सम्पादकीय

सर्वे से पता चलता है कि मातृभाषा में पढ़ने वाले छात्र बेहतर प्रदर्शन करते हैं, तो दूसरी भाषा में शिक्षा का दबाव क्यों

Rani Sahu
2 May 2022 9:54 AM GMT
सर्वे से पता चलता है कि मातृभाषा में पढ़ने वाले छात्र बेहतर प्रदर्शन करते हैं, तो दूसरी भाषा में शिक्षा का दबाव क्यों
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राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 शिक्षा में बहुभाषावाद (Multilingualism in India) के महत्व के प्रति समर्पित है

बिजोयेत्री समादर

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 शिक्षा में बहुभाषावाद (Multilingualism in India) के महत्व के प्रति समर्पित है. यह मानता है कि किसी व्यक्ति की घरेलू भाषा उनके राज्य की स्थानीय भाषा से भिन्न हो सकती है. नीति यह भी रेखांकित करती है कि जहां भी संभव हो कम से कम कक्षा 5 तक शिक्षा का माध्यम घरेलू भाषा या मातृभाषा (Mother Tongue) या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा होनी चाहिए. इस लेख में कुछ और फैक्ट्स की चर्चा करेंगे जो हमें इस निर्देश के महत्व और इसके कार्यान्वयन में कुछ संभावित कठिनाइयों पर सबका ध्यान आकर्षित हो सके. स्कूल में भाषा पर डेटा राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (2012) देश में 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) के 6,602 स्कूलों में 122,543 कक्षा 5 के छात्रों के बीच किया गया एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण है.

सर्वे में एक क्वेश्चनायर के माध्यम से बच्चों की गणित समझने की क्षमता , पढ़ने की समझ और पर्यावरण विज्ञान को समझ को मापने की कोशिश की गई . सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि घर पर बोली जाने वाली भाषा और स्कूल में मिलने वाली शिक्षा की भाषा समान होना कितना महत्वपूर्ण होता है. समान भाषा होने पर छात्र के बेहतर प्रदर्शन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. सर्वे में उन छात्रों के बीच अंतर पर भी प्रकाश डाला गया है जो घर पर वही भाषा बोलते हैं जिस भाषा में स्कूलों में पढ़ाया जाता है (66 प्रतिशत) और जिनकी भाषा घर और स्कूल में अलग-अलग है (34 प्रतिशत).सर्वे के निष्कर्षों से अनुमान लगाया जा सकता है, जो शिक्षा की भाषा और घरेलू भाषा के बीच सीधा संबंध है. जिसके चलते 34 प्रतिशत बच्चे नुकसान में थे.
नीचे दिए गए चार्ट में सभी राज्यों (असम और लक्षद्वीप को छोड़कर) के 6722 स्कूलों में 2014 में राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के लिए नमूने लिए गए. कक्षा 8 के सभी छात्रों के साथ-साथ उन लोगों पर फोकस किया गया है, जो घर पर वही भाषा नहीं बोलते थे जिस भाषा में उन्हें स्कूलों में शिक्षा मिल रही थी. भारत के 110,000 स्कूलों में कक्षा 3, 5 और 8 में लगभग 2.2 मिलियन छात्रों के साथ 2017 के राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण में पाया गया कि जिन छात्रों को उनके घरों में बोली जाने वाली भाषा में पढ़ाया जाता है, वे अच्छा परफार्मेंस दिखाते हैं. यह फैक्ट बताता है कि छात्रों के सीखने के परिणामों में सुधार के लिए बनी नीति में बहुभाषावाद की जरूरत कितनी अहम है.
इथियोपियाई अनुभव
इथियोपिया के शिक्षा मंत्रालय ने सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को अपनाने के लिए बहुभाषी दृष्टिकोण अपनाने की भी मांग की है.
भारत की तरह ही, इथियोपिया कई भाषाओं वाला देश है. केवल एक इथियोपियाई राज्य SSNP ( साऊदर्न नेशन, नेशनलिटी ऑफ पीपल्स) में 56 भाषाएं बोली जाती हैं. इथियोपिया के कई राज्यों में अलग-अलग भाषा बोलने वाले जातीय समूह हैं जो एक-दूसरे के करीब रहते हैं. यद्यपि एक विशेष इथियोपियाई राज्य शिक्षा के आधिकारिक माध्यम के रूप में भाषाओं की एक विस्तृत श्रृंखला को अपना सकता है, फिर भी कई अन्य भाषाएं बोली जा सकती हैं जो पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं. इसलिए, बड़ी संख्या में बच्चे ऐसी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं जो उनकी मातृभाषा नहीं है.
शायद पॉलिसी के इरादे से थोड़ा विपरीत है (सीड, 2017). इथियोपिया में प्राथमिक विद्यालय के छात्र प्रदर्शन पर यंग लाइव्स नामक संगठन द्वारा एकत्र किए गए डेटा का उपयोग करते हुए यारेड सीड द्वारा इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर (आईजीसी) में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जिन बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है, वे अपने साथियों की तुलना में गणित में बेहतर प्रदर्शन करते हैं उनके मुकाबले जिन्हें उनकी मातृभाषा में नहीं पढ़ाया जाता . इससे साथियों के बीच सीखने में अंतर होता है. आगे देखा जाता है कि जो लोग अपनी मातृभाषा में सीखना शुरू करते हैं, वे बाद में सीखने में बेहतर प्रदर्शन दिखाते हैं, खासकर अंग्रेजी सीखने के दौर में.
इथियोपिया का मामला किसी की मातृभाषा में सीखने के महत्व पर प्रकाश डालता है. यह भाषाई रूप से विविध संदर्भों में ऐसी नीति को लागू करने का एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी सामने लाता है जहां किसी विशेष क्षेत्र में सभी बोली जाने वाली भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना (प्रशासनिक या अन्य) संभव नहीं है, जिससे चलते कुछ बच्चों की शिक्षा में सहायता मिलती है पर दूसरी भाषाओं वाले बच्चों को कोई फायदा नहीं होता.
फिलीपींस में हुए शोध से भी मिले सबूत
2022 में हार्डन एट अल की ओर से 160 स्कूलों में जिसमें 183 बोलने वाली भाषाएं आती हैं, में हुए अध्ययन में किंडरगार्टन से कक्षा तीन तक स्कूलों में शिक्षा की भाषा के रूप में मातृ भाषा को शामिल करने के लिए सरकार द्वारा लागू की गई नीति का विश्लेषण किया गया है. इसमें शोधकर्ताओं ने पाया कि शिक्षकों की घरेलू और पढ़ाने की भाषा अगर एक हो वे पढ़ाने में ज्यादा सहज रहते हैं, बजाय इसके कि उनको कोई निर्धारित की गई भाषा में पढ़ाने को कहा जाए. इसके अलावा, अगर टीचर ये कहता है कि वह किसी भाषा के साथ सहज महसूस करता है तो भी पढ़ाने की गुणवत्ता पर असर पड़ता है. इस शोध की एक और खोज ये भी रही कि अपनी भाषा में पढ़ाते समय एक और दिक्कत शिक्षकों के सामने आती है और वो है विषय-विशिष्ट शैक्षणिक शब्दावली की जो अक्सर दूसरी भाषाओं में बनी होती हैं.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घरेलू भाषा या स्थानीय भाषा में पढ़ाई का नियम लागू करने के बाद क्या चुनौतियां आती हैं, उसका अंदाजा इन देशों में किए शोध से लगाया जा सकता है. भारत में इसी तरह का शोध किया जा सकता है जिससे यह पता लगे कि किसी विशेष भाषा में शिक्षकों को पढ़ाने के लिए रखा जाए तो उसके नतीजे क्या होंगे. जब शिक्षकों की मातृभाषा वह पढ़ाने के माध्यम वाली भाषा नहीं होगी तो तब अनिवार्य भाषा के उपयोग के पालन न करके मापदंड क्या होंगे? इसके अलावा, इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि दूसरी भाषा से आने वाली शब्दावलियों को दूसरी भाषाओं में अनुवाद करने पर क्या चुनौतियां सामने आएंगी.
पश्चिम बंगाल का संदर्भ
इंडियास्पेंड से मिले आंकड़े बताते हैं कि पिछले पचास वर्षों में पश्चिम बंगाल में बांग्ला बोलने वालों की संख्या ज्यादा नहीं बढ़ी है. 1961 में 58.43 मिलियन (85.83 प्रतिशत) थी तो 2011 में 78.15 मिलियन (85.62 प्रतिशत) तक पहुंची है. पश्चिम बंगाल में बाकी लोग, (2011 की जनगणना में दर्ज लगभग 6.96 प्रतिशत) खासी संख्या में हैं और वे हिंदी या कोई एक स्थानीय बोली (जैसे, भोजपुरी, खोट्टा, कुरमाली थार, मारवाड़ी, राजस्थानी और सदन/ सदरी) बोलते हैं.
पश्चिम बंगाल में भाषा के मुद्दे को विपक्षी राजनीतिक दलों ने एक हथियार बना लिया है और अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए वे इसे एक समस्या के रूप में दिखा कर अपने अनुसार इसका समाधान चाहते हैं. इंडियास्पेंड के लेख में कहा गया है कि हाल ही में 'बांग्ला राष्ट्रवाद' फिर से जोर पकड़ रहा है जो हिंदी बोलने वालों के खिलाफ बांग्ला भाषा की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल देता है.
हालांकि पश्चिम बंगाल के प्रमुख राजनीतिक दल ने अपनी 'शांति और सद्भाव' की नीति पर चलते यह घोषित किया है कि उन्होंने हिंदी, नेपाली, उर्दू, संथाली, ओडिया, पंजाबी, कामतापुरी, राजबंशी और कुरमाली आदि को उन क्षेत्रों में आधिकारिक रूप से उपयोग करने की अनुमति दी थी, जहां राज्य में इन भाषाओं को बोलने वालों की आबादी 10 प्रतिशत से अधिक है. जब राज्य भर के स्कूलों में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को लागू करने की बात आती है तो पश्चिम बंगाल एक अजब पहेली के रूप में सामने आता है और सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकार विभिन्न मातृ भाषाओं को स्कूलों में पढ़ाने का माध्यम बनाने के लिए तैयार होगी, खासतौर पर तब जब एक भाषा को बोलने वाले निर्धारित की गई संख्या में मौजूद हैं. यदि पश्चिम बंगाल सरकार इसका विरोध नहीं भी करती है, तब भी यह संभव है कि बांग्ला भाषा की 'रक्षा' करने वाली आवाजें उठने लगें और इस नियम का राजनीतिक विरोध शुरू हो जाए.
एनईपी के विभिन्न भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम को पढ़ाने का माध्यम बनाने के प्रभावशीलता पर बहुत सारी अटकलें लगाई जा रही हैं. राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण में भी इस बात से साक्ष्य मिले हैं कि स्कूल में शिक्षा की भाषा का भारतीय छात्रों के पढ़ाई में प्रदर्शन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है. इथियोपिया पहले हुए एक शोध के हवाले से बताया गया है कि जिस भाषा में छात्र को पढ़ाया जाता है, अगर वो और उसके घर पर बोले जानी भाषा एक ही है तो इससे उसके प्रदर्शन पर बहुत प्रभाव पड़ता है. हालांकि, फिलीपींस में शोधकर्ताओं को इसी तरह की नीति को लागू करने से पहले कुछ चुनौतियों को रेखांकित किया है जिसमें यह मुद्दा उठाया गया है कि स्थानीय भाषाओं में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को किस तरह के संघर्ष करने पड़ सकते हैं. भारत में तो इस तरह के निर्देशों का पालन करने में अलग अलग राज्यों से जुड़ी समस्याएं भी सामने आ सकती हैं. मसलन पश्चिम बंगाल में, जहां यूं तो कई भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन जब बात दूसरी भाषाओं से तुलना की आती है तो बांग्ला भाषा की रक्षा करने वाली सार्वजनिक भावना हावी हो जाती है. (लेखक मोंक प्रयोगशाला से जुड़े एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं)
Rani Sahu

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