक ही हैं. अगर मान भी लिया जाए कि AIMIM, एलजेपी और बीएसपी के विधायकों का भी महागठबंधन को समर्थन मिल जाए, फिर भी उनकी संख्या अपर्याप्त होगी. यानी अगर राज्यसभा उपचुनाव जीतना है तो एनडीए के विधायकों को तोड़ना पड़ेगा. और यहीं आरजेडी नेतृत्व या यूं कहें कि तेजश्वी यादव की राजनीतिक अपरिपक्वता झलकती है. विधानसभा स्पीकर पद के चुनाव के ठीक पहले लालू प्रसाद यादव ने एनडीए को तोड़ने की जोरदार लेकिन असफल कोशिश की. नतीजा यह हुआ कि लालू को रांची के एक बंगला से वापस अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भेज दिया गया. अब लालू के बेटे तेजश्वी एनडीए के विधायकों को तोड़ने की कोशिश करते दिख सकते हैं.
राज्यसभा चुनाव गुप्त मतदान द्वारा होता है जिसमें अक्सर क्रॉस वोटिंग देखी जाती है. क्रॉस वोटिंग के लिए पैसों का आदान-प्रदान होता है, जिसे हॉर्स ट्रेडिंग भी कहा जाता है. एक-एक विरोधी विधायक को वोट डालने के लिए करोड़ों रुपये दिए जाते हैं. यह गलत परंपरा काफी वर्षों से चली आ रही है. कुछ पार्टियां जैसे कि बीएसपी और आम आदमी पार्टी पर यह आरोप भी लगता रहा है कि राज्यसभा चुनाव में उनका टिकट बिकता है और जो सबसे ज्यादा पैसे देता है, टिकट उसी को दिया जाता है. एक मायने में राज्यसभा चुनाव में वह सब गैर क़ानूनी बात होती है जिसके बारे में भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी सोची भी नहीं होगी. बड़े-बड़े उद्योगपति या फिर उनके चुनिंदे निर्दलीय नेता चुनाव लड़ते हैं और पैसों के दम पर राज्यसभा पहुंच भी जाते हैं. उनका काम होता है अपने सेठ के लिए राजनीतिक गलियारों में लॉबिंग करना.
रही बात क्रॉस वोटिंग के लिए विधायक खरीदने की तो तेजश्वी यादव यहां भूल करने जा रहे हैं. बीजेपी के पास पैसों की कमी नहीं है. हालांकि बीजेपी गुजरात में कांग्रेस के नेता अहमद पटेल को क्रॉस वोटिंग के जरिये हराने में असफल रही है. अब बीजेपी को पैसों के बल पर विधायक खरीदने और तोड़ने की कला में महारत हासिल हो गई है. पहले इसका श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता था. गोवा हो या फिर कर्नाटक, जिस तरह से बीजेपी की सरकार दोनों राज्यों में बनी उसमें अघोषित बड़ी रकम के लेनदेन का आरोप लगता रहा है. केंद्र में जिस दल की भी सरकार हो उनके पास पैसों की कमी नहीं होती. सवाल यही है कि क्या आरजेडी के पास इतना संसाधन है कि वह एनडीए के विधायकों को खरीद सके और क्रॉस वोटिंग के माध्यम से अपने उम्मीदवार को राज्यसभा भेज सके?
इसके विपरीत बीजेपी के पास सबकुछ है और सबसे बड़ी बात है मूंछ की लड़ाई. जब सुशील मोदी को एक बार फिर से उप-मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो उस समय ही यह बात सामने आई थी कि उन्हें राज्यसभा भेजा जाएगा और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में सुशील कुमार मोदी को मंत्री पद दिया जाएगा. सुशील कुमार मोदी बिहार बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं और उनकी हार बीजेपी के लिए बहुत बड़ा झटका होगा जिसका असर असम और पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव पर भी हो सकता है. बीजेपी विधायकों की खरीद-फरोख्त में माहिर मानी जाती है. एक संभावना यह भी है कि उलटे महागठबंधन के कुछ विधायक सुशील मोदी के पक्ष में वोट डाल सकते हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर अप्रैल-मई में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के कुछ विधायक बीजेपी में शामिल होते दिखें.
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