सम्पादकीय

सुशील कुमार शिंदे का ब्लॉग: न सत्ता के लिए उठापटक, न पद का मोह

Rani Sahu
2 July 2022 5:51 PM GMT
सुशील कुमार शिंदे का ब्लॉग: न सत्ता के लिए उठापटक, न पद का मोह
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जवाहर लाल दर्डा जी के राजनीति में प्रवेश करने से पहले मेरी उनसे एक बार मुलाकात हुई थी


By लोकमत समाचार सम्पादकीय
जवाहर लाल दर्डा जी के राजनीति में प्रवेश करने से पहले मेरी उनसे एक बार मुलाकात हुई थी। उस समय वे हाउसिंग फाइनेंस के चेयरमैन थे और फोर्ट में एक पुरानी इमारत में बैठते थे। किसी हाउसिंग सोसायटी के मसले को लेकर मैं उनसे मिलने के लिए गया था। पहली ही मुलाकात में मुझे जवाहर लाल जी भा गए थे। उनका स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा और मैंने सोचा, 'इस आदमी में कुछ बात है'।
उसके बाद 1974 में विधायक बना, फिर वह भी विधायक बन गए। उसके बाद मंत्री बने और फिर हमारी नजदीकी बढ़ी। 1981-82 के दौरान महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री एआर अंतुले को इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद बाबा साहब भोसले मुख्यमंत्री बने। हम सभी उनकी सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे लेकिन एक बार उन्होंने विधायकों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। हम सभी नाराज हो गए और उन्हें पदच्युत करने की मुहिम छेड़ दी।
1982-83 की 'भोसले हटाओ' मुहिम में जवाहर लाल दर्डा, रामराव आदिक, औरंगाबाद के बाला साहब पवार जैसे अनेक लोग शामिल हुए। बाबा साहब द्वारा अपशब्दों के प्रयोग के कारण 'भोसले विरोधी' गुट ने तय किया कि विधानसभा में मैं विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पेश करूंगा और नानाभाऊ एंबडवार उसका अनुमोदन करेंगे। विधान परिषद में इसे जवाहर लाल जी प्रस्तुत करेंगे।
उस जमाने में लगभग रोज ही बाबूजी के घर में बैठक होती थी। उनके 'लोकमत'का शानदार दफ्तर था। वहीं हमारी बैठकें होती थीं। मैंने विधानसभा में मुख्यमंत्री के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव रखा। श्री दर्डा ने विधान परिषद में वही प्रस्ताव रख दिया। कांग्रेस के मुख्यमंत्री के विरुद्ध कांग्रेस के ही विधायकों द्वारा विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव रखे जाने के कारण इसकी बड़ी चर्चा हुई।
बाबूजी सब कुछ चुपचाप कर रहे थे, फिर सरकार बदली। भोसले की रवानगी हुई, वसंत दादा आए। नई सरकार में बाबूजी मंत्री बने और मैं भी मंत्री बना। महाराष्ट्र की प्रगति के लिए काम होने लगे। इतना सब कुछ होने के बाद भी बाबा साहब भोसले और हमारे बीच कभी कटुता नहीं आई।
बाबूजी के दोनों सुपुत्रों-विजय और राजेंद्र ने बाबूजी द्वारा शुरू किए गए 'लोकमत' की जिम्मेदारी उठाई और उनकी अपेक्षा के अनुरूप ही समाचार पत्र को पूरे महाराष्ट्र में लोकप्रिय बनाया।
बाबूजी के बाद विजयबाबू राज्यसभा के सदस्य बने, राजेंद्रबाबू महाराष्ट्र में मंत्री बने। बाबूजी की कांग्रेस संबंधी विचारधारा को उनके दोनों सुपुत्रों ने 'लोकमत' के माध्यम से सर्वत्र प्रसारित किया।
बाबूजी जीवन-भर कांग्रेस के प्रति निष्ठावान बने रहे। नेहरू, इंदिरा, राजीव-इन तीनों पीढ़ियों के महाराष्ट्र कांग्रेस के साक्षी केवल जवाहरलाल दर्डा हैं और बाबूजी इन तीनों नेताओं के साथ खड़े रहे। बाबूजी ने सत्ता के लिए न तो कोई उठापटक की, न ही सत्ता मिलने के बाद उसका कोई मोह रखा, न सत्ता का घमंड किया।
मैं उन्हें एक संतुलित विचारों वाले राजनेता के रूप में देखता हूं। उन्होंने अपने प्रत्येक विरोधी का सम्मान किया। अपने समाचार पत्र का अपने हित के लिए कभी उपयोग नहीं किया। किसी के चरित्र हनन के लिए अपने समाचार पत्र का न तो स्वयं उपयोग किया, न पुत्रों या संपादकों को ऐसा करने दिया।
बाबूजी कलाप्रेमी थे, प्रकृति से उन्हें लगाव था और इसीलिए उनका जीवन बहुत संतुलित था। न तो वह कभी सत्ता के पीछे भागे, न मंत्री पद गंवाने के बाद शोक मनाया। उनके पास करने के लिए बहुत सारे काम थे। इसी प्रकृति प्रेम के कारण उन्होंने यवतमाल में शानदार ढंग से खेती की और बगीचा बनाया। रायगढ़ जिले के कर्जत के पास भिलवले में उनके बगीचे को देखने के बाद कहना मुश्किल होगा कि 'यह व्यक्ति राजनीति में आकंठ डूबा हुआ है'।
उनमें और मुझमें बड़ी समानताएं थीं। हम दोनों को खेती-बागवानी का शौक था। राजनीति से फुरसत मिलने पर वह और मैं-दोनों ही अधिक प्रसन्न रहते थे, जो काम हाथ में आ जाए उसे जी-जान लगाकर पूरा करने की जिद बाबूजी में थी। काम खत्म होते ही तुरंत उससे अपना मन हटा भी लेते थे। ऐसी निर्लिप्तता, स्थितप्रज्ञता प्राप्त करने के लिए साधना जरूरी है।
मैं उन्हें एक आदर्श राजनेता मानता रहा हूं। राजनीतिक जीवन के बाहर जीवन का आनंद है और उसका उपभोग करना सीखना होगा। यह बात हम दोनों ने अच्छी तरह से समझ ली थी। मैं यह मानता हूं कि इस मामले में बाबूजी मुझसे एक कदम आगे ही थे।
बाबूजी दोस्ती निभाने वाले लोगों में से थे। वसंतराव नाईक और उनकी मित्रता जगप्रसिद्ध थी, लेकिन राजनीतिक कसौटी पर मौका आने पर उनसे अलग होने के लिए बाबूजी को जरा भी समय नहीं लगा। राजनीतिक रूप से मतभेद के बावजूद व्यक्तिगत दोस्ती में लेशमात्र अंतर नहीं आया। ऐसे अवसरों पर निर्णय लेना कठिन काम होता है।
पवार साहब मुझे राजनीति में लेकर आए लेकिन राजनीतिक निर्णय लेते समय मैं कांग्रेस, इंदिरा जी, राजीव जी और बाद में नरसिंह राव से अलग नहीं हो पाया। राजनीति में मजबूत कदमों से आगे बढ़ते रहने के पीछे मेरी प्रेरणा बाबूजी ही रहे।
पुराने लोग प्रकृति के नियमानुसार हमसे दूर भले ही हो जाएं, लेकिन उनकी सिद्धांतप्रियता समय पर अपने निशान छोड़ जाती है। जवाहरलाल दर्डा ऐसे ही एक नेता थे, उन्हें मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।
Rani Sahu

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